रविवार, 28 फ़रवरी 2010

पकड़ना ट्रेन को --

जीवन जिया जाता है दो प्रकार से -एक तो बिना जोखिम उठाये अर्थात् कोई खतरा मोल लिये बिना जो होता गया उसी के अनुसार अपने को ढालते गये - सुविधापूर्वक जीते गये ।और दूसरा रुकावटें ठेलते हुये ,संघर्ष करते हुये ,चुनौतियाँ झेलते हुये उत्तेजना पूर्ण जीवन-वीरता से जिये !हर तरह के लोग होते हैं दुनिया में ।आप यह मत समझिये कि आधा घंटा भर पहले स्टेशन पहुँच कर ट्रेन का इन्तजार करने के बाद ,जब वह धड़धड़ाती हुई स्टेशन पर आई तो उसके रुकने का इन्तज़ार कर इत्मीनान से सामान चढाया और खरामा-खरामा आराम से ऊपर चढ गये ।जा बैठे अपनी सीट पर !यह तो बहुत साधारण लोगों का काम है ।इसमें कौन बड़ी बात है ?यह ट्रेन पकड़ना नहीं है ।ट्रेन पकड़ना तो एक दूसरी ही कला है ।बड़े साहस का बड़ी हिम्मत का काम है ।वो लोग ट्रेन पकड़ना क्या जाने, मारे डर के जिनकी जान सूखती रहती जो दो दिन पहले से तैयारी करने में जुट जाते हैं ।ट्रेन पकड़ना तो यह है कि ,सीटी पर सीटी बजा कर ट्रेन छूट गई ,पहिये घूम रहे हैं गाड़ी, बढ़ी जा रही है ,उस छूटती हुई को पकड़ना ,असली पकड़ना है ।लपक कर चलती गाड़ी के दरवाज़े का डंडा पकड़ा और ले झटका घुस गये भीतर ।दरवाज़े पास कोई होगा भी तो आदर से हट जायेगा ।लोग विस्मय से देख रहे हैं- कैसा जाँ-बाज़ ,निडर ,एकदम हीरो ! घुस कर इत्मीनान से सीट पर बैठ गये ।
देखना चाहते हैं तो देखिये ,कभी जब बिना कसी स्टेशन के अचानक ट्रेन रुक जाती है और पता नहीं लगता कि कब तक रुकी खड़ी रहेगी ।उस समय का दृष्य देखिये । हमने तो देखा है- भले ही स्टेशन आया हो तो भीलोग नीचे उतरते भय खाते हैं- पता नहीं कब चल दे -डरपोक कहीं के !कायर लोग क्या ख़ाक जियेंगे ! और कुछ लोग आदतन साहसी होते हैं । हर काम निराला !गाड़ी धीमी पड़ते ही प्लेटफ़ार्म आया हो चाहे नहीं ,ऊपर से कूद जाते हैं पानी-आनी से निबट लेते हैं । टहल-टहल कर वहाँ की गति-विधियों का रस लेते हैं ।ऐसे बहादुर लोग गाड़ी जंगल में भी रुकी हो तो घासों पर या मुँडेर ,पत्थर आदि पर इत्मीनान से बैठ कर मुक्त प्रकृति का आनन्द उठाते हैं । कोई एक -दो नहीं अनेक होते हैं ऐसे । कोई एक-दो के साथ, कोई अपने आप में मस्त बैठे मज़ा ले रहे हैं, नई जगह का ,नये वातावरण का। निश्चिंत बैठे रहते हैं मगन । सीटी देती है गाड़ी। उनकी तल्लीनता में कोई खलल नहीं पड़ता ।सीटी बजती है बजती रहे ,हमेशा बजती है ।कोई कहता है -अरे सीटी बज गई ।वे मुस्करा देते हैं ।
लंबी गाड़ी धीरे से हिलती है ,सिसकारी छोड़ती है ,पहिये घूमते हैं ।ट्रेन की गति-विधि को देख कर उनकी आँखों में चमक आती है और शरीर में उछाह ।गति के वेग पकड़ते ही वे फ़ुर्ती से उठते हैं दौड़ कर खिसकते का डंडा पकड़ कर झटके से भीतर घुस जाते हैं । इसे कहते हैं प्रतिरोधों के बीच जीने की आदत।ये आदत हर लल्लू- पंजू के बस की यह बात नहीं है । इसे कहते हैं ट्रेन पकड़ना ! पकड़नेवाले के चेहरे की चमक देखिये,उनका विजयी भाव देखिये । यह साहस कुछ बिरलों में ही होता है बाकी तो दुम दबाये आँखें फाड़े उनको देखते रह जाते हैं। कायर हैं वे जो डर का ले एहसास जिया करते हैं !साहसी होते हैं जो डट के मज़ा करते हैं !
-- प्रतिभा सक्सेना

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

कबीर की वापसी - अमेरिका में - भाग 1.

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स्वर्ग मे रहते-रहते शताब्दियाँ बीत गईं । कबीरदास ठहरे फक्कड़ ,घुमक्कड़ ,खरी-खरी सुनानेवाले ! स्वर्ग के शान्त जीवन से बोर होने लगे । कभी झाड़-फटकार का मौका ही नहीं मिलता ! उन्हें धरती की याद आने लगी ।यहाँ के हाल जानने की प्रबल आकांक्षा मन मे जाग उठी । लोग किस तरह रहते हैं ,कैसे गुरु होते हैं अब , कैसे चेले ?धर्म का जो सीधा सहज मार्ग वे दिखा गए थे ,लोगों को रास आ रहा है या नहीं ?कैसा जीवन जीता है मनुष्य ? अध्यात्म की राह पर कितना आगे बढ़ा है ?उस समय तो उनके बहुत से अनुयायी हो गये थे ,पंथ का काम कैसा चला रहे है ?हिन्दू मुसलमानो मे सद्भाव के अंकुर तो उन्होने पनपा दिये थे ,अब तो सौहार्द की फ़सल पर फ़सल उग रही होगी !
उन्होने परम पिता से कहा ,' वहाँ दुनिया का पता नहीं क्या हाल होगा ! हम यहाँ खाली बैठे है ।लगा आयें एक चक्कर ?'
भगवान जानते थे स्वर्ग के गीत-संगीत , नाच-कूद मे इनकी जरा रुचि नहीं ,रूखा-सूखा खाकर ठण्डे पानी से तृप्ति पानेवाले कबीर स्वादों के आनन्द से भी निरे उदासीन हैं। उनने सोचा नीचे जाकर इस व्यक्ति को फिर अशान्ति झेलनी पड़ेगी ,हतोत्साहित करने के लिये कहा ,'वत्स , तब से गंगा मे अपार जल-राशि बह चुकी है । वहाँ कुछ भी जाना - पहचाना नहीं मिलेगा तुम्हें ।'
पर कबीर तो कबीर ठहरे ! किसी की बात लगने दें तब तो ! बोले ,' नहीं परम पिता , मैने सुना है कबीर-पंथ और कबीरपंथी वहाँ मौजूद हैं ।लोगों ने बहुत तरक्की कर ली है । मै उस दुनिया को देखना चाहता हूं ।'
झक्की आदमी है ,मानेगा नहीं ! सदा के विनोदी ,विष्णु जी की ओर देखा।उन्होंने आँख झपक कर इशारा कर दिया ।
जाने दो इसे फिर ।रोता हुआ लौट आयेगा -सोचा विधाता ने ।
' ठीक है ।जैसी तुम्हारी इच्छा !पर जाने के पहले थोड़ी तैयारी कर लो । थोड़ी अंग्रेज़ी भाषा सीख लो , आजकल वहाँ उसी का बोल-बाला है ।सब सुविधायें हैं ,घूमना आसान है ,देस-विदेश घूमोगे बहुत काम आयेगी ।'
पुस्तक बहा देने मे विश्वास करनेवाले ठहरे कबीर , मसि कागद तो कभी छुआ नहीं अब कलम क्यों हाथ मे पकड़ें ?
बोले ,' हमे अंग्रेजी से क्या काम ? कौन दुनियादारी करने जा रहे हैं ?राम का नाम तो अभी भी चलता है वहाँ ,हमेश-हमेशा चलता रहेगा ।जिसने आतम को जान लिया राम को पहचान लिया उसे कुछ जानना बाकी नहीं रहा -ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय ।'
विष्णु ने ब्रह्मा को साभिप्राय देखा। दोनो मुस्कराए ।
' ठीक है ! तुम्हारे जाने का प्रबन्ध हो जाएगा ।'
तर्क-कुशल कबीर ने अंग्रेजी का पीछा छोड़ दिया ।अच्छा किया ।नहीं तो उसकी भी छीछालेदर कर डालते ! जब के एन ओ डबल् एल ई डी जी ई स्पेलिंग कर नालेज पढ़ते तो डंडा लेकर खड़े हो जाते । कहते जब के और डी की आवाज़ नहीं निकलती तो इन्हे निकाल फेंको ।जहाँ टी और पी साइलेन्ट देखते तो उन्हे वर्णमाला से ही बाहर धकियाने पर उतारू हो जाते ।अक्खड़ आदमी ठहरे ,कुछ सुनने समझने को तैयार ही नहीं !
जनम के फक्कड़ ! कुछ गठरी-मुठरी तो बाँधनी नहीं थी ।यान चालक को आते देखा तो उठाली लुकाठी हाथ मे और तैयार हो गय़े ।
' कहाँ उतरोगे ,संत जी ?'
'कहीं उतर जागेंगे ,इतनी बड़ी दुनियाँ है ।कबिरा खड़ा बजार मे माँगे सबकी खैर ,ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर !और भी , ना घर तेरा ,ना घर मेरा चिड़िया रैन बसेरा है ।'
साथ आया दूत मुस्करा दिया ।
ऊपर से नीचे उतरते-उतरते आठ दस- घन्टे लग गए ,जब तक यान धरती छूता वह घूम गई थी ,नीचे का हिस्सा सामने आ गया था । थोड़ी ऊपर थे तभी से यहाँ के दृष्य दिखाई देने लगे । ऊँची-ऊँची इमारतें दौड़ती हुई तरह-तरह की गाड़ियाँ ,कुछ यान आसमान मे उड़ते हुए पहले ही देख चुके थे वे ।
' हमे का फिर किसी स्वरग मे लै आए हो ?'
'वही धरती है सन्त जी ,जो आप छोड़ गए थे । पहचान मे नही आ रही ना ?'
' सच मे बहोत तरक्की कर ली है लोगन ने ! '
'अब तो एक जगह बैठ कर ही दुनियाभर की बातें सुन सकते हो , जिसे चाहो देख भी सकते हो ।'
सब हठयोग का चमत्कार होगा । कबीर ने सोचा- साधना से क्या-कुछ नहीं हो सकता !
' ये सब कैसे ढाँचे बने हैं लाइन की लाइन खम्बे गाड़ रक्खे हैं ,काहे ?'
' का,का समुझावैं ?अब नीचे जा रहे हो सब आपै देख लेना ।'
'अच्छा ये तो बताय देओ ये कौन देस है जहाँ उतार रहे हो ?'
'यू अमरीका है जिसे पहले के जमाने मे पाताल कहा जात रहा ।'
अनजानी जगह सारी नई-नई बातें देख कबीर को कुछ घबराहट होने लगी ,लेकिन कहा कुछ नहीं , शान जो घट जाती !
सोचते रहे - कौन जगह है यह ? पाताल लोक या नाग लोक ? दुनियाँ मे थे तो घूम-फिरकर और सत्त्संग कर कर के बहुत बातें जान गए थे पर तत्व-तत्व की ग्रहण कर बाकी भूसे की तरह उड़ा दीं । उन्हे मलाल होने लगा भूसा भी कभी-कभार बड़े काम आता है, थोड़ा ऱख लेना था ।
चलो ,होयगी सो देखी जायगी !
उतार दिया गया उन्हे केलिफ़ोर्लिया के सानफ्रान्सिसको नगर मे ।चकराए से खड़े हो गये ।
'तो अब हम चलें ? ''दूत ने पूछा ।
'कौन किसका साथ देता है ?'
यह आदमी हमेशा दार्शनिक बना रहता है ,उसने ने सोचा और झट् से विमान उड़ा ले गया ।
सानफ़्रानसिसको की चमक-दमक भरी गगनचुम्बी इमारतों को आँखे फाड़े देखते कबीर खड़े थे ।
समुद्र की ओर से आते शीतल हवा के झकोरे । कबीर को झुरझुरी उठने लगी ।साफ़ -सुथरी चौड़ी सड़कें शानदार कारें दौड़ रही हैं ,विचित्र वेष-भूषा मे लोग ! सब अपने-अपने मे व्यस्त !यहाँ भी-अप्सराएँ हैं क्या ? सुनहरे-रुपहले मुक्त केश ,एकदम गोरा रंग बदन-दिखाऊ कपड़े पहने स्वतंत्रता से विचरण कर रही हैं ।उनने आँखें फेर लीं ,स्वर्ग मे भी अप्सराओं से कतराते फिरते थे ।वे मुस्कराती हुई पास आतीं तो 'बहना -बहना ' बोल कर इधऱ -उधऱ टल थे ।
अचानक उन्होने देखा एक ओर के सँकरे रास्तेपर जिस पर गाड़ियों का आवागमन नहीं है ,बनियान घुटन्ना पहने एक आदमी भागा जा रहा है । कबीर चौकन्ने हो गये - जरूर कोई चोर-उचक्का है । यहाँ कोई ध्यान ही नहीं दे रहा अजीब लोग हैं ! नहीं ,सामने-सामने देख कर चुप रह जायँ यह हमसे लहीं होगा ! क्षणभर मे उन्होने तय कर लिया और भागे उसके पीछे ! वह आगे भागता चला जा रहा था ,कबीर दौड़ लगा रहे थे उसे पकड़ने के लिए -झपट कर पकड़ ही लिया !उसके दोनो हाथ पकड़े खड़े हैं कबीर! लोग निकलते चले जा रहे हैं ,किसी को कोई मतलब नहीं और उचक्का जाने किस भाषा मे कुछ कहे जा रहा है।
'अरे कोई है ' कबीर चिल्लाए । और किसी ने तो न उनकी भाषा समझी न पुकार का प्रत्युत्तर !एक आदमी , जो कुछ समय पहले ही फ़िज़ी से आया था सामने आ गया ।
'का हुइ गवा ?'
'ई चोर है ,जरूर कुछ चुराए भागा जा रहा है ' कबीर कस कर हाथ पकड़े हैं ।उसने उस घुटन्नेवाले से कुछ गिटर-पिटर की ,वह भी तमतमा रहाथा।
'अरे छोड़िये उसे , वह जागिंग कर रहा है ।'
ई का होवत है ?'
'मैड मैन ---पुलिस 'आदि जाने क्या कहता वह फिर भागता चला गया । "
बात समझकर बड़ी हैरत हुई उन्हें ! पागल कह गया है जाने दो पहले भी इस दुनिया के लोगन ने पागल समझा था ।
'भले तुम मिल गए ,नहीं जाने का होता ! भइया तोहार नाम का है ?'
'राम भजन ! '
'का खूब मिलाया है राम ने !' दोनो मे बातचीत होने लगी । चलो एक ठिकाना तो मिला !
' ई सामने कोई राजा का महल है ?'
'नाहीं ऊ तो रामडा इन है । इन मतलब रहने की जगह , सराय ।"
मगन होगए कबीर राम का नाम सुनकर ।तब तो हियईं टिक जाएंगे , एकाध फक्कड़ और मिल गए तो खूब जमेगी ! वे रामडा इन मे जा घुसे - राम के नाम पर बनी है १ कितनी भक्ति है ,रामड़े को अभै तक पकड़े हैं लोग ! प्रसन्न होगया कबीर का मन ! इतने सुन्दर सुहाने घास के चौक ,फूलों की बहार सब राम की माया है १
लान मे बैठ गए जाकर राम-नाम जपने लगे ! वो उधर एक युवा स्त्री साथ मे एक पुरुष क्या कर रहे हैं ? हाय राम ,आँखे फटी की फटी रह गईं ।खूब ज़ोर से खाँसा-खखारा ,वे लोग अपनी लीला मे लीन रहे ।कबीर मुँह फेर कर बैठ गए ,पर चैन नहीं पड़ रहा था .।रामडे की सराय ,यही नाम तो बताया था राम भजन ने ,मे आते-झाते लोग दिखाई पड़ रहे थे -सरे आम लिपटते झिपटते किसी को शरम नहीं कोई रोक-टोक नहीं ।इससे अच्छा है अंदर चलें - राम की सराय मे संतों का जमावड़ा होता ही होगा ,थोड़ा सत्संग हो जाय !अंदर के दृष्य - शराब पीने और पिलानेवालो की भरमार ! वे आगे बढ़ते चले गए भोजन -मांस मच्छी झींगे केकड़े और जाले क्या-क्या ! अजीब महक !गाय और सुअर की शकलें बनी हैं-दोनो का मांस राँधते हैं ।और का देखना बाकी है? न हिन्दू ,हिन्दू रहा , न मुसलमान ,मुसलमान १
राम का नाम धरके कैसे पाप - करम कर रहे हैं लोग !
भागते रहे कबीर यहाँ से वहाँ .! सागर किनारे की रंग-रलियाँ देखीं ,बाज़ारों मे बिकता नंगापन । राम भजन का घर भी देख चुके -मेहरारू के कपड़े ?वे तो मुँह फेर कर बैठे रहे ।खाने की भली चलाई पानी तक नहीं पिया गया ।उसी से सुना यहाँ तलाक देकर औरतें भी बार-बार नए-नए मरदों से शादी कर लेती हैं ! कान पर हाथ धर लिए उन्होने तो । अब नहीं देखा जाता !पर जायँ तो जायँ कहाँ ?
सुना था लोग सुखी हैं
सचमुच- सुखिया सब संसार है खाये अरु सोवे ,दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवे !
सागर किनारे एक चट्टान पर बिसूरते बैठे हैं । कौन जाने परमात्मा को कब दया आएगी !
(

लोक-मन की बात

संस्कृतियों का जन्म लोकमानस के क्रोड़ में होता है ,उनका विकास और संरक्षण लोक के द्वारा ही संभव है ।लोक मन के सहज-सरल परिवेश मे मान्यताये जड़ें जमाती हैं और लोक-व्यवहार जिसे स्वीकार करता चलता है वह कालान्तर में संस्कृति का अंग बन जाता है ।
लोकमन की दुनिया बहुत बड़ी है क्योंक वह बहुत उदार होता है । हर स्थिति में अपने को ढाल लेने की सामर्थ्य उसमैं होती है ।लोक-मानस जितना सहनशील और लचीला होता है , आभिजात्य उतना ही परंपरावादी और कठोर । लोक -मन सोचता है -अरे ये लोग ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं आज़मायें । और अभिजात कहेगा हम ऐसा करते आये हैं अब अपने को क्यों बदलें ! लोक नवीन का अभिनन्दन करता है , उसे स्वीकार करता है,इसीलिये वह निरंतर परिवर्धित और विकसित होता चलता है । अभिजात परंपरा को पकड़े रहने की कोशिश करता है अपनी मान्यताओं को बदलना नहीं चाहता ।पर लोकमन जन-विश्वासों को पूरा सम्मान देता है। बेहद समन्वयशील ,सभी मान्यताओं को शिरोधार्य करनेवाला ,और सब मतों का आदर ,विरोधों का समन्वय ।एक ओर सीता को पत्नीत्व आदर्श मानता है तो दूसरी ओर कृष्णप्रिया राधा की महिमा गाते परकीया भाव शिरोधार्य करते नहीं अघाता ।
लोकमन विश्वासी है सबको सिर धारता चलता है ।परंपरागत रीति-रवाजों को जतनी निष्ठा से निभाता है उतनी ही सहजता से नये को भी सिरधार लेता है ।भाषा के प्रयोग में यह बात बहुत स्पष्ता से देखी जा सकती है ।जबकि अभिजात को हमेशा संशयात्मा देखा जाता है ।।भाषा का प्रयोग करने में एक ओर हम परंपरा के अनुसार चलनते हैं वहाँ जन सामान्य भाषा को अपने हिसाब से गढ लेता है ।टाइम का टैम ,फ़ारवर्ड के लिये फर्वट ।और तो और शब्दों को अपने हसाब से मोड़ लेने में वह माहर है ।वो तो हन्न ह्वै गई. ।अंग्रेजडी के ज्यूस को झूस बना लेता है और कहता है- झूसदार तरकारी (रसे की सब्ज़ी )।
लौकमन वड़ा विनोदी है और सतत प्रयोगशील भी ,बहुत उदार होते हुये भी विदग्धता संपन्न है ।सब-कुछ देखता-सुनता है ,मन में रखे रहता है और उपयुक्त अवसर आते ही प्रतिक्रिया व्यक्त करने से चूकता नहीं ।मर्यादाओं का निर्वाह करता है लेकन खरी-खरी सुनाने में किसी को बख़्शता नहीं ।' जन-भाषा में एक शब्द चलता है - राम जना ,।जिसके जनक का पता नहीं माँ ने लाञ्छन झेल कर जन्म दिया, अकेले रह कर सेवा-सुश्रुषा या जैसे हो सका पाला हो उसे झट् से यह नाम दे देता है-।जानता है राम तो किनारा कर गयें होंगे औलाद को पालने आयेंगे नहीं उन्हें दुनिया भर के काम हैं ।जानते हैं न कि कोई पाले-सम्हाले रहेगी हमारी ही । फ़ालतू झंझट क्यों पालें ,।औरत जाने उसका काम जाने।
रामजना '।राम के जने तो लव-कुश थे पर बड़े होने तक उनके पता का नाम अज्ञात ही रहा था ।वाल्मीकि आश्रम में पैदा हुये ।सीता वहीं आश्रम में रह कर वहाँ के सेवा-कार्य करती हुई पालती-पढाती रहीं । तब तक वे सीता के पुत्र कहलाते रहे। अश्वमेध का घोड़ा हार जाने के बाद राम स्वयं आये और अपना पुत्रों को स्वीकार कर साथ ले गये ।जिनके पिता अज्ञात हों उन सब ,चाहे जारज ही हों, पुत्रों को राम के नाम कर दिया । बड़ी सटीक और तीखी व्यंजना-शक्ति से संपन्न है लोक मन ,साथ ही बड़ा विनोदी है। इशारे -इशारे में मर्म पर चोट कर गया ।बात कही किसके लिये और पहुँच रही है कहाँ ।राम के कोई पुत्री नहीं थी इसीलिये 'रामजनी ' जारज पुत्री के लिये प्रयुक्त न कर वेश्या के नाम कर दिया गया(हिन्दी थिसारस)। )

संस्कृति ,सद्भाव ,धर्म ,कला,विद्या समाज सापेक्ष हैं ,लोक के बिना संदर्भहीन ,व्यवहारहीन ।उनकी व्याप्ति लोक में हो तभी उनका उपयेग और महत्व है ,लोक में ही उनका पूर्ण प्रस्फुटन संभव है ।परस्पर विरोधों में मजे से संतुलित रहता है लोक मन ।अपने लिये नये-नये रास्ते ढूँढ लेता है। लोग जो माने वह सब ग्रहण करता चलता है और बड़े कौशल से विभिन्न पक्षों का निर्वाह करता चलता हैं वह सब कोई कहे राधा विवाहिता थी तो कथायें चल नकलती हैं राधा कृष्ण की मामी थीं -भद्रगोप /अयन गोप की पत्नी ,वय में कृष्ण से कई वर्ष बड़ी ।जो वर्ग यह मान कर चले कि कुमारी थी वह भी ठीक - पर कवियों की कल्पना के अनुसार वह उन्हें बराबर का मान लेता है ,जो खेलते हैं ,लड़ते हैं नोक-झोंक एक दूसरे से अगाध प्रेम करते है।यह सब तो मन की लीलायें हैं-लोक मानस में निरंतर नव-नव रूपों में सजती-सँवरती ।जिसमें हृदय को आनन्द की अनुभूति हो उसी में हम भी मगन।हमें सब मंज़ूर !
शिशु सा सरल लोकमन ,सहज विश्वासी है जो कुछ सामने आता है ,से उसे स्वीकार है और आत्मसात् करता चलता है सब से निभाता चलता है ।लोक-मन अजस्र प्रवाहित गंगा की धारा है ,जो सारे विकारों ,प्रदूषणों को अपने पावन प्रवाह में समाहित कर लेता
सहज ग्राह्य और वरेण्य बना देती है ।वास्तव में लोक का मन ही गंगा बन जाता है ,जिसकी चेतना विराट् है,जिसकी संस्कारशीलता का स्तर अपनी मर्यादा नहीं खोता ।यह प्रवाह कभी क्षीण नहीं होता चिर पुरातन होकर भी चिर-नवीन बन रहता है ।काल के क्रम में अनेक छोटी-बड़ी धारायें इसमें आ मिलती हैं ,जन मानस को सींचती हुई हमें आश्वस्त करती हैं कि जीवन कभी रीतता नहीं ,उसकी परिधि छोटी-छोटी वृत्तिकाओं को समाहित करती अपनी व्यप्ति परिवर्धित करती रहती है ।सारा जग-जीवन इसके अंतर्गत है खेती-बाड़ी से सूरज-चाँद-सितारों तक और बाज़ार भाव ,मौसम और रोज़मर्रा के जीवन से लेकर अध्यात्म चिन्तन ज्ञान -विज्ञान ,कला विद्या सब इसमें सिमट आते हैं ।लेकिन देखता है सबको यह अ0पनी दृष्टि से जिसमें मनस्तत्व की प्रधानता है ।यह मानस लोक मन सर्व ग्राही है ,सब को शिरोधार्य करता है य।जितना मान राजा भोज को देता है उतनी तन्मयता से गंगू तेली की जीवन शैली पचा लेता है।

लोक-संवेदना ,तरल-सरल,विश्व प्रतबिंबत ,स्पंदन .संवेदन,पर्वत नदी पेड़ जंगल सब सजीव हैं ,पशु-पक्षी मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं और मनुष्य अपनी सारी कमज़ोरियों और समर्थ्य के साथ उसमें विद्यमान रहता है ।नारी जीवन की संदेनाओं का इतना गहरा और मार्मिक वास्तविक चित्रण पहुँचे हुये कवियों की वाणी में नहीं मिलेगा जितना लोक- कथाओं और लोक-गीतों में क्योंक इनका रचयिता स्वयं लोक मन है ।लोकमन भोक्ता नदियों और पहाड़ों की पीड़ा।नगर से कृत्रिम जीवन के बजाय आँचलिक और ग्राम्य जीवन के प्रति उसकी संवेदना अधिक मुखर रही है ,क्योंक वहाँ दुराव छिपाव की गुँजायश नहीं होती ,प्रकृति के निकट ,स्वाभाविक जीवन उसकी रसमयता,आत्मीयता सच्चा कलाकार है ।कलाओं का सर्वाधिक मौलिक स्वरूप हमें चहीं मिलतास है।लोकमन की यात्रा अनादि और अनन्त है ।जीवन के प्रारंभ से ले कर अंत तक की कोई भूमिका उससे छूटी नहीं है । देश-काल -परिस्थिति के अनुरूप अपने को ढालने में वह सक्षम है ।
लोक मन मानव की स्वभावगत अनेकताओं को स्वीकार कर सबका उचित सत्कार करता है।उसके कथन कभी कभी विरोधाभासी लग सकते हैं ।लेकन यह अन्तर्विरोध न होकर विभिन्नताओं सामंजस्य है जिसमें लोक की समग्रता समाविष्ट हो सके ।एक वह एक पक्ष के प्रति उदार है और दूसरी और उसके विपरीत के प्रति भी उतना ही सहानुभूतिपूर्ण और सहनशील ।उसकी संवेदना सब से जुड़ी है ।

प्रचंड जिजीविषा उसे कभी हताश नहीं होने देती ।गिरावट का काल आता है ,कुछ समय को उसकी ग्रहण क्षमता क्षीण हो जाती है स्थितियों जब तेज़ी से बदलती हैं,नई आने वाली चीजों की बहुतायत हो जाती है तब कुछ समय यह स्तब्ध लगता है लेकिन वह निरंतर सचेत रह कर सबको तोलता रहता है ।यह प्रतिक्रियाहीनता उसके साक्ष्य-भाव की द्योतक है ।देखता -परखता है ,इन्तज़ार करता है बाढ़ के उतरने का ।बहुत प्रयोगोशील है लोक मन।समाज के विभिन्न व्यवहारों को आलोचना-प्रशंसा निर्लिप्त भाव से सुनता-गुनता है ।जो भाता है उसे रच रच कर सँवारता है अपना कथाओं के भंडार में सम्मिलित कर लेता ।उसकी की कथाओं का भंडार कभी रीतता नहीं -चिर नवीन रहता है सदा कुछ न कुछ नया जुड़ता चलता है उसमें ।एक का दूसरे से प्रतिस्थापन करने में यह बड़ा कुशल है ।मान्यताओं के साथ प्रतीक बदल जाते हैं । वह चुनता है ,छाँटता है परिणाम की प्रतीक्षा करता है देश ,काल और परिस्थिति के अनुरूप व्वहारों को परखता है ,कुछ त्यागता है ,कुछ ग्रहण करता है और जो व्यर्थ लगता है ,उसे बिल्कुल नकार देता है ।
लोक- मन ऐसा यात्री है ,जो अनवरत चलता है ,अथक अविश्रान्त । सम-विषम परिस्थतियों को सम भाव से स्वीकार करता हुआ,
सतत सचेत और चारों ओर जो होता चलता है उसे विचारते ग्रहण करते हुये देश ,काल और परिस्थतियों के अनुकूल अपना रास्ता स्वयं बनाता है ।

सीता रावण की पुत्री थीं

रामकथा के प्रतिनायक रावण में बहुत से श्रेष्ठ गुण होते हुये भी उसका एक आचरण ,उसका एक दोष उसकी सारी अच्छाइयें पर पानी फेर जाता है और उसे सबके रोष और वितृष्णा का पात्र बना देता है ।यदि उस पर पर-नारी में रत रहने और सबसे बढ़कर सीता हरण का दोष न होता तो रावण के चरित्र का स्वरूप ही बदल जाता ।वास्तवियह है कि सीता रावण की पुत्री थी और सीता स्वयंवर से पहले ही वह इस तथ्य से अवगत था ।

'जब मै अज्ञान से अपनी कन्या के ही स्वीकार की इच्छा करूं तब मेरी मृत्यु हो."
-अद्भुत रामायण 8-12 .
रावण की इस स्वीकारोक्ति के अनुसार सीता रावण की पुत्री सिद्ध होती है।अद्धुतरामायण मे ही सीता के आविर्भाव की कथा इस कथन की पुष्टि करती है -
दण्डकारण्य मे गृत्स्मद नामक ब्राह्मण ,लक्ष्मी को पुत्री रूप मे पाने की कामना से, प्रतिदिन एक कलश मे कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूँदें डालता था (देवों और असुरों की प्रतिद्वंद्विता शत्रुता में परिणत हो चुकी थी। वे एक दूसरे से आशंकित और भयभीत रहते थे । उत्तरी भारत मे देव-संस्कृति की प्रधानता थी। ऋषि-मुनि असुरों के विनाश हेतु राजाओं को प्रेरित करते थे और य़ज्ञ आदि आयोजनो मे एकत्र होकर अपनी संस्कृति के विरोधियों को शक्तिहीन करने के उपाय खोजते थे।ऋषियों के आयोजनो की भनक उनके प्रतिद्वंद्वियों के कानों मे पडती रहती थी,परिणामस्वरूप पारस्परिक विद्वेष और बढ जाता था)।एक दिन उसकी अनुपस्थिति मे रावण वहाँ पहुँचा और ऋषियों को तेजहत करने के लिये उन्हें घायल कर उनका रक्त उसी कलश मे एकत्र कर लंका ले गया।कलश को उसने मंदोदरी के संरक्षण मे दे दिया-यह कह कर कि यह तीक्ष्ण विष है,सावधानी से रखे।
कुछ समय पश्चात् रावण विहार करने सह्याद्रि पर्वत पर चला गया।रावण की उपेक्षा से खिन्न होकर मन्दोदरी ने मृत्यु के वरण हेतु उस कलश का पदार्थ पी लिया।लक्ष्मी के आधारभूत दूध से मिश्रित होने के कारण उसका प्रभाव पडा।मन्दोदरी मे गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे ।अनिष्ठ की आशंकाओं से भीत मंदोदरी ने,कुरुश्क्षेत्र जाकर उस भ्रूण को धरती मे गाड दिया और सरस्वती नदी मे स्नान कर चली आई।
हिन्दी के प्रथम थिसारस(अरविन्द कुमार और कुसुम कुमार द्वारा रचित) मे भी सीता को रावण की पुत्री के रूप मे मान्यता मिली है ।
अद्भुतरामायण मे सीता को सर्वोपरि शक्ति बताया गया है,जिसके बिना राम कुछ करने मे असमर्थ हेंदो अन्य प्रसंग भी इसी की पुष्टि करते हैं --
(1) रावण-वध के बाद जब चारों दिशाओं से ऋषिगण राम का अभिनन्दन करने आये तो उनकी प्रशंसा करते हुये कहाकि सीतादेवी ने महान् दुख प्राप्त किया है यही स्मरण कर हमारा चित्त उद्वेलित है।सीता हँस पडीं,बोलीं,"हे मुनियों,आपने रावण-वध के प्रति जो कहा वह प्रशंसा परिहास कहलाती है।------ किन्तु उसका वध कुछ प्रशंसा के योग्य नही।"इसके पश्चात् सीता ने सहस्रमुख-रावण का वृत्तान्त सुनाया।अपने शौर्य को प्रमाणित करने के लिये,राम अपने सहयोगियों और सीता सहित पुष्पक मे बैठकर उसे जीतने चले।
सहस्रमुख ने वायव्य-बाण से राम-सीता के अतिरिक्त अन्य सब को उन्हीं के स्थान पर पहुँचा दिया।राम के साथ उसका भीषण युद्ध हुआ और राम घायल होकर अचेत हो गये.।तब सीता ने विकटरूप धर कर अट्टहास करते हुये निमिष मात्र मे उसके सहस्र सिर काट कर उसका अंत कर दिया। सीता अत्यन्त कुपित थीं ,हा-हाकार मच गया।ब्रह्मा ने राम का स्पर्श कर उन्हें स्मृति कराई। वे उठ बैठे। युद्ध-क्षेत्र मे नर्तित प्रयंकरी महाकाली को देख वे कंपित हो उठे।ब्रह्मा ने स्पष्ट किया कि राम सीता के बिना कुछ भी करने मे असमर्थ हैं।(वास्तव में ही सीता-परत्याग के पश्चात् राम का तेज कुण्ठित हो जाता है ।भक्तजन भी के बाद के जीवन की चर्चा नहीं करते । वास्तविक सीता के स्थान पर स्वर्ण-मूर्ति रख ली जाती है ,वनवासी पुत्रों से उनकी विशाल वाहिनी हार जाती है।रामराज्य का कथित चक्रवर्तित्व समाप्त और चारों भाइयों के आठों पुत्रों में राज्य वितरण ,जैसे पुराने युग का समापन हो रहा हो।)राम ने सहस्र-नाम से उनकी स्तुति की,जानकी ने सौम्य रूप धारण किया:राम के माँगे हुये दो वर प्रदान किये और अंत मे बोलीं,"इस रूप मे सै मानस के उत्तर भाग मे निवास करूँगी।" और इस उत्तर भाग मे राम-भक्तों की रुचि दिखाई नहीं देती ।
राम की प्रशंसा पर सीता के हँसने का प्रसंग भिन्न रूपों मे वर्णित हुआ है।उडिया भाषा की 'विनंका रामायण' मे सहस्रशिरा के वध के लिये,देवताओं ने खल और दुर्बल का सहयोग लेकर सीता और राम के कण्ठों मे निवास करने को कहा था(विलंका रामायण पृ.52,छन्द 2240)
(2) आनन्द रामायण,(राज्यकाण्ड,पूर्वार्द्ध,अध्याय 5-6)---------
विभीषण अपनी पत्नी और मंत्रियों के साथ दौडते हुये राम की सभा में आते हैं,और बताते हैं कि कुंभकर्ण के मूल-नक्षत्र मे उत्पन्न हुए पुत्र (जिसे वन मे छोड दिया गया था)मूलकासुर ने लंका पर धावा बोला हैऔर वह भेदिये विभीषण और अपने पिता का घात करनेगाले राम को भी मार डालेगा।
राम ससैन्य गये। सात दिनो तक भीषण युद्ध हुआ पर कोई परिणाम नहीं निकला।तब ब्रह्मा जी के कहने पर कि सीता ही इसके वध मे समर्थ हैं,सीता को बुलाया गया।उनके शरीर से निकली तामसी शक्ति ने चंण्डिकास्त्र से मूलकासुर का संहार किया।
दोनो ही प्रसंगों के अनुसार सीता राम की अनुगामिनी या छाया मात्र न होकर समर्थ,विवेकशीला और तेजस्विनी नारी हैं।वे अपने निर्णय स्वयं लेती हैं।स्वयं निर्णय लेने का आभास तो तुलसी कृत रामचरित-मानस मे भी है जहाँ वे वन-गमन के समय अपने निश्चय पर अ़टल रहती हैं और अपने तर्कों से अपनी बात का औचित्य सिद्ध करती हैं।लक्ष्मण रेखा पार करने का प्रकरण भी अपने विवेक के अनुसार व्यवहार करने की बात स्पष्ट करता है।
वाल्मीकि रामायण मे सीता प्रखर बुद्धि संपन्न होने के साथ स्वाभिमानी ,निर्भय और स्पष्ट-वक्ता है । अयोध्याकाण्ड के तीसवें सर्ग मे जब राम उन्हें वन ले जाने से विरत करते हैं तो वे आक्षेप करती हुई कहती हैं,"मेरे पिता ने आपको जामाता के रूप मे पाकर क्या कभी यह भी समझा था कि आप शरीर से ही पुरुष हैं ,कर्यकलाप से तो स्त्री ही हैं ।..जिसके कारण आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया उसकी वशवर्ती और आज्ञापालक बन कर मै नहीं रहूँगी ।" ,"अरण्य-काण्ड के दशम् सर्ग मे जब राम दण्डक वन को राक्षसों से मुक्त करने का निर्णय करते हैं वह राम को सावधान करती हैं कि दूसरे के प्राणों की हिंसा लोग बिना बैर-विरोध के मोह वश करते हैं,वही दोष आपके सामने उपस्थित है ।एक उदाहरण देकर उन्होने राम से कहा मै आपको शिक्षा देती हूँ कि धनुष लेकर बिना बैर के ही दण्कारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिये ।बिना अपराध के किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझेंगे ।वे यह भी कहती हैं कि राज्य त्याग कर वन मे आ जाने पर यदि आप मुनि- वृत्ति से ही रहें तो इससे मेरे सास-श्वसुर को अक्षय प्रसन्नता होगी ।हम लोगों को देश-धर्म का आदर करना चाहिये।कहाँ शस्त्र-धारण और कहाँ वनवास!हम तपोवन मे निवास करते हैं इसलिये यहाँ के अहिंसा धर्म का पालन करना हमारा कर्तव्य है ।आगे यह भी कहती हैं कि आप इस विषय मे अपने छोटे भाई के साथ बुद्धिपूर्वक विचार कर लें फिर आपको जो उचित लगे वही करें ।दूसरी ओर राम यह मान कर चलते हैं कि सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों की है ,इसलिये वे सबको दण्ड देने के अधिकारी हैं(वाल्मीकि रामायण ,किष्किन्धा काण्ड,18 सर्ग मे ),जब कि उत्तरी भारत में ही अनेक स्वतंत्र राज्यों का उल्लेख रामायण में ही मिल जाता है ।
,'दक्षिण के प्रसिद्ध विद्वान इलयावुलूरि पाण्डुरंग राव ,जिन्होने तेलुगु ,हिन्दी और अंग्रेजी मे लगभग 500 कृतियों का प्रणयन किया है ,,और जो तुलनात्मक भरतीय साहित्य,दर्सन और भारतीय भाषाओं मे राम-कथा साहित्य के विशेष अध्येता हैं , का मत भी इस संबंध मे उल्लेखनीय है।अपनी 'वाल्मीकि 'नामक पुस्तक मे उन्होने सीता को उच्चतर नैतिक शिखरों पर प्रतिष्ठित करते हुये कहा है ,-'राम इस विषय मे अपनी पति-परायणा पत्नी के साथ न्याय नहीं कर सके........वे अपनी दणडनीति मे थोडा समझौता तो
कर ही सकते थे.क्योंकि उनकी पत्नी गर्भवती है,और अयोध्या के भावी नरेश(नरेशों ) को जन्म देनेवाली है। कारण कुछ भी हो साध्वी ,तपस्विनी सीता पर जो कुछ बीता वह सबके लिये अशोभनीय है ।"(वाल्मीकि-पृष्ठ 49)

वन-वास हेतु प्रस्थान के समय जब कौशल्या सीता को पतिव्रत- धर्म का उपदेश देती हैं तो सीता उन्हें आश्वस्त करती हुई कहती हैं ,'स्वामी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये यह मुझे भली प्रकार विदित है।पूजनीया माताजी ,आपको मुझे असती के समान नहीं मानना चाहिये ।.....मैने श्रेष्ठ स्त्रियों माता आदि के मुख से नारी के सामान्य और विशेष धर्मों का श्रवण किया है ।'
सामने आनेवाली हर चुनौती को सीता स्वीकार करती है ।जब विराध राम-लक्षमण के तीरों से घायल हो कर सीता को छोड उन दोनो को उठा कर भागने लगता है तो वे बिना घबराये साहस पूर्वक सामने आ कर उसे नमस्कार कर राक्षसोत्तम कह कर संबोधित करती हैं और उन दोनो को छोड कर स्वयं को ले जाने को कहती हैं ।राज परिवार मे पली सुकुमार युवा नारी मे इतना विश्वास,साहस धैर्य और स्थिरता उनके विरल व्यक्तित्व की द्योतक है ।हनुमान ने भी सीता को अदीनभाषिणी कहा है ।वह राम से भी दया की याचना नहीं करती ,केवल न्याय माँगती है ,जो उन्हे नहीं मिलता ।
सीता के चरित्र पर संदेह करते हुये ,अंतिम प्रहार के रूप मे, राम ने यहाँ तक कह डाला कि तुम लक्ष्मण ,भरत, सुग्रीव ,विभीषण जिसका चाहो वरण कर सकती हो ।सीता तो सीता ,उन चारों को ,जो सीता और राम-सीता के प्रति पूज्य भाव रखते थे ,ये वचन कैसे लगे होंगे !वाल्मीकि की सीता ने उत्तर दिया था,"यदि मेरे संबंध मे इतना ही निकृष्ट विचार था तो हनुमान द्वारा इसका संकेत भर करवा देते ...।"आगे उन्होने कहा ,"आप ऐसी कठोर ,अनुचित ,कर्ण-कटु और रूखी बात मुझे क्यों सुना रहे हैं ?जैसे कोई निम्न श्रेणी का पुरुष ,निम्न श्रेणी की स्त्री से न कहने योग्य बातें भी कह डालता है ऐसे ही आप भी मुझसे कह रहे हैं ।..नीच श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देख कर यदि आप समूची स्त्री जाति पर ही सन्देह करते हैं तो यह उचित नहीं है।आपने ओछे मनुष्यों की भाँति केवल रोष का ही अनुसरण करके ,मेरे शील-स्वभाव का विचार छोड केवल निम्न कोटि की स्त्रियों के स्वभाव को ही अपने सामने रखा है(युद्ध-काणड,116 सर्ग)।"
पति-पत्नी का संबंध अंतरंग और पारस्परिक विश्वास पर आधारित है । सीता की अग्नि-परीक्षा लेने और वरुण,यम ,इन्द्र ब्रह्मा और स्वयं अपने पिता राजा दशरथ के प्रकट होकर राम को आश्वस्त करने के बाद भी ,वे प्रजाजनो के सम्मुख सत्य को क्यों नही प्रस्तुत कर पाते ?राम अगर सीता द्वारा अग्नि-परीक्षा दी जाने की बात बता देते तो सारी प्रजा निस्संशय होकर स्वीकार कर लेती ,उसी प्रकार जैसे राम के पुत्रों को सहज ही स्वीकार कर लिया था ।
,राजा दशरथ तो स्वयं खिन्न हैं ।वे सीता को पुत्री कह कर सम्बोधित करते हैं और कहते हैं कि वह इस व्यवहार के लिये राम पर कुपित न हो । उन्हें अनुमान भी नहीं होगा निर्दोषिता सिद्ध होने के बाद भी सीता को दंडित किया जायेगा और फिर उन्हें इस स्थिति से गुजरना होगा । राम सदा परीक्षा ,प्रमाण और शपथ दिलाते रहे ,और विपत्ति के समय सीता अकेला छोड दिया गया । चरम सीमा तब आ गई जब उन्होने देश-देश के राजाओं ,मुनियों और समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये घोषणा करवा दी कि जिसे सीता का शपथ लेना देखना हो उपस्थित हो । उस विशालजन-समूह के सामने सीता को वाल्मीकि द्वारा आश्रम से बुलवाकर उपस्थित किया जाता है(वाल्मीकि रमायण) । दो युवा पुत्रों की वयोवृद्ध माता ,जिसका परित्यक्त जीवन ,वन मे पुत्रों को जन्म देकर समर्थ और योग्य बनाने की तपस्या मे बीता हो ,ऐसी स्थिति मे डाले जाने पर धरती मे ही तो समा जाना चाहेगी ।वाल्मीकि ने नारी मनोविज्ञान का सुन्दर निर्वाह किया है । सब कुछ जानते हुए भी पति पत्नी को विषम स्थितियों से जूझने के लिये अकेला छोड ,लाँछिता नारी के पति की मानसिकता धारण किये राम विचलत होकरअपने को बचाने के लिये बार-बार समाज के सामने मिथ्या आरोंपों का,दुर्वचनों , शंकाओं का और कुतर्कों की भाषा बोलने लगे किन्तु अविचलत रह कर सीता ने सबका सामना करते हुये जिस प्रकार व्यवहार किया उससे उनकी गरिमा और बढ़ती है ।प्रश्न यह है कि राम अपने इस आचरण से भारतीय संस्कृति के कौन से मान स्थापित कर सके ?
जनता को सत्य बता कर उचित व्यवहार करने से यह गलत सन्देश लोक को न मिलता कि पत्नी पर पति का अपरमित अधिकार है और पत्नी का कर्तव्य है सदा दीन रह कर आज्ञा का पालन .!राम के इस व्यवहार ने भारतीय मानसिकता को इतना प्रभावित कर दिया कि चरित्रहीन ,क्रूर और अन्यायी पति भी पत्नी में सीता का आदर्श चाहते हैं एक बार सीता के सामने आकर राम अपनी स्थिति तो स्पष्ट कर ही सकते थे ।सीता को लेकर स्वयं वन भी जा सकते थे ,राज्य को सँभालने के लिये तीनो भाई थे ही ,संतान उत्पन्न होने तक ही साथ दे देते,बच्चे तो उनके ही थे !
अयोध्या काण्ड के बीसवें सर्ग मे कौशल्या की स्थिति भी इसी प्रकार चित्रित की गई है।जब पुत्र को वनवास दे दिया गया है ,वे चुप नहीं रह पातीं ,कहती हैं ,'पति की ओर से भी मुझे अत्यंत तिरस्कार और कडी झटकार ही मिली है ।मै कैकेयी की दासियों के बराबर या उससे भी गई-बाती समझी जाती हूँ ।...पति के शासन-काल मे एक ज्येष्ठ पत्नी को जो कल्याण या सुख मिलना चाहिये वह मुझे कभी नहीं मिला ।
वन-गमन के लिये जब राम अपनी माताओं से बिदा लेने जाते हैं तब रनिवास मे दशरथ की 350 और पत्नियाँ हैं(वाल्मीकि रामायण,अयोध्या काण्ड 39 सर्ग)
शूर्पनखा(चन्द्रनखा ) के साथ उनका जो व्यवहार रहा उसे नीति की दृष्ट से शोभनीय नहीं कहा जा सकता ।कालकेयों सेयुद्ध करते समय रावण ने प्रमादवश अपनी बहन शूर्पनखा के पति विद्युत्जिह्व का भी वध कर दिया ।जब बहिन ने उसे धिक्कारा तो पश्चाताप करते हुये रावण ने उसे उसे संतुष्ट करने को दण्डकारण्य का शासन देकर खर -दूषण को उसकी आज्ञा में रहने के लिये नियुक्त कर दिया (वाल्मीकि रामायण, उत्तर खण्ड -24सर्ग)।वह विधवा थी और यौवन संपन्न थी ।अपने क्षेत्र में दो शोभन पुरुषों को देख कर उसने प्रणय-निवेदन किया ।उसका आचरण रक्ष संस्कृति के अनुसार ही था।पर जिस संस्कृति और आचरण में राम पले थे उसमें एक नारी का आगे बढ कर प्रेम-निवेदन करना उनके गले से नहीं उतरा ।उन्होंने उसे विनोद का साधन बना लिया।उपहास करते हुये दोनों भाई मज़ा लेते हैं।एक -दूसरे के पास भेजते हुये राम-लक्ष्मण जिस प्रकार उसकी हँसी उड़ाते हैं और अप शब्द कहते हैं उससे वह क्रोधित हो उठती है ।राम लक्ष्मण से उसके नाक-कान कटवा देते हैं ।इलयावुलूरि पाण्डुरंग राव का कथन है-शूर्पनखा में भी गरिमा और गौरव का अभाव नहीं है ।कमी उसमे केवल यही है कि राम-लक्ष्मण के परिहास को वह सही परिप्रेक्ष्य में समझ नहीं पाती ।बेचारी महिला दोनों राजकुमारों में से एक को अपना पति बनाने का दयनीय प्रयास करते हुये कभी इधर और कभी उधऱ जाकर हास्यास्पद बन जाती है ।अंततः सारा काण्ड उसकी अवमानना में परिणत हो जाता है (वाल्मीकि पृ.75)।
ताटका के प्रसंग मे भी देखने को मिलता है कि राम के साथ उसका कोई विरोध नहीं था य़वह राक्षसी न होकर यक्षी थी ।उसके पिता सुकेतु यक्ष बडे पराक्रमी और सदाचारी थे ।संतान प्राप्ति के लिये उन्होंने घोर तपस्या की ।बृह्मा जी ने प्रसन्न होकर उन्हे एक हजार हाथियों के बल वाली कन्या की प्राप्ति का वर(या प्रछन्न शाप?) दिया ,वही ताटका थी ।अगस्त्य मुनि ने उसके दुर्जय पुत्र मारीच को राक्षस होने का शाप दिया और उसके पति सुन्द को शाप देकर मार दिया ।तब वह अगस्त्य मुनि के प्रति बैर-भाव रखने लगी .और उन्होंने उसे भी नर-भक्षी होने का शाप दे दिया था (बालकाण्ड ,25 सर्ग)।पता नहीं ,तपस्वी होकर भी ऋषि-मुनियों में इतना अहं क्यों था कि अपनी अवमानना की संभावना से ही ,बिना वस्तुस्थिति या परिस्थिति का विचार किये शाप दे देते थे ।शकुन्तला ,लक्ष्मण,और भी बहुत से लोग अकारण दण्डत होते रहे ।इसी प्रकार की एक कथा सौदास ब्राह्मण की है।शिव के आराधन मे लीन होने के कारण ,उसने अपने गुरु को उठ कर प्रणाम नहीं किया तो उसे भी राक्षस होने का शाप मिला ,ऐसा भयानक राक्षस जो निरंतर भूख-प्यास से पीडित रह कर साँप ,बिच्छू ,वनचर और नर-माँस का भक्षण करे ।
वाल्मीकि रामायम के उत्तर काण्ड ,एकादश सर्ग मे उल्लेख है कि पहले समुद्रों सहित सारी पृथ्वी दैत्यों के अधिकार मे थी।विष्णु ने युद्ध मे दैत्यों को मार कर इस पर आधिपत्य स्थापित कियाथा।ब्रह्मा की तीसरी पीढी मे उत्पन्न विश्रवा का पुत्र दशग्रीव बडा पराक्रमी और परम तपस्वी था।विष्णु के भय से पीडित अपना लंका-निवास छोड कर रसातल को भागे राक्षस कुल का रावण ने उद्धार किया और लंका को पुनः प्राप्त किया।सुन्दर काण्ड के दशम् सर्ग मे उल्लेख है कि हनुमान ने राक्षस राज रावण को तपते हुये सूर्य के समान तेज और बल से संपन्न देखा ।रावण स्वरूपवान था ।हनुमान विचार करते हैं ,'अहा इस राक्षस राज का स्वरूप कैसा अद्भु है!कैसा अनोखा धैर्य है ,कैसी अनुपम शक्ति है और कैसा आश्चर्यजनक तेज है !यह संपूर्ण राजोचित लक्षणों से युक्त है ।'
सुन्दर स्त्रियों से घिरा रावण कान्तिवान नक्षत्रपति चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था ।राजर्षियों,ब्रह्मर्षियों,दैत्यों ,गंधर्वों और राक्षसों की कन्यायें स्वेच्छा से उसके वशीभूत हो उसकी पत्नियाँ बनी थीं ।वहाँ कोई ऐसी स्त्री नहीं थी ,जिसे बल पराक्रम से संपन्न होने पर भी रावण उसकी इच्छा के विरुद्ध हर लाया हो ।वे सब उसे अपने अलौकिक गुणों से ही उपलब्ध हुई थीं ।उसकी अंग-कान्ति मेघ के समान श्याम थी।शयनागार मे सोते हुये रावण के एक मुख और दो बाहुओं का ही उल्लेख है ।श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न रावण परम तपस्वी ,ज्ञान-विज्ञान मे निष्णात कलाओं का मर्मज्ञ और श्रेष्ठ संगीतकार था उसके विलक्षण व्यक्तित्व के कारण ही ,उसकी मृत्यु के समय राम ने लक्ष्मण को उसके समीप शिक्षा लेने भेजा था। ,यह उल्लेख भी बहुत कम रचनाकारों ने किया है ।।उसके द्वारा रचित स्तोत्रो में उसके भक्ति और निष्ठा पूर्ण हृदय की झलक मिलती है ।चिकित्सा-क्षेत्र मे भी उसकी विलक्षण गति थी ।
रामायण के अनुसार रावण ने कभी सीता को पाने का प्रयत्न नहीं किया मानस में धनुष-यज्ञ में वह उपस्थित था पर उसने धनुष को हाथ नहीं लगाया ।दोनों ही महाकाव्यों में वह सीता के समीप अकेले नहीं अपनी रानियों के साथ जाता है ।यह उल्लेख भी है कि रावण ने सीता को इस प्रकार रखा जैसे पुत्र अपनी माता को रखता है ।इस उल्लेख से रावण की भावना ध्वनित है । वाल्मीकि रामायण के 'सुन्दरकाण्ड' में वर्णित है कि रात्रि के पिछले प्रहर में छहों अंगों सहित वेदों के विद्वानऔर श्रेष्ठ यज्ञों को करनेवालों के कंठों की वेदपाठ-ध्वनि गूँजने लगती थी ।इससे लंका के वातावरण का आभास मिलता है ।
मन्दोदरी का मनोहर रूप और कान्ति देख ,हनुमान उन्हें भ्रमवश सीता समझ बैठे थे ।सीता और मन्दोदरी की इस समानता के पीछे महाकवि का कोई गूढ़ संकेतार्थ निहित है ।हनुमान ने राम से कहा था ,'सीता जो स्वयं रावण को नहीं मार डालती हैं इससे जान पडता है कि दशमुख रावण महात्मा है ,तपोबल से संपन्न होने के कारण शाप के अयोग्य है ।' वाल्मीकि ने रावण को रूप-तेज से संपन्न बताते हुये उसके तेज से तिरस्कृत होकर हनुमान को पत्तों में छिपते हुये बताया है ।
'रक्ष' नामकरण के पीछे भी एक कथा है -समुद्रगत जल की सृष्टि करने के उपरांत ब्रह्मा ने सृष्टि के जीवों से उसका रक्षण करने को कहा ।कुछ जीवों ने कहा हम इसका रक्षण करेंगे ,वे रक्ष कहलाये और कुछ ने कहा हम इसका यक्षण(पूजन) करेंगे ,वे यक्ष कहलाये(वाल्मीकि रामायण ,उत्तर काण्ड ,सर्ग 4)।कालान्तर में रक्ष शब्द का अर्थह्रास होता गया और अकरणीय कृत्य उसके साथ जुड़ते गये ।अत्युक्ति और अतिरंजनापूर्ण वर्णनों ने उसे ऐसा रूप दे दिया क लोक मान्यता में वह दुष्टता और भयावहता का प्रतीक बन बैठा ।
मय दानव की हेमा अप्सरा से उत्पन्न पुत्री मन्दोदरी से रावण ने विवाह किया था ।मन्दोदरी की बड़ी बहिन का नाम माया था ।अमेरिका की 'मायन कल्चर 'का मय दानव और उसकी पुत्री माया से संबद्धता,तथा रक्षसंस्कृति और 'मय संस्कृति' के अदुभुत साम्य को देख कर दोनों की अभिन्नता बहुत संभव लगती है ।वहाँ की आश्चर्यजनक नगर-योजना.और विलक्षण भवन निर्माण कला इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
'मायन कल्चर' की नगर व्यवस्था ,प्रतीक-चिह्न ,वेश-भूषा आदि लंका के वर्णन से बहुत मेल खाते है ।मय दानव ने ही लंका पुरी का निर्माण किया था ।उनकी जीवन- पद्धति और मान्यताओं मे भी काफी-कुछ समानतायें है।रक्ष ही नहीं उसका स्वरूप भारतीय संस्कृति से भी साम्य रखता है । मीलों ऊँचे कगारों के बीच बहती कलऋता (कोलरेडो) नदी और ग्रैण्ड केनियन की दृष्यावली इस धरती की वास्तविकतायें हैं ।संभव है यही वह पाताल पुरी हो जहाँ दानवों को निवास प्राप्त हुआ था ।
तमिल भाषा की कंब रामायण मे उल्लेख हुआ है कि मन्दोदरी रावण की मृत्यु से पूर्व ही उसकी छाती पर रोती हुई मर गई,वह विधवा और राम की कृपाकाँक्षिणी नहीं हुई।वहाँ यह भी उल्लेख है कि रावण ने सीता को पर्णकुटी सहित पञ्चवटी से उठा लिया,उसका स्पर्श नहीं किया।रामेश्वर मे शिव स्थापना के समय विपन्न और पत्नी-वंचित राम का अनुष्ठान पूर्ण करवाने,रावण सीता को लाकर स्वयं उनका पुरोहित बना था। कार्य पूर्ण होने पर वह सीता को वापस ले गया। ये सारे प्रसंग सुविदित हैं।कदम्बिनी के मई2002 के अंक के एक लेख में रावण का राम के पुरोहित बनने का उल्लेख है ।रावण के पौरुष ,पाण्डित्य,परम शिव-भक्त विद्याओं ,कलाओं नीति,आदि का मर्मज्ञ ।
प्राकृत के राम-काव्य 'पउम चरिय ' और संस्कृत के 'पद्मचरितम्' मे शूर्पनखा का नाम चंद्रनखा है।इन काव्यों मे भी लोकापवाद के भय से राम सीता को त्याग देते हैं।सीता के पुत्रों को युवा होने के पश्चात् परित्याग की घटना सुन कर क्रोध आता है,वे राम पर आक्रमण करते हैं।राम ने अपने जीवन काल मे ही चारों भाइयों के आठों पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्यों का स्वामी बना दिया था।लक्ष्मण ने आज्ञा-भंग का अपराध स्वयं स्वीकार कर जल-समाधि ले ली थी।सीता का जो रूप बाद मे अंकित किया गया,वह इन प्रसंगों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। किसी भी रचनाकार ने उन्हे रावण की पुत्री स्वीकार नहीं किया।कारण शायद यह हो कि इससे राम के चरित्र को आघात पहुँचता।नायक की चरित्र-रक्षा के लिये घटनाओं मे फेर-बदल करने से ले कर शापों ,विस्मरणों ,तथा अन्य असंभाव्य कल्पनाओं का क्रम चल निकला।उसका इतना महिमा-मंडन कि वह अलौकिक लगने लगे और और प्रति नायक का घोर निकृष्ट अंकन।अतिरंजना ,चमत्कारोंऔर अति आदर्शों के समावेश ने मानव को देवता बना डाला और भक्ति के आवेश ने कुछ सोचने-विचारने की आवश्यता समाप्त कर दी कि जो है सो बहुत अच्छा।वेदों ने 'चरैवेति चरैवेति' 'कह कर मानव-बुद्धि के सदा सक्रिय रहने की बात कही हैं पर यहाँ जो मान लिया उसे ही अंतिम सत्य कह कर आगे विचार करने से ही इंकार कर दिया जाता है । कान बंद कर वहाँ से चले आओ ,आलोचना (निन्दा?) सुनने से ही पाप लगेगा ) आगे विचार करना तो दूर की बात है।भारतीय चिन्ता-धारा अपने खुलेपन के लिये जानी जाती है इसीलिये वह पूर्वाग्रहों से ग्रस्त न रह कर जो विवेक सम्मत है उसे आत्मसात् करती चलती है ।फिर यह दुराग्रह क्यों ?लोक में यही सन्देश जाता है कि राम ने रावण द्वारा अपहृत सीता को त्याग दिया ।पत्नी की दैहिक शुद्धता की बात उठने पर यही उदाहरण सामने रखा जाता है ,जब राम जैसे सामर्थ्यवान तक संदेह के कारण पत्नी का परित्याग कर देते हैं तो हम साधारणजनों की क्या बिसात ।
कुछ लोग मानने को तैयार ही नहीं कि राम ने सीता का परित्याग किया । ऐसे उल्लेखों को क्षेपक बताया जा रहा है ।लेकिन संस्कृत और हिन्दीतर भाषा की रामायणों में राम के पुत्रों के जन्म की जैसी महत्वपूर्ण घटना की चर्चा तक कहीं नहीं मिलती ।लंबे समय के बाद रघुकुल में संतान उत्पन्न हुई ,राम और सीता जीवन के कितने कठोर अनुभवों से गुज़रने के बाद माता पिता बने यह कोई छोटा अवसर नहीं था ।राजभवन में राजा के पुत्र उत्पन्न हो ,आनन्द बधाई ,मंगल-वाद्य न बजें ,कौशल्यादि की प्रसन्नता ,रीति -नीति ,संस्कार ,कहीं कुछ नहीं ।प्रजा में कहीं कोई संवाद -सूचना तक नहीं ।
अहल्या को पाँव से छू कर उद्धार करने की बात वाल्मीकि रामायण में नहीं है ।माता के वयवाली ,तपस्विनी ऋषि-पत्नी को पाँव से स्पर्श करना मर्यादा के अंतर्गत नहीं आता ,राम स्वयं उनके चरण-स्पर्श कर उन्हें उस मानसिक जड़ता से उबारते और उनकी निर्दोषिता प्रमाणित करते तो उनका चरित्र नई ऊँचाइयों को छू लेता ।
जो इस संसार में मानव-योनि में जन्मा है ,सबसे पहले वह मानव है और मानवता उसका धर्म।जीवन चेतना की अविरल धारा है उसका आकलन भी सारे पूर्वाग्रह छोड़ उसकी समग्रता में करना संतुलत दृष्टि का परिचायक है ।जन्म से ही उस पर पुण्यत्मा (ईश्वर होने का )या पापी और नीच होने का ठप्पा लगा कर ,उसके हर कार्य को उसी चश्मे से देखना और येन-केन प्रकारेण प्रत्येक कार्य को महिमामण्डित या निन्दित करने से अच्छा यह है कि सहज मानवीय दृष्टि से उसके पूरे जीवन के कार्यों का समग्र लेखा-जोखा करने के बाद ही ,उसका मूल्यांकन हो ।ईश्वरत्व के सोपान पर अधिष्ठित करना अनुचित नहीं लेकिन मानवीयता की शर्त पूरी करने के बाद ।मानवी गुणों का पूर्णोत्कर्ष न कर ईश्वरत्व की ओर छलाँग लगा देने से आदर्श व्यावहारिक नहीं हो सकेंगे ।
श्री इलयावुलूरि ने एक बात बहुत पते की कही है -यह विडंबना की बात है क सारा संसार सीता और राम को आदर्श दंपति मान कर उनकी पूजा करता है किन्तु उनके जैसा दाम्पत्य किसी को भी स्वीकार नहीं होगा (वाल्मीकि.संदेश .अंतिम अध्याय)।इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है कि राम जैसा पिता पाने को भी कोई पुत्र शायद ही तैयार हो ,और कौशल्या की तरह लाचार ,वधू और पौत्रविहीना होकर अकेले वृद्धावस्था बिताने की कामना भी कोई माता नहीं करेगी ।अति मर्यादाशील और आज्ञाकारी लक्ष्मण, अपने पूज्य भाई के आदेशानुसार किसी स्त्री के नाक-कान काट कर भले चुप रहें पर पूज्या भाभी को ,गर्भावस्था में ,बिना किसी तैयारी के ,जंगल में अकेला छोड़ कर कैसा अनुभव करते होंगे यह तो वे ही जाने ।

स्वप्न-सत्य

पता नहीं सो रही थी कि जाग रही थी लगा हल्की सी रोशनी चारों ओर छाई है । वातावरण कुछ बदला-बदला सा ,जैसे कोई नया दृष्य उदित हो रहा हो ।अचानक लगा कोई सामने आ खड़ा हुआ है ।चौंक गई मैं ।आँखो के आगे पीलावस्त्र लहरा गया ,साँवली-सी , पहचानी सी आकृति !शोभन पुरुष माथे पर बिखरे-बिखरे बाल नेत्रों में उदासी ।लगा मुझसे कुछ कहना चाहता है।
कौन ?
मैं हूँ ।पहचानती नहीं हो क्या ?
कभी मिली नहीं ।पहचानूंगी कैसे ?
जानती हो ,मेरे बारे में इतना ! सबको जाने -क्या क्या जताती रहती हो । कितनी गलत बातें जोड़ दी गई हैं मेरे साथ ।तुम भी उन्हीं को हवा दे रही हो ।
लेकिन किसके बारे में ?नाम तो बताओ ।
राम हूँ मैं ।
आश्चर्य चकित मैं ।युग बीत गये तब तुम थे धरती पर ,आज की बात थोड़े ही कि जब चाहो आ कर सामने खड़े हो जाओ ।
हाँ था।पर अब भी हूँ ।अस्तित्व समाप्त कहाँ होता है।बदल जाता है ,इधर से उधर हो जाता है ।
इधर से उधर ?
उसके बाद भी धरती पर आया था ,आवश्यकतानुसार.आता रहता हूँ ।
हाँ ,आये थे तुम ।कृष्ण रूप में ।बहुत प्रिय है वह रूप मुझे ,जिसने जीवन को जीने का सुन्दर सूत्र दे दिया ।
लेकिन अब आज इस ..जिस रूप में बात करनी है वही लेकर आया हूँ ।
मुझे विस्मय हो रहा था ,कैसी पहेली-सी सामने खुल रही है ।
इन्हीं का दूसरा रूप था वह जिसने कर्मयोग को जीवन में जिया था।
जानती हो न, कि इस लोक से दूसरे लोकों में आना-जाना चलता रहता है। तुम भी न सदा यहाँ थीं , न यहाँ अधिक रह पाओगी ।तुम्हारे जाने से पहले कुछ स्पष्टीकरण करना हैं मुझे ।उन आरोपों से मुक्त कर दो मुझे, सुन कर मन भारी हो जाता है , जो मुझ पर लगाये गये हैं। और तुमने भी दोषारोपण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।तुमने काफ़ी खोज-बीन की, और सब के लिये सहानुभूति दिखाई , तुमसे ऐसी आशा नहीं थी ।'
मुझसे इन्हें क्या आशा थी ,ये मुझे जानते ही कहाँ थे ।
जानता हूँ तुम्हें ।
ये लोग क्या मन की बात पढ लेते हैं !
पहले सोचता रहा जाने दो -जो समझता है समझने दो क्या फ़र्क पड़ता है फिर लगा फ़र्क पड़ता है । बात हवा में नहीं उड़ा पाया ।और मेरा तो इतना सुपरिचित व्यक्तित्व है कि लोग भ्रमित होने लगते ऊपर से तुमने जाने क्या-क्या लिख डाला ।
मैंने जो जाना वही कहा ।मुझे जो गलत लगा , तुम्हारे कुछ कामों का सामान्य जन पर जो प्रभाव पड़ा मुझे कल्याणकारी नहीं लगा ।जन साधारण तुम्हारे उदाहरण दे-दे कर जो करते हैं वह प्रायः ही न्यायसंगत नहीं होता । मन में जो चुभता रहा उसे व्यक्त कर दिया ।
तुमने जाना ! तुम जानती ही कितना हो ?अलग-अलग लोगों ने अलग अलग बातें लिखीं ,सब अपने समय अपने-अपने आदर्शों के अनुसार मुझे ढालते रहे ।मनमाने ढंग से प्रस्तुत करते रहे ।
मैंने मानव जन्म लिया था भगवान बन कर नहीं आया था । परिवार का सबसे बड़ा पुत्र था । कोशिश की थी कर्तव्यपूर्ण करने की ,निस्वार्थ भाव से सबको सुख पहुँचाने की। पिता के हृदय में समान अवस्था के चार पुत्रों में मेरे प्रति अति प्रेम ,पक्षपात की सीमा तक ।प्रेम तो माँ को भी बहुत था ,उनका तो इकलौता पुत्र था मैं,पर वे धैर्यशीला और विचार शीला थीं ।मैं उन्हें कभी सुख न दे सका । पिता कैकेयी माँ को विवाह के समय वचन दे चुके थे। फिर भी भरत की अनुपस्थिति का लाभ लेना चाहा वही भारी पड़ गया ।। पिता ने जो किया उस का निराकरण करना चाहता था। जो उचित हो वही करने का प्रयत्न किया था पर एक निश्चित मर्यादा में रह कर मेरा सोच सीमित रह गया । बाद में मेरे ऊपर इतने आरोपण कर दिये गये कि स्वयं को पहचान नहीं पाता ।वाल्मीकि ने जो लिखा उसमें फिर भी वास्तविकता है ,लेकिन आगे इतनी अतिशयोक्ति , इतनी अत्युक्ति और कल्पनातीत बातें जोड़ते गये कि मैं इन्सान ही नहीं रहा ।अंधभक्ति और अतिशय भावुकता ने लोगों का विवेक हर लिया ।जो उन्हें ठीक लगता रहा वह मेरे ऊपर डालकर सिद्ध करते रहे और अपने आप में डूबे मूढ भक्त बिना सोचे-विचारे उसे सही मानते रहे ।।स्वयं को जो भाया उसका उदाहरण मुझे बना कर खड़ा कर दिया ।
तो तुमने भी बदल लिया अपने को ।तो कृष्ण बन कर ठीक उलटा किया जो राम बन कर किया था । सारे आदर्श दूसरी बार में बदल डाले ।
समय -समय की बात है । काल को कौन लाँघ पाया है ? द्वापर में जो हुआ वह त्रेता में हीं संभव नहीं था । जीवन का प्रवाह इतना आगे बढ चुका था ।सोच ,परिस्थितयाँ ,समाज और व्यक्ति की ग्रहणशीलता ,सारे मान-मूल्य भिन्न थे ।फिर राम के रूप में मुझे जो अनुभव हुये जो सीखा था उससे भी अंतर पडा।पर देखो न इस रूप को भी लोगों ने विकृत कर डाला । अपनी वासना की सड़ाँध भरी गलियों में कैसे-कैसे रूप भरवाते रहे कृष्ण की भक्ति के नाम पर !
अच्छा ! तो तुम भी सीखते हो ।
चेतना के उत्तरोत्तर विकास की शृखला है जीवन । कोई उससे परे नहीं है । वही चेतना सब जीवों में है भिन्न-भिन्न स्तरों पर ।
नारी और नर की चेतना के स्तरों में अंतर है ?
दोनों एक ही वस्तु के दो पहलू हैं ।
क्या सचमुच ?
मेरे मन में उठा चन्द्रनखा के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया गया ?
मैं समझ गया तुम सूपनखा हाँ ,चन्द्र नखा की बात सोच रही हो ?वह आई थी प्रणय निवेदन करने मैं। जिस परंपरा में पला बढ़ा वहाँ मर्यादित रहना पहला पाठ था ।अपने पर सदा नियंत्रण।पुरुष का प्रणय-याचना करना अकल्पनीय था फिर एक युवा नारी का स्वयं आगे बढ़ कर प्रेम प्रस्ताव रखना वह भी जब छोटा भाई सामने खड़ा हो मै तो एकदम चौंक गया । बहुत अशोभनीय लगा था।विचित्र स्थिति थी एक दम अवाक् ! लक्षमण भी बिमूढ़ क्या कहे -क्या करे ।कसी तरह टालना चाहा था उसे ।
मेरे साथ सीता थी ।मैंने उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया ।लक्ष्मण उस निर्वासन में भोगी नहीं बनना चाहते थे ।उन्होंने लौटा दिया उसे ।वह फिर मेरे पास आई कि मैं क्या दो पत्नियाँ नहीं रख सकता ।पर मैंने जनकपुरी में एक पत्नीव्रत लिया था ।मैंने उसे स्वीकार नहीं किया ।उसे लगा उसका अपमान किया गया है ।वह क्रोधित होकर धमकाने लगी ।।मैंने धीरे से कहा था -लो इसकी तो नाक ही कट गई । मेरा मतलब था अपने को इतना निर्लज्ज ,हीन और हँसी का पात्र बना डाला ।
लक्षमण बोले -सचमुच अपनी नाक कटा ली इसने ।
बात कहाँ से कहाँ पहुँची और लोगों ने क्या-क्या संभावनायें कर डालीं ।अपनी विचारहीनता और अंधभक्ति में लोग विवेक को ताक पर रख दें तो मैं क्या करूं?देखो न,दशानन के नाम के आधार पर उसके दस सिर मान लिये गये !
और अहल्या? उसका क्या अपराध था जो पत्थर बनने का शाप दिया गया और अपने पाँव से छू कर तुमने तारा ।
यह नई बात जोड़ दी गई मेरे साथ ।
जब गौतम ऋषि ने बताया कि वे अभी लौटे हैं और अहल्या के पास जो था वह इन्द्र था तो वह ,सन्न रह गई ऐसी हतप्रभ ,जैसे जड़ हो गई हो ।किसी की बात सुन नहीं रही थी ,कुछ समझ नहीं रही थी । पथराई सी होकर रह गई ।
छली गई नारी की वेदना कितनी विषम होती है अपने आप से वितृष्णा ,विवश क्रोध और आहत मन। पर लोग तो नारी को ही कलंक देते हैं ।
सारा दोषऔर प्रायश्चित उसी पर थोप दिया जाता है -मेरे स्वर में शिकायत थी ।
हाँ, जो मुझे बताया गया वह जान कर मैने कहा था वे चरणस्पर्श के योग्य हैं ।लोगों ने जो समझ लिया सत्य वह नहीं था । वे निर्दोष थीं पर उस घटना के बाद वे सामान्य जीवन नहीं जी सकीं थीं। उनकी वृद्धावस्था आ गई थी मेरी माता से भी अधिक वय की तपस्विनी थीं वे - उतनी ही पावन और पूज्य ! मैंने उनकी वन्दना की थी । उन माता सम ऋषपत्नी को पाँव से नहीं छुआ, मैंने जब उनके चरण स्पर्श किये तो वे अभिभूत हो गईं ।फिर सारे संसार ने उन्हें समझा और सम्मान दिया । वे इतनी पावन समझी गईं कि उनकी गणना पंच-कन्याओं में होती है ।गौतम ऋषि ने उन्हें पूरी प्रतिष्ठा दी। रानी तारा और मंदोदरी को भी पंचकन्याओं में माना जाये मैने इसका प्रयास किया था ।दोषी स्त्रियोँ नहीं वे छली पुरुष थे जो अपनी वासना में पशु बन गये थे ।
मेरे मन का बोझ कुछ हल्का हुआ , सोचा करती थी जो प्रेम का मान रखने को शवरी के जूठे बेरों में आनन्द पाता है वह नारी और वह भी प्रिया पत्नी , के प्रति इतना संवेदनाहीन कैसे हो सकता है ?
जो कहा गया लोगों ने वही सच मान लिया । जिसने जो लिख दिया उसे लेकर आरोप-आक्षेप लगा दिये मुझ पर ! लोग तो जीवनकाल में ही क्या से क्या बना डालते हैं ,मरने के बाद तो खुली छूट।कौन देखनेवाला और कौन रोकने-टोकनेवाला ।एक और आरोप तुमने छोड़ दिया ,आगे के लिये ..
अरे, इन्हें मालूम है कि इन्द्रजित की पत्नी - मैं पूरा सोच भी नहीं पाई थी ,उनकी बात सुनने लगी ।
सुलोचना जब अपने पति की देह माँगने आई मैंने उन वनचारियों के बीच उससे सतीत्व को प्रमाणित करने की शर्त लगा दी - इतना गिरा हुआ हूँ मैं ?
मेरा मन द्विविधा में था कि कुलवंती नारी ,वह भी सद्यविधवा राजवधू ,का ऐसा तमाशा कोई बना सकता है !
नारी के मृत पति के साथ चिता में जल मरने का महिमामंडन अपनी सुख-सुधा के लिये, स्वार्थी लोगों ने क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाये !मैंने तो सुग्रीव पत्नी तारा को सम्मान दिया ,जिसे बालि ने छीन लिया था ।
उनकी बात ठीक लग रही थी ।मेरे मन को कुछ समाधान मिल रहा था । अब तक सोचती थी कि जो इतना आदर्शवादी है वह नारी के प्रति इतना संवेदनाहीन कैसे हो सका।
तुम क्या समझती हो हम पूर्ण हैं । हर जन्म कुछ आगे बढाता है ।राम बन कर पाया नारी का अपना अस्तित्व है ।उससे सिर्फ़ त्याग और कर्तव्य की ही अपेक्षा नहीं जीवन के रस और आनन्द का भाग भी मिलना चाहिये ।सह -धर्मिणी है वह ।उसके अपने अधिकार भी हैं ।उसकी कामनाओं और को भी स्वीकृति मिलनी चाहये ।अपनी माताओं और पत्नी के जीवन देख चुका था ।युग का अतिक्रमण तो नहीं किया जा सकता ।अतिशय मर्यादा और आदर्श बनने की चाह में कुछ गलतियाँ भी हुई थीं । मानव का सहज स्वभाव ! पूर्ण कौन है यहाँ? पर भूलों को सुधारना भी था । व्यवहार कोरे आदर्शों पर आधारित हो और वस्तुस्थिति को आँक कर यथार्थ के दायरे मे ही रहे दोनो में बहुत अंतर आ जाता है ।वही अंतर है दोनो में ।
लेकन कुछ मूल्य कभी नहीं बदलते ।जैसे वयोवृद्धजनों को सम्मान देना ।
तो मैंने क्या किया ।किसका अपमान किया ?
रावण भी तुम्हारे पिता की अवस्था का था । फिर महापंडित और स्वतंत्र राजा ,जिसका तुमसे कोई बैर नहीं था ।बल्कि सीता पिता होने के नाते पूज्य था ।
हाँ ,मै मानता हूँ ।पर मैंने कब उसे नीचा दिखाया ।
क्यों उससे कहलाया था नीच, पापी ,मेरी शरण में आ जा ।
वह महापंडित,नीतिज्ञ,क्षेष्ठ व्राह्मण थे पूज्य । लोगों ने उन्हें राक्षस बना डाला ।संग्राम विभीषण का षड्यंत्र था ।सब आगे लिखनेवालों की .मनमानी है ।वाल्मीकि ने रावण के लिये ऐसा कुछ नहीं लिखा था पढ़ा होगा तुमने तो । न मैं रावण का कुलनाश करना चाहता था ।मैंने तो अपने यज्ञ मे उन्हे पुरोहित बनाया था ।उनका पांडित्य और व्यक्तित्व दोनों के लिये मेरे मन में सम्मान था ।
फिर ?
विभीषण की कारस्थानी ।उसने हनुमान और अन्य नायकों से मिलकर षड्यंत्र रचा था ।स्वयं राजा बनने के लिये उसने सारे कुचक्र चलाये ।
पर वाल्मीकि ने भी तो बहुत सी बातें इस प्रकार की कहीं ।
विजयी को साथ चमत्कार जुड़ते चले जाते हैं और हारे हुये पर सब दोषों का आरोपण । वही विषय वस्तु का स्थान लेते गये ।तथ्यों से वे भी परिचित नहीं थे, नारद से सलाह ली ।नारद को संसार का ,लोक-जीवन का क्या अनुभव ?एक आदर्श संसार के सामने रखना चाहते थे अपनी कल्पना कथा ऋषि को सुना डाली ।ऋषि के मन को जो रुचा रचना में ढाल दिया । सत्यभास देने के लिये एक भौतिक आधार-कथा की आवश्यकता थी वह अयोध्या के घटना-क्रम से पूरी कर दी।
अब तक का जाना-बूझा मस्तिष्क में कौंध गया ।कवि अपने आदर्श कल्पित करते हैं और आरोपित कर देते हैं चरित्र-नायक पर , तथ्यों को जानने का अवकाश कहाँ है! एक से दूसरे मुख में जाते-जाते किसी भी बात मे परिवर्तन आता जाता है ।सब अपनी अपनी कल्पना से कुछ न कुछ जोड़ते चलते हैं ।एक सीधी सहज बात को जटिल और रहस्यपूर्ण बना देते हैं ।जो अच्छा लगे और जो बुरा लगे दोनों के साथ ऐसी बातें जोड़ते चलते हैं कि दूसरे को प्रभावित कर लें ।रचनात्मक आनन्द मिलता है लोगों को इसमें ।
अनन्य भक्त बनने के लिये आराध्य के गुणों को दर्शाते-दर्शाते दोषों को भी विशेषताओं और गुणों के रूप में प्रस्तुत कर देता है ता है या सर्वसमर्थ ईश्वर मान उन्हें जायज़ ठहरा देता है अथवा उनके उल्लेख से ही कतरा जाता है ।मनुष्य को मनुष्य बनाये रखे तो उसे लगता है उनका गौरव घट जायेगा । यह हठधर्मी उसका स्वभाव बन जाती है ।और महिमामंडन में सारी सीमायें लाँघ जाते है सार्जनिक दृष्टि से जो कुछ अनुचित है उसका महिमामंडन आगे जा कर ,उपहास और कौतुक का कारण बन जाता है ।पक्का भक्त वह है जो आराध्य की कमियों को सुनना भी न चाहे ,समझना-सोचना तो बाद की बात है ।यहाँ वह गाँधी जी के तीन बंदरों का अनुकरण करता है ,आपने इष्ट की त्रुटि या आलोचना ,न देखो ,न सुनो ,न बोलो ।लेकिन ज़माना देखने सुनने ,साबित करने का है ,अंधविश्वास का नहीं ,यहीं हम अपने धर्म के आलोचकों से मात खा जाते हैं और रक्षात्मक मुद्रा में आ जाते हैं ।
वे चुप देख रहे थे जैसे मेरा मन पढ़े जा रहे हों,बोले -

हाँ,जैसे कवियों को किसी रचना के साथ अपनी पंक्तियाँ जोड़ देने में। जैसे दूध में पानी मिला दे कोई ।
फिर लोक में वही चल पड़ता है । वही मान्यतायें आगे बढ़ती हैं नई-नई संभावनायें की जाती हैं और मूल चरित्र छूटता जाता है पीछे -बेचारा !।जिसके मन में जो आये उढ़ा देता है उसे ।
लोगों को गलत संदेश जाय इससे उन्हें कोई मतलब नहीं ! बात कैसी भी हो तुमसे जोड़ कर ऐसा महिमा-मंडन करते हैं कि बाकी सब अँधेरे में पड़ा रह जाता है । अँध-भक्त आँखें बंद कर लेता है ।तुम जो करो वाह -वाह! तुम तो सबसे ऊपर हो समाज ,मर्यादा ,औचित्य सबसे परे ।भगवान कह कर संदेह या प्रश्न की संभावयें समाप्त कर दी जाती है ।मानव बुद्धि बेकार हो जाती है ।कोई कुछ पूछ दे तो पापी है ,। जो उनने सोच लिया है उससे अलग बे कुछ नहीं सुनेंगे ।भक्ति की फितरत के खिलाफ़ है यह ।
वह सब उनके दिमाग़ का फितूर है ।
जो कुछ अव्यावहारिक है, समाज से निरपेक्ष ,उचित-अनुचित के विचार से परे अगर उनके भगवान के नाम पर होता हैं तो...!
तो वह लोगों के लये करणीय कैसे हो सकता है ?वह आदर्श कहाँ रहा ?
नारी के विशेष रूप से पत्नी के प्रति संवेदनाहीन हो रहना संस्कृति के अनुसार या मर्यादा के अंतर्गत है सीता की अग्नि परीक्षा ,निर्वासन ?
कुछ देर चुप रहे राम- कुछ सोचते से
पिर धीरे धीरे बोले - बिल्कुल गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया है।मैंने न सीता की अग्नि परीक्षा ली थी न निर्वासन ।हाँ ,लंका विजय के बाद उसका शृंगार देख कर पालकी पर लाये जाते देख कर मन कुछ खिन्न हुआ था ।यह भी लगा था कि सीता ने लक्ष्मण की बात सुन ली होती तो यह सब न हुआ होता ।उस समय कह बैठा ,'सीता लंका में पितृगृह के वैभव में रही हो ,मुझ वनवासी के साथ रहने में कैसा लगेगा ?''
पर वह क्षोभ क्षणिक था ।रानी मंदोदरी की अंतिम इच्छा के अनुसार विभीषण ने ही प्रबंध किया था कि जानकी पुत्री के समान बिदा पाये ।

कैसा समय था वह !अपनी सेना के आगे श्रमित ,धरती पर खड़ा मैं ,विमान से आती रत्नाभूषणों और राजसी वस्त्रों से भूषित पत्नी को देख सहज नहीं रह सका।वह कैसे रही थी ,पितृकुल का नाश देख कर उस पर क्या बीती होगी यह भी भूल गया । ऐश्वर्यशाली पिता के घर से मुझ वनवासी के साथ आनेवाली पत्नी को देख मन अपनी विवशता पर ग्लानि से भर गया था ।
और निर्वासन ?कैसी-कैसी विचित्र स्थितियाँ आती हैं मानव के सामने !उसने उस समय जो व्यवहार या आचरण जिस मनस्थिति में किया उसे समझाना संभव नहीं ।बाद में लोग उसे कैसा विरूप कर सामने लाते हैं कैसे-कैसे मतलब निकालते हैं । लोगों पर किसका बस है ?
हाँ ,सीता वन में क्यों रही ,यह बताऊँगा । ।सीता रावण की पुत्री थी मैं जानता था ।मैने अपने परिवार में किसी को नहीं बताया था पर कैकेयी माँ को पता लग गया ।परिवार में ही सीता को लेकर आशंकायें वातावरण में तैरने लगीं थीं ।
इन्द्राणी शची भी तो पुलोमा दैत्य की पुत्री थी और बहुत उदाहरण हैं।
अचानक एक नई बात झटका दे जाती है ।अपने वंश की शुद्धता और संस्कारशीलता पर बड़ा गर्व था हमारे परिवार को ।
परंपरावादी परिवार में प्रखर और प्रबुद्ध नारी कुछ अलग-थलग पड़ती जाती है,सबकी सहानुभूति अर्जित करना उसके लिये संभव नहीं हो पाता ।

सीता अदीनभाषणी थी -स्पष्ट कहने की आदी ।किसी दबाव में उससे कुछ कराया नहीं जा था ।जो ठीक लगता वही करने का स्वभाव ।मेरी माँ तो साक्षात् प्रेम और त्याग की देवी थीं पति के प्रति एकदम समर्पित ।उनके अधिकार कैकेयी ने ले लिये फिर भी विरोध नहीं किया ।कैकेयी के प्रति पिता अधिक कृपालु थे तो भी परिवार की सुख-शान्ति और पति के लिये समर्पित ,बिना कोई तर्क किये जो उनसे अपेक्षित है करती रहीं ।सुमित्रा माँ ने भी कभी मुँह खोल कर कोई बात नही कही । इसे नारी की मर्यादा या उसका धर्म कह लोक-मन में आदर्शनारी की यही कल्पना थी ।हाँ, कैकेयी माँ थोड़ी प्रखर और तर्कशीला रहीं थी ।लेकिन परस्थितयों ने उन्हें दबा दिया।सिंहासन पर भरत का अधिकार था -विवाह की यही शर्त थी ।पर मेरी माँ के शान्त स्वभाव और किसी का विरोध न करने के स्वभाव ने हम भाइयों के मन में कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं उत्पन्न होने दी थी ।घर का प्रभाव तो था ही ।बड़ों के सामने बोलने का साहस नहीं होता जो वे कह दें ठीक ।विनयपूर्वक आज्ञा मानना छोटों का कर्तव्य था ।अपने वंश की इस मर्यादाशील परंपरा हमें अभिमान था ।
लक्ष्मण का स्वभाव थोड़ा उग्र था ,उसमे भी विचार शीलता थी सुमित्रा माँ ने इन्हें भी नियंत्रण मे रखा।
सीता का कहना था मर्यादाओं की दुहाई देकर अन्तर में उठनेवाली आवाज़ को चुप कैसे कराया जा सकता है ।

उसका विचार था अगर मेरे लिये पति का साथ देना धर्म है तो उर्मिला के लिये क्यों नहीं ?छोटी बहन मर्यादा के नाम पर वंचित कर दी गई क्योंकि वह अपनी बात नहीं कह सकी ।सीता को लगता था इतना भेद-भाव क्यों ? राम ने कहा मुझे लगा उर्मिला की 14 बरस की वेदना सीता के हृदय में बसी हुई है ।उसे लगता था राम लक्ष्मण के साथ दोनों बहने आई होतीं तो जीवन कितना सुन्दर हो जाता ।एक को वंचित कर दूसरा केसे सुख पा सकता है?
जहाँ हम लोग चुप हो जाते थे सीता को लगता था अपनी बात सामने रखना या किसी के मन में कोई तर्क या प्रश्न उठता है तो उसे व्यक्त करना अनुचित नहीं है ।
आगे प्रश्न था संतान के भविष्य का ।नारी अपनी संतान की कीमत पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं होती ।
कैसा परिवार जहां कोई अपनी बात भी नहीं कह सकता । यहाँ इतनी सीमायें हैं कि मेरे बालक कुंठित हो जायेंगे ।शरीर और मन के स्वस्थ विकास के लिये खुलापन और मुक्त परिवेश -पग पर वर्जनायें कुंठित कर डालेंगी ।बड़े भाई के सामने बराबर का भाई भी मुँह नहीं खोल सकता तो वे तो सबसे छोटे होंगे और इतने लोगों के सामने मर्यादित रहते रहते उनका व्यक्तित्व दबा रह जायेगा ।
मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि पिता और परिवार के आश्रय के बिना संतान का समुचित पोषण और विकास संभव है ।।उनका लालन -पालन यहीं होना है यह मेरा निर्णय था ।
कहीं और क्यों नहीं ,क्योंकि प्रश्न उनके समुचित वकास का है - सीता का प्रश्न था ।

न कुछ शिक्षा न संस्कार ,जीवन के हर क्षेत्र में कोरे रह जायेंगे ।
क्यों? माँ इतनी असमर्थ होती है ?

और जैसे कोई चुनौती स्वीकार ली सीता ने ।
मेरा मन खिन्न था ,मैं नहीं जाऊँगा इस अवस्था में तुम्हें वन में पहुँचाने ।मुझसे नहीं देखा जायेगा ।

लक्ष्मण ने कहा था भाभी भइया ने यह ठीक नहीं कर रहे।
दोष तुम्हारे भइया का नहीं ,जो हो रहा है उसमें कारण मैं हूँ ।
और सीता ने स्वयं को सिद्ध कर दिया ।उसने मेरे नाम का सहारा तक नहीं लिया ।किसी को जानने नहीं दिया कि किसके पुत्र हैं ,लोग जान पाते तो ....।
और हाँ भाइयों को राज भले ही न मिला हो अपने जीवनकाल में ही उनकी संतानों को विभिन्न भू-भागों का राज दे कर मैंने अपना दायित्व पूरा किया ।

अब मुझे कुछ नहीं कहना था ।
अनायास ही पूछ बैठी -
तुम तो वहाँ रहते हो ,एक काम कर दोगे ?
क्या ?
मुझे मालूम है समय कम रह गया है। कुछ कर जाना चाहती हूँ बहु-कुछ अधूरा पड़ा है। साधन ,परिस्थितियाँ अनुकूल कभी नहीं रहीं मेरे लिये ।बस मन मे इच्छा रही। हो सकता है प्रयत्नों में भी कमी रह गई हो ! बहुत बहुत कमियाँ रही होंगी - मेरी तरफ से भी पर उन सीमाओं ,से उबर नहीं पाई। जो करना चाहा था नहीं हो पाया ।तुम तो उधर हो अधिक समर्थ हो जितना हो सके समिटवा देना कुछ तो पूरा करवा देना ।
लेकिन काम क्या ?
मेरे मन में है ।तुम्हारा मन पढ़ लेगा ।उधर के लोग तो टेलिपेथी जानते हैं ।जब चाहोगे खुद समझ जाओगे ।
वे कुछ बोले नहीं।
राघव , एक बात और बताये जाओ ।
क्या ?
मैं सचमुच कौन हूँ और कब तक यहाँ हूँ ?
यह सब बताने की बातें नहीं हैं ।समय आयेगा तो अपने आप पता लग जायेगा ।
तुम आज मेरे पास आये हो ।ऐसों का आना कभी निष्फल नहीं जाता ।
वह मन्द मुस्कराये ।
क्या चाहिये ?
कुछ अधिक नहीं मेरे कल्याण हेतु जन्म-जन्मान्तर तक अपनी प्रसन्नता का प्रसाद प्रदान करते रहना और अंत काल में कृष्ण-रूप में सम्मुख रह मेरी चित्तवृत्तियाँ अपने में लीन कर लेना ।
वाह !
तुम्हीं तो हो ,यह नहीं वह सही ।
एक क्षण मुझ देखा , मंद मुस्कराये और ओझल हो गये।
अँधेरा कुछ गहरा हो गया था ।मैं अकेली रह गई । सिर चक्कर खा रहा था ।
यह सब क्या घट गया मैं नहीं समझ पाई - सच या सपना !
निर्भ्रान्त मौन चतुर्दिक् ,शान्त सुस्थिर मन - कैसी विलक्षण अनुभूति !
*