बुधवार, 14 दिसंबर 2011

रट के आई हैं !



मौसम बदल रहा था ।ऐसे दिनों में प्रायः ही ज़ुकाम की शिकायत हो जाती है ।
जब क्लास   में खड़े होकर बोलना पड़ता है तो गले में एकदम सुरसुरी और अटकाव के मारे बोल निकलना मुश्किल .
'कुछ लेते क्यों नहीं' कहने की विज्ञापनी परंपरा है सो
एक मित्र ने कहा ने कहा ,' बढ़ा क्यों रही हो ?ऐसे ये ठीक होनेवाला नहीं ।अपनी तो रोज़ गले  की कवायद होती है ।  दवा ले लो ।'
 मैंने कहा ,'एलोपैथी की दवा से एकदम खुश्क हो जाता है , लगता है सब अन्दर भर गया ।'
'एलोपैथी क्यों ?इधर कॉलेज के पीछे इधर वाली गली में डॉ. रमेश बैठते हैं ।होमियोपैथी के हैंं ।
भई ,हमें तो उनकी दवा खूब सूट करती है।'

बात तुक की लगी. अगला  विषय काव्य-शास्त्र ,एकदम ठोस और भारी ! गला बीच में अड़ जाए, तो पढ़नेवालों का ध्यान  इधर- उधर भागेगा,  कानाफूसी शुरू हो जाएगी  , मुझे और ज़ोर से बोलना पड़ेगा .
और सबसे बुरी बात पिछले सारे रिफ़रेन्सेज़ उनके दिमाग़ से गोल - आगे पाठ ,पीठे सपाट !
अभी-अभी पत्रकारिता  की क्लास ले कर आई , गले -गले तक चोक हो गई.
इन्टरवल के बाद एक पीरियड फ़्री था .
चलो, ले ही ली जाय दवा .
डॉक्टर के पास कई मरीज़ बैठे थे ,कुछ  तो  अपनी छात्रायें ही ,पास पड़ता है न !
एक महिला अपनी 4-5 साल की बच्ची को लाईं थीं -नाम मेघना ,पेट साफ़ न होने की शिकायत.
बोलीं,' थोड़ी-थोड़ी सी होती है और सख़्त भी .'
 चट् से डाक्टर  बोले ,'आपने नाम भी तो  ऐसा ही रखा है .' लक्ष्य  वही  प्यारी-सी बच्ची   मेघना नामवाली -
(समझ गये होंगे आप .जैसे गाय का गोबर ,घोड़े की लीद ,  बकरी की मेंगनी)!
महिला  बेचारी चुप !पर्चा लेकर चुपचाप उठ गईं .
लड़कियाँ लिहाज़ के मारे पीछे हो गईं ,मुझे आगे कर दिया .
डॉ. के पास बैठ कर फटाफट् हाल कह सुनाया ।उन्होंने ध्यान से हमारी ओर देखा बोले ,' आप क्या रट के आई हैं ?धीरे धीरे बताइये ,फिर से ..'
मैं तो सन्न!
उफ़ , क्या करूँ इस जल्दी बोलने की आदत का !
लाख कोशिश की  कभी कंट्रोल में नहीं आई  !
हमारी छात्रायें कुछ  मुँह घुमाये थीं मुस्करा रही होंगी ,आँख उठा कर देखने की हिम्मत नहीं पड़ी .

फिर से धीरे-धीरे हाल बताया और दवा ले कर भागी .
पर वहाँ से भागने से क्या होता ,क्लास में तो वही लोग हाज़िर होंगे  अपने संगी-साथियों सहित !
बचाव कहीं नहीं - जम कर करना पड़ेगा सामना !
*

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

कृष्ण-सखी .- 17 & 18 .

*

17.
कृष्ण का चक्कर इस बार अपेक्षाकृत विलंब से लगा था.
चिंता की एक लकीर भाइयों की मुद्रा पर  स्पष्ट झलक रही थी.
'भीम भैया ,  अर्जुन अब की बार अपनी भाभी  से मिल आये .'
वृकोदर एकदम बोल उठे,'  हिडिम्बा से ?'
नकुल-सहदेव आगे खिसक आये ,'कब?कहाँ हैं वे सब, कैसे हैं ?'
'पुत्र-जन्म पर तो भीम गये थे . सब ने भेटें भेजीं थी -माता-पुत्र दोनों के लिये ,पांडवों का सबसे बड़ा पुत्र है घटोत्कच  '
'क्यों भीम ,कब मिल आते हो जा कर हम लोगों को पता ही नहीं चलता .'
'यों ही घूमता फिरता चला जाता हूँ ,बताना क्या !'
कौतुक झलक उठा कृष्णा के मुख पर ,'कैसा था तुम्हारा पुत्र ?
'सिर पर केश नहीं थे उसके ,चिकने घड़े जैसा !'
'तभी यह नाम रख दिया .'
सब  मुस्करा रहे हैं .
युधिष्ठिर से रहा नहीं गया .' युवा हो गया है घटोत्कच तो ,उसका विवाह ..'
'विवाह ?अरे वो तो एक किशोर पुत्र का पिता है बर्बरीक का. भीम तुम्हारे पोते का नाम यही न ?'
'सब पता है .बस इधऱ कुछ समय से नहीं जा पाया .'
'अब पुत्र के पुत्र से मिेले हैं अर्जुन . घटोत्कच का पुत्र उससे भी बढ़कर .कैसा विशाल काय .मत्त गजराज को उठा कर फेंक दे ऐसा बलशाली .'
'इतने कम समय में ..दो-दो पीढि़याँ ..!'द्रौपदी विस्मित है .
'दैत्य जाति में बच्चे जल्दी  विकसित और परिपक्व हो जाते हैं .
'चाचा अर्जुन से तीरंदाज़ी के दाँव भी सीखे हैं. '
 समय पर हम सबके सहायक होंगे ,आगे जो होनेवाला है उसके लिये इन सब का सहयोग आवश्यक है .
*
फिर चलता है  ,कृष्ण-कृष्णा के वार्तालाप का क्रम .
सबसे निवृत्त होकर निश्चित स्थान पर आ जमते हैं दोनो .इसी  की अविकल  प्रतीक्षा रहती है पांचाली को .
दुनिया भर की बातें ,पर मुख्य केन्द्र-बिन्दु अर्जुन .
सखी की उदासी दूर करने का हर प्रयत्न करते हैं माधव .
 'इस साधना से लाभान्वित हो रहा है मेरा मित्र .परिपक्व होता जा रहा है ...और दुख ,मन की एक अवस्था मात्र ! बदलती रहती है वह भी .'
अभी अपरिपक्व हैं ,पार्थ?और बहुतों से तो ..'
 .''बहुतों से तुलना मत करो. उसकी बात औरों की नहीं है सखी .समझो किसमें कितना आगे जाने की सामर्थ्य है .. वैसे तो पूर्ण यहाँ है ही कौन ? नर - तन पाया  है, जितना  उपलब्ध कर सके ,'
'अभी  उनमें कुछ  रह गया है अधूरा ?'
कभी पूरी होती है शिक्षा ! इतने जन्म बेकार लिये जाते  हैं क्या ?एक में ही सब कुछ सीख ले ,समर्थ हो जाये तो नारायण ही न बन जाय !"
कुछ देर चुप रही सोचती-सी.
फिर एकदम पूछ बैठी ,'और तुम नारायण हो क्या ?
सकपका गये मुरारी ,'मैं ,नारायण ?'
फिर हँसते हुये बोले ,'तुम भी अच्छी हँसी उड़ा लेती हो .होता मैं ,तो काहे को यहाँ धरती पर भटकने चला आता?..'
'तुम्हीं जानो .कोई ठिकाना नही तुम्हारा ,सबको बहकाये रहते हो .हाँ ,तो अर्जुन को क्या अर्जित करना है ?'
'बड़ी जल्दी विचलित हो जाता है .अभी कच्चा है तुम्हारा पति .'
'सो तो है .सब मनाते रहे और वे दंड स्वीकार कर चले गये ..'फिर एक उसाँस भऱ कर  धीरे से बोली , 'दंड ले कर गये कि दे कर ..'
जनार्दन ने सुन लिया पर अपनी बात कहते रहे -
'शस्त्र में निपुण है ,पर जो अपनी साधना के बल उससे भी कुशल हो गये ,शरीर से पूर्ण है पर वहाँ भी किसी और की लब्धि उससे अधिक तो है न !
' संसार में  कुछ ऐसे  भी होते हैं जिनके अपने भी पराये रहें और  पात्रता और सामर्थ्य होते हुये भी तिरस्कृत और वंचित रह कर भी ,पार्थ के समतुल्य हो रहें .. यहाँ तो  औरों की कीमत पर अपनों को चढ़ाते हैं लोग. ऐसे में कहीं छिद्र तो रह ही जाता है  .हटा लेने दो ऊपर चढ़ी  धुंध ,उसकी अपनी  तेजस्विता निखर आये  !'
कृष्ण का संकेत समझ रही है पाँचाली,तेज में नैपुण्य में स्वार्जित उपलब्धि , केवल जन्म की बाधा, नहीं तो कहाँ होता ,कहाँ जा कर रुकता !
' जानती हूँ पक्षपात किया गया था, कितनी बार. धनुर्विद्या में प्रिय शिष्य के नाते और औरों से व्यवहार में भी... मुझे दुख है एकलव्य के लिये और ...'.
'रुक क्यों गईँ पांचाली, बात पूरी कर दो.झिझक काहे की ? कह डालो और..  कर्ण के लिये. .'
अनायास ही गहरी सांस ले उठी वह ,' हाँ ,जनार्दन ,उसके लिये भी ...'
'तप करने दो पार्थ को ,अरण्यों में घूम-घूम कर सिद्धों ,साधकों -तपस्वियों के साथ रह बहुत कुछ अर्जन  कर रहा है. '
''अभी नीति ,दर्शन अध्यात्म के कितने पाठ शेष रहे  होंगे .राज परिवार में ,जिन गुरु से  शिक्षा पाई उनके गुरुत्व में कुछ कसर रही होगी,जिन परिजनों के बीच रहा उनके संस्कार कितने समृद्ध और प्रभावी थे तुम्हें तो ज्ञात है ,उनकी दुर्बलताओं ने जो छाया डाली - व्यक्तित्व पर बहुत प्रभाव रहता है ,संस्कारों को छा लेता है कभी-कभी    .'
'पर इसमें पार्थ का क्या दोष ?'
 दोष न होते हुये भी ,अनीति का लाभ तो लिया ,परोक्ष ही सही..'
सिर झुकाये उलझन में पड़ी है वह .
कृष्ण ने कहा ,' वह नहीं जाता तो आगे कुछ होता क्या ? '
वह कुछ और ही सोच रही थी,
'..और मेरा परिष्कार  ,मैं जहाँ की तहाँ ..? '
'कहाँ , जहाँ के तहाँ ! तुमसे तो मैं भी भय खाता हूँ याज्ञसेनी , खरी हो कर निकलीं हो तुम .सब को चौंका देती हो -ईर्ष्या होती है मझे तुमसे.'
'खरी ?रहने दो .कितनी गलतियाँ हुईं . पछतावा होता है कभी-कभी .'
'कौन निर्दोष रह सका है यहाँ ?हम सभी जिस चक्र में घूम रहे हैं उसकी गति वक्र है .सीधा सोच भी घूम जाता है कभी-कभी. और फिर धरती का जीवन  धूल से कैसे बचा रहेगा  .जो दर्पण को भी धुँधला दे,'
'और तुम, तुम्हारे ऊपर ?'
 'बचा कहाँ है कोई !' हँस पड़े जनार्दन,' मैं तो सब झाड़-फटकार कर फिर जैसा का तैसा . देखो न चोरी झूठ कपट , और क्या-क्या दोष नहीं लगा ! .'
 'आगे क्यों चुप हो गये  ,आती-जाती गोप-बालाओं को छेड़ना ,छीना-झपटी. और.. और तुम जानो .'
'बस,बस . सबको आनन्द बाँटता था .ऊपर से  ऊखल से बँध कर पिटता था .'
दोनों खिलखिला कर हँस पड़े .
'तुम्हारी लीला तुम्हीं जानो गोविन्द ,औरों को फंसा कर स्वयं तमाशा देखनेवाले ...'
 'पर तुमसे कहाँ जीत पाया सखी ? अग्निसंभवा हो , दाह से निकल कर तप रही हो  लगातार    .''
'  गलतियाँ कीं मैंने भी , पर उससे उबरने का कोई रास्ता नहीं .'
'जिस निमित्त जन्मी हो  ,पूरा करना है .परिस्थितियाँ ले जा रही हों जब ,तब कोई क्या करे !अपना स्वार्थ किसी की बलि दे कर तो नहीं साधा तुमने !  उसे अपना तप पूरा कर लेने दो,  इस वनवास के बीच संत-मनीषियों के समागम से ...और यात्रा तो वैसे भी कितना कुछ दिखाती-सिखाती है जीवन के कितने पाठ पढ़ने हैं अभी ,'
'यह बारह वर्ष का दंड उसे घिस-घिस कर माँज रहा है , उसके उन्नयन के साथ भविष्य की संभावनाओं के द्वार खोल रहा है .ये सब तुम्हारे पक्ष में ,द्रौपदी .'
'उर्वशी का मोहजाल तोड़ दे जो,  उसका और कितना परिष्कार शेष रह गया ?'
कृष्ण ने दोहराया - 'उर्वशी का मोह जाल ?'
'क्यों ,उसकी प्रणय-याचना को स्वीकार कहाँ किया पार्थ ने ,उलटे शाप सिर धर लिया .'
'एक पहेली है यह भी .'
'इसमें क्या है  समझने को?उनके पूर्वजों में उर्वशी का नाम भी है .'
'फिर वही ,पूर्वजों का अभिमान ,वंश की चर्चा ..'
तो इसमें गलत क्या ?'
'तो फिर सही बात बता ही दूँ तुम्हें .लेकिन तुम्हीं तक सीमित रहे .'
' चलो यही सही .'
*
 ' जो हुआ उसे अब पूरा ही जान लो पांचाली -
 उर्वशी को सूचना मिली थी  अर्जुन अतिथि बनकर आये हैं .उसने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की .'
सिर हिलाया द्रौपदी ने -' मालूम है.'
इन्द्र ने कहा ,'हाँ ,हाँ जाओ ,अवश्य मिलो .'
फिर बोले ,
'लगता है तुम्हारा मन उस पर आ गया है  ?अभिसार का प्रबंध कर दूँ ?जानती हो वह  मेरा पुत्र  है ?'
 'जानती हूँ ,पर  तुम नहीं समझ पाओगे पुरंदर .अपने ही ढंग से सोचते हो न !लेकिन  अप्सरायें भी नारी होती हैं .'
साँझ पड़े इन्द्र की राज-सभा से लौटे थे अर्जुन .
परिचारिका ने निवेदन किया ,'देवी उर्वशी पधारी हैं .'
स्वागत हेतु कक्ष के द्वार तक बढ़ आये.'
चिर यौवना ,सुसज्जिता दिव्यसुन्दरी . अर्जुन विभ्रमित हो गये .
नेत्र झुका लिये बोले ,'आपने कष्ट किया ,आज्ञा देतीं मैं स्वयं उपस्थित हो जाता .'
'अतिथि हो .देखना चाहती थी . देवाधिपति के पुत्र को .,,कैसे हो पार्थ ?
'देवराज के आतिथ्य में स्वर्गोपम सुख उपलब्ध हैं .काहे की द्विधा  !'
'देवराज ? वे आपके पिता हैं ,.'
'जानता हूँ ,सौभाग्य है मेरा !आप भी मेरे वंश की पूर्वजा ,अब यहाँ हैं तो क्या हुआ
मातृ-भाव स्वीकार करें .'
वे चरण छूने झुके .
उर्वशी ने बरज दिया .
' नहीं .वे संबंध और वे आचार यहाँ के नहीं. हमारे लिये विहित नहीं कि सदा को ऐसे संबंध जोड़े रहें  .हम व्यक्ति के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व हैं - संबंधों से बाध्य नहीं .सांसारिकता से निरपेक्ष .जन्म-मरण से परे !तुम मृत्यु-धर्मा जन हर बार नये रूप में आते हो .सारे संबंध बदल जाते हैं .और पूर्वजा मैं तुम्हारी नहीं .'
'महाराज विक्रम...'
'तुम उनके वंशज नहीं अर्जुन ,कोई रक्त-संबंध नहीं तुम्हारा उनसे ,या मुझसे .उस परंपरा में नहीं आते तुम . सर्व विदित है कि इस वंश से तुम्हारे तार नहीं जुड़ते .केवल आरोपण कर दिया गया .दो-दो पीढ़ियों के व्यतिक्रम के बाद भी .एक पीढ़ी  व्यास की संतानों की और उसके बाद तुम तो पांडु के भी नहीं ,मधवा के औरस हो .'
अर्जुन सिर झुकाये सुनते रहे .
'तुम्हारे विषय में सुना था इसलिये उत्सुक हो उठी .'
'प्रणत हूँ देवि,'
'और पार्थ ,धरती के नियम यहाँ नहीं चलते .वहाँ भी एक जन्म की माँ ,किसी और जन्म में कुछ और हो जाती है. किसी को भान भी नहीं होता .छोड़ो मैं वह सब कहने-सुनने नहीं आई .
सुना था तुमने अपनी पत्नी को भाइयों के साथ बाँट लिया .चलो वह भी सही जिसे जिसमे संतोष !'
'माता की आज्ञा हुई थी , देवि.'
'हाँ ,माता की आज्ञा !और अनेक कार्य भी माता की आज्ञा से किये थे क्या ?'
' हम विवश थे ,...'
'लेकिन भरी सभा में अपनी वीर्यशुल्का पत्नी को घसीटे जाते और विवस्त्र किये जाते कैसे सहन कर सके ?तुम्हारा शौर्य कहाँ खो गया था? '
' उस समय नीति और मर्यादा का प्रश्न था..धर्म आड़े आ गया ...'
धर्म और मर्यादा की बातें? जिस पौरुष पर ,सब कुछ निर्भर हैं उसे लज्जित कर दिया तुमने !
उर्वशी हँसी ,'अनीति का खुला खेल और तुम नीति की आड़ लिये बैठे रहो . मर्यादा के नाम पर सारी मर्यादायें भंग के साक्षी रह हाथ पर हाथ धरे रहो.   फिर उसी के प्रतिकार  की शपथ उठाओ .अच्छा नाटक है ! मैंने धरती पर रह कर बहुत कुछ देखा लेकिन पौरुष का ऐसा अधःपतन नहीं देखा था किश्रेष्ठ वीर कहलानेवाले नपुंसक बने ऐसे अत्याचार चुप देखते रहें  . .
'.तुम्हारी पत्नी ,पाँच-पाँच की पत्नी .उसके सम्मान की रक्षा नहीं कर सके .खिलौना बना कर रखा जाता है वहाँ पत्नी को .केवल, मैं नहीं अनेक अप्सरायें पौरुष से लुब्ध हो कर गईं पर मिला वही ,अधिकार हीन पत्नीत्व .वह दुख मैं भी झेल  चुकी हूँ .असहनीय हो गया तो चली आई .'
वह कहते-कहते रुक गई . अर्जुन पर प्रतिक्रिया देखती रही.
  उद्वेलित था पर,कुछ बोला नहीं .
उर्वशी अपनी बात स्पष्ट करती रही , 'उस धरती पर रही हूँ ,एक राजवंश में रानी का पद पा कर .सब देख चुकी हूँ .पत्नी पर स्वत्व की बात जहाँ आये उचित-अनुचित का कोई विचार नहीं .'
क्या कहें अर्जुन !
'क्यों पार्थ ,उस सभा में अपनी विवाहिता के प्रति ,एक अवश नारी के प्रति इतना जघन्य व्यवहार कैसे सहन कर सके तुम ?'
'पांचाली का दाँव हार गये थे  .विवश थे हम ,वह उनकी दासी हो चुकी थी .'
'अपने खेल का दाँव लगा हार गये उसे  .फिर  पत्नी कहाँ रही  वह ,औरों की अधिकृता ,उनकी संपति ,वे जो चाहे  करें  ?'
सिर झुका हुआ  कहने को कुछ नहीं ,
' सामर्थ्य दिखाने का  एक माध्यम  नारी ही बचती है ? '
'जैसे का-पुरुष बने  देखते रहे तुम उस निर्लज्ज अपमान को ,पत्नी को पराई दासी बना कर एकदम तटस्थ. अब वैसे ही क्लैव्य को भोगो . नपुंसक हो रहो तुम .जानो कि विवश होने  और समर्थ होने में कितना अंतर होता है .साक्षात् अनुभव कर देखो .'
अति विचलित ,लज्जित पार्थ !
वासुदेव की याद आई .उस गहन वाणी के कुछ शब्द मन में गूँज उठे 'जो होता है  अच्छे के लिये ही .'
शीश झुका कर स्वीकार लिया था पार्थ ने.
कृष्ण कुछ रुके ,एक दीर्घ श्वास छोड़ा पांचाली ने .
मौन में  भारी पल बीतते रहे .
18.
'इस प्रकरण में तुम्हारी स्वाकारोक्ति सुनना चाहता हूँ . कर सकोगी, सखी ?'
'हाँ ,पूछो !'
' सभा के बीच, उस विषम अवस्था में  क्या तुम्हारे मन में यह भाव आया था ?''
'कौन सा भाव  ?
'कि यह व्यवहार का-पुरुष का ,क्लैव्य का द्योतक है..और ऐसा बहुत- कुछ ?'
'मन ही मन में बहुत कुछ  उमड़ा  था . . दारुण दुःसह अपमान के समय मैं बिलकुल अकेली रह गई थी.'
द्रौपदी रुकी ,एक लंबी साँस खींची फिर बोलने लगी ,
'बसे प्रश्न करती रही .अपनी शंकाओं का निवारण चाहती थी .पर किसी के मुख से आवाज़ न निकली .'
' निकलती कैसे ,सब को अपनी नाक बचाने की पड़ी थी .तुम्हारे पति भी....छोड़ो यह सब . बताओ कि तुमने क्या सोचा ?'
'उस समय सबसे असंतोष ,शिकायतें ,क्रोध और आरोप के सिवा कुछ नहीं सूझ रहा था ,जनार्दन !..
सारी इच्छायें समेट लीं, मन पर घोर संयम कर  पाँचों में ईमानदारी से अपने आप को बाँट दिया .इनमें कोई भेद न पनपे इसलिये ,केवल इसीलिये कभी अपने मन की बात नहीं कह सकी .
एक से कहूँ कि सबसे ,बस इसी ऊहापोह में झेलती रही अकेली .और अब मुझे उछाल कर  सब चुप हैं. मन में आक्रोश जाग रहा था.'
' मस्तिष्क घूम गया था मेरा ,मन में क्या -क्या उमड़ता है -उचित-अनुचित का  कोई विचार नहीं . कोई मर्यादा नहीं . चाहे जिस ओर दौड़ जाता है .और गोविन्द, उस संकट - काल में इसकी गति  सौ-गुनी तीव्र  हो उठी थी.'
कृष्ण सुन रहे हैं .सहानुभूति से उमड़ रहा है मन .
'...बस जाने क्या-क्या मन  में आता रहा .मुख से फिर भी नहीं बोली -एक  पत्नी  भरे समाज में पतियों को कैसे लज्जित करती !
और  सबसे अधिक शिकायत अर्जुन से कि उसी के कारण मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई ,कैसा पुरुष कि वीर्यशुल्क देकर लाया और अब निर्वीर्य बना सिर झुकाये बैठा है .इसी के कारण मैंने इन चारों को स्वीकारा और अब यही सब एक ,और मैं केवल एक गोट ,जिसे कैसे भी उछालते् रहो .
 यह मेरा पति --  .पुरुषत्व रहित  - क्लीव .'
पार्थ की ओर बस एक बार दृष्टि डाली थी.'
उस समय तुम्हारी दृष्टि  बहुत कुछ कह गई.अब भी उसके अंतर में खटक रही  है.पश्चाताप में दग्ध हो रहा है अर्जुन .,किसी से कुछ कह नहीं सकता .  .
'हाँ, पांचाली,' तुम्हारी तीव्र मनोवेदना उर्वशी के स्वरों में प्रतिफलित हुई और  नपुंसकता उसके हिस्से लिख गई !'
पांचाली के नत- मुख पर  गहन उदासी ,
'अब मत सोचो ,सखी ,मैं हूँ न .तुम्हारा बाँधव . कह डालो जो मन में है .हल्की हो लो .'
'नहीं ,और किसी से कुछ नहीं कहना है मुझे .कोई कुछ नहीं कर सकता .बस तुम ,और कोई नहीं .किसी के कांधे सिर धर नहीं  रो पाती .सब शामिल थे उस दुरभिसंधि में.सब !मेरा किसी ने नहीं सोचा .मुझे एक अस्त्र बनाये रहे  .अपने पराए सब .   मीत, मैं बिलकुल अकेली हूँ   बस एक तुम ..'
कृष्ण चुप .
किसी के सामने नहीं कह सकी पर  ,कृष्ण के सामने स्वयं को रोक नहीं पाती ,सारा संयम बह जाता है .ढ़ता भरभरा कर बिखरने लगती है .
'और क्या-क्या देखना रह गया है ?'
 'मत कहो सखी ,ऐसे मत कहो .अभी जीवन बहुत बाकी है .जब कहती हो क्या-क्या देखना रह गया , कोई अदृष्ट व्यंग्य से हँस देता है !'
 द्रौपदी फिर कह उठी-
' यज्ञ की अग्नि से प्रकटी हूँ .जीवन भर तपन ही मेरे हिस्से  आई . क्या इसीलिये इतनी विडंबनायें मेरे पल्ले पड़ीं . सहज जीवन मैं नहीं जी सकती .असामान्य हो गई हूँ !एक पति ,परिवार ,कुछ संततियाँ स्वाभाविक नारी जीवन,क्या मेरे हिस्से में नहीं है .इतनी अशान्ति ,इतनी विभाजित होकर रहना ही क्या मेरी नियति है ? एक सामान्य नारी की तरह मुझे भी सुख- दुख व्यापते हैं ,मन में कामनाओं की तरंगें उठती हँ ,मैं भी मनुष्य हूँ , मुझमें भी दुर्बलतायें हैं.'
ओह, वह दिन !
'किसी तरह चैन नहीं पड़ता  .हर पल लगता मुझ एक- वस्त्रा को केशों से घसीट  सभा के मध्य खड़ा कर दिया गया है.'
वस्त्र खींच रहा है कोई .दोनों बाहों से देह लपेटे मैं टेर रही हूँ .उससे बचने को उस सीमित घेरे में बार-बार  इधर- उधर भाग रही हूँ . देह पर एक वस्त्र ,वह भी अस्त-व्यस्त और उसे भी  वह उद्धत खींच रहा है .कितनी दृष्टियाँ इधऱ ही लगी हैं ,विद्रूप भरी हँसी कितने चेहरों पर ... मेरी देह चीर रही है  .
उधऱ वे पाँचो,मेरे पति, सिर झुकाये बैठे हैं .
आज भी मैं नहीं समझ पाती कि कि पत्नी तो पत्नी ,सी भी नारी का वस्त्र- हरण होता रहे और पुरुष बने सब चुप बैठे देखते रहें  .यह कैसी नीति कैसी मर्यादा  ,कैसा धर्म ? जो  जघन्य बर्बरता का प्रतिरोध न कर सके  .मर्यादा एक आड़ बन जाये  .क्षत्रिय की शक्ति और सामर्थ्य क्या इसी लिये हैं ?..न्याय-नीति का निर्लज्ज उल्लंघन हो रहा है
और न्याय-नीति की आड़ ले सब चुप देख रहे हैं ...'
चुप हो गई थकी-सी .कुछ रुकी .फिर बोलने लगी ,
' ध्यान आता है तो अब  भी कितनी उद्वेलित हो जाती हूँ..   बार-बार उभर आता है वही सब .लगता है आज भी
बचने का यत्न करती, भागती  रही हूँ व्याकुल ....कोई बचा ले ! कोई रोके !
कोई नहीं बढ़ता. गुरु- जनों को नाम ले- ले कर टेर रही हूँ ,. कोई प्रत्युत्तर नहीं . सब मौन दर्शक !क्या करे अकेली लाचार ,चारों ओर से घिरी हुई !
और तब अंतरतम से  दारुण पुकार उठती है ,' हे मुरारी , कहाँ हो ,बस तुम्हीं हो मेरा अंतिम आश्रय ,
यहाँ कोई नहीं है मेरा,मेरे लिये किसी का दायित्व नहीं .मैं एक खिलौना हूँ , जीवित नारी देह नहीं . जनार्दनबस तुम हो !
अगर तुम भी  नहीं बचाते तो  वहीं सिर पटक कर प्राण देना  शेष रह गया था. '
गहरी साँस ली उसने
' पर आगे  नहीं चली किसी की ,एक वस्त्रा नारी अनंतवस्त्रा बन गई वह लघु वस्त्र अपरिसीम ,अमित-रूप  होने लगा .और वस्त्र-हरण करता हाथ निष्क्रिय संवेदना शून्य हो गया .
और  सब जिससे से खेल रहे थे, नारी की लाज आवृत्त कर सका ,सही अर्थों में पुरुष एक ही था !'
द्रौपदी चुप है .
 अब कहने को कुछ  नहीं !
*
कहे भी तो क्या कभी द्रुपद पिता की चाल, कभी कुन्ती माता की नीति ,कभी पतियों के दाँव. अपने हित साधन के लिए एक मोहरा बना लिया उन सब ने जो अपने थे ..
नहीं याद करना चाहती ..रातों की नींद, दिन का चैन  खो जाता है  .  बस, एक ने साथ दिया.  हर विषम क्षण में ,उसे ही बार-बार टेरता है अशान्त मन !
और जब पांचाली का मन कुछ स्थिर हुआ तो जनार्दन ने कहा  -
'याज्ञसेनी .आज एक और बात तुमसे नहीं छिपाऊँगा .'
कृष्ण का मुख देख रही है वह -
' मेरा मित्र पार्थ जीवन भर पश्चाताप की अग्नि में दग्ध होता रहा .तुम पर जो कुछ पड़ा उसका उत्तरदायी स्वयं को मानता रहा , .झेल लेगा यह शाप भी .
उसकी स्थिति की कठिनता तो देखो,  कह नहीं सकता . प्रतिरोध नहीं कर सकता  .
बस , भाग रहा है अधिक से अधिक . स्वयं को तपा रहा है .तुम्हारे सामने आते कैसा उद्वेग !
जो स्वयं संतप्त हो किसी को कैसे प्रसन्न करे ?'
खूब समझती है पांचाली .पति-पत्नी हैं - पर  एक दूसरे से कभी मन की बात नहीं कह पाते .
नहीं कह सकते .
निरंतर एक व्यवधान ,एक भय - उनके भाइयों और उसके  पतियों के बीच कहीं किसी संशय का बीजारोपण न हो जाये  !
इस विचित्र विधान  की दुरभिसंधियों में हम दोनों ही मोहरे बने हैं  .
ओ,पार्थ, मैं समझ रही हूँ तुम्हारा मनस्ताप !
*
(क्रमशः)


शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

कृष्ण-सखी - 15 & 16.


15.
 दोनों मित्रों में कैसा  विचित्र -सा साम्य  ! लगता है  , एक ही तत्व के दो रूप अपने-अपने परिवेश में आमने-सामने आ गये हों . फिर भी संबंध का सही स्वरूप समझ में नहीं आता ,केवल बंधु नहीं ,केवल मित्र नहीं और भी जाने क्या-क्या  !
उलझन में पड़ जाती है पाँचाली .
ऊँह ,जाने दो यह पहेली कभी सुलझेगी नहीं , मुझे क्या ..दोनों मेरे अपने हैं.
पहले जब उसे जाना नहीं था ,सुनती रहती थी उसके विषय में .औत्सुक्य जागता था  .कैसा होगा वह जिसकी इतनी चर्चा ,इतनी कहानियाँ ,विस्मय-जनक वृत्तान्त - जिनका कोई ओर-छोर नहीं .और फिर भेंट हुई थी कृष्ण से  .लगा नहीं कि पहली बार मिल रही हूँ .और न जाने कैसे इतना गहन मैत्री संबंध जुड़ गया .
और यह गोकुल का कान्हा  तटस्थ मुद्रा में कितना-क्या कह जाता है  ! यही है वह रसिया   ,जिसने सारी ब्रज भूमि में रस- धार बहाकर जन-मन सिक्त कर दिया . सबको हँसाता रहा ,खेल खिलाता, लीलाएँ दिखाता रहा - और फिर भी इतना अनासक्त !
सोच कर मन जाने कैसा हो उठता है .
नारीत्व का सम्मान और नारी के  प्रति सहज मानवीय संवेदनापूर्ण उसकी भावनायें पांचाली को अभिभूत कर देती है - कभी किसी ने इस दृष्टि से देखा था क्या ?
कैसी विराट् सहानुभूति !नहीं ,केवल नारियों के लिये नहीं -प्राणिमात्र के प्रति .ब्रज-भूमि के वन-कुंज ,यमुना तट और करील के वन तक जिसके नेह-भाव  से चेतन हो उठे हों ,वह किसी जीव के प्रति  उदासीन कैसे हो सकता है !
उसी ने   कहा था  -
'सहज जीवन के  आनन्द का भोग उसके लिये वर्जित कर दिया कि एक बार यह लगने के बाद सारे ऊपरी स्वाद फीके लगने लगते  हैं.
'और भी तो ,' पांचाली ने कहा था , '' जकड़ दी गई है शृंखलाओं में .रीति-नीति- धर्म के नाम पर ,आदर्शों की घुट्टी भी सिर्फ़ नारी के लिये,. व्यक्ति कहाँ रही वह, अपने के उपयोग की वस्तु  बना कर  ,पुरुष ने अपने लिए सारे रास्ते खुले रखे .'
वह हँसा ,'इसीलिये कि वह संसार में उलझी रहे और पुरुष  मुक्ति का स्वाद ले सके . सारे नियम , विधान  ,मर्यादायें,उत्तरदायित्व  उस  पर लाद कर वह निश्चिंत हो गया कि चलो दुनिया के सारे काम चलते रहेंगे . और मैं मुक्त रहूँगा.'
'उस पर भी अगर उसके कुंठित होते जा रहे जीवन में विकृतियाँ पलने लगें तो दोषी भी वही ! '
'वह सुख अधूरा है जिसे पुरुष सिर्फ़ अपने लिये चाहता है  ,' कृष्ण ने कहा था ,'और अधूरा सुख कभी संतुष्टि नहीं देता .
वह प्रकृति रूपा है ,रचयित्री है.परम समर्थ - वे जानते हैं  और  इसीलिए उसे लाचार कर देना चाहते हैं .पर अपने अहंकार  में उसे पराभूत करने का  प्रयास आगत पीढ़ियों को कुसंभावनाओं का ग्रास ही बना देता है  .'
'... तो और यहाँ हो क्या रहा है ? विसंगतियों की परंपरा चली आ रही है! वृद्ध राजा की कामना जागी  धीवर-पुत्री के लिए .  पिता ने अपनी पुत्री का हित देखा - सौदा ही तो रहा.फिर अंबा अंबिका अंबालिका ! काशिराजकी कन्यायें !....भाइयों में साहस होता तो स्वयं जीत कर लाते ,अपनी शक्ति और साहस से उन्हें आश्वस्त करते हुये ,सम्मान के पात्र बन कर  ब्याहते .विजयी की भार्या बनने की जगह ,लाचारों को सौंप दी गईँ  ।यह कैसा स्वयंवर ?
और फिर आगे  अरुचिपूर्ण  नियोग के लिये विवश किया जाना ।कठपुतलियों की तरह डोर खींची जाती रही  .
कैसी -कैसी स्थितियाँ और उनके विचित्र परिणाम ..आगे क्या होगा .कौन जाने ...'
'उसकी तो  भूमिका  बन चुकी , सखी.'
'काहे की ?'
' भावी अनिष्ट की . देखो न ,ये जो कुछ हो  रहा है अनर्थ का बीजारोपण हो रहा है .अब जो होना है सामने दिखाई देने लगा है .कैसी विकृत पीढ़ी   - यही पिछली वाली .कैसी अस्वाभाविकताएं  -विकृत दाम्पत्य ,उदासीन माता-पिता की संस्कारहीन  संतानें, समाज पर बोझ बनी-सी ....'
कुछ रुका रहा ,सोचता-सा  फिर बोला -
'वास्तविकता यह है कि जहाँ नारी सतेज है वहां संतान समर्थ ,जहाँ विवश निरीह है वहाँ संततियाँ कैसी  हैं -उदाहरण सामने है .'
'ये दो पीढ़ियाँ ,' कृष्णा सोच रही है ,' चित्रांगद,विचित्रवीर्य फिर आगे धृतराष्ट्र ,पांडु  और अब ये  सारे लोग...'
तब तक कृष्ण बोल उठे, ' ऊपर से भले लगे कि शक्ति ,-सामर्थ्य, प्रभाव सब पा लिया . लेकिन ऐसा है नहीं . विषमतायें विकृत करती चलती है . अन्याय आगे चल कर ब्याज समेत अपना सारा मूल वसूल लेता है. '
' हाँ ,वासुदेव.अनर्थ की पहुँच कहाँ-कहाँ तक है ?अपने केन्द्र को घेरने के बाद वह पूरे  घेरे को अपनी समेट में ले लेता है ,'
आगत की आशंकाओं को किनारे कर देना चाहती है ,वह.
उद्विग्न कर देने वाली  स्मृतियों को दूर धकेल देना चाहती है  पांचाली .
 बाहर उपवन से कुछ आवाज़ें आ  रही हैं .भीम , नकुल-सहदेव का   संवाद चल रहा है ..किसी बात पर हँस रहे हैं वे लोग .
नहीं , कहीं नहीं जायेगी ,अभी किसी से कुछ कहने-सुनने की इच्छा नहीं .
बस वातायन से बाहर वृक्षों का हिलना देख रही है .
*
16
कहाँ से कहाँ  खींच ले जाता है यायावर मन !
भावन करना चाहती है कोई रमणीय प्रसंग जो अंतर को   स्निग्ध कर दे  , और पहुँच गई अनर्थों  की जड़ तक  !
हाँ ,रास महोत्सव -एक अनोखी घटना !
विस्मय होता है द्रौपदी को ! कितनी आसानी से उन गोप रमणियों को  सीमित घेरों से बाहर निकाल लाया यह नटनागर. ग्राम्य भूमि के विस्तृत प्रांगण में रस की अनुभूति देना कोई सरल काम था क्या ?
 पर उससे भी अधिक उसके पीछे माधव का चिन्तन पांचाली को अभिभूत कर देता है .
अब तक किस ने सामाजिक आयोजनों  की इतनी समग्रभावेन चिन्ता की थी ?सबके कल्याण और सु-संतोष का विधान करने का किसी को भान भी हुआ था?
जो चलता आया है उससे परे कुछ करने का प्रयास , सीमित घेरों में रहने वाले लोग कहाँ कर पाते ?
 पूरे विस्तार में जाना चाहती है वह . इस  सारे आयोजन  की पृष्ठभूमि समझने की उत्सुकता जाग उठी है.
अपनी बात  कृष्ण से कहे बिना चैन कहाँ था -
' ये क्यों नहीं सोचता कोई कि स्त्री के भी मन है ,बुद्धि है. स्थूल-चेता नहीं वह, सूक्ष्म स्तरों तक संचरण करने में समर्थ है. '
       'इसीलिये तो ,अन्न और प्राण की सीमा से निकाल कर आनन्द के स्तर तक पहुँचाना चाहता हूँ ।मनो-मुक्ति देना चाहता हूँ कि नारी मर्यादाओं में बँधी ,विधि- निषेधों में सिमटी ,परमुखापेक्षी होकर  पुरुष के हास-विलास का साधन मात्र न रह जाए  .वह कर्त्री है ,सर्जक है, भोगकर्त्री भी .'
उसने जो कहा था उसकी अनुगूँज बार-बार उठती है  कृष्णा के अंतर्मन  में -
'जीवन व्यवहार का पर्याय है ।पुरुष के सुख और हित के लिये नारी की  आत्मा का हनन क्यों ?उसके जीवन में भी उल्लास और उजास भरना चाहता हूँ ।जिसे सदियों से जकड़ कर रखा गया है कुण्ठित कर डाला गया है ।सहज मानवीय संवेदनायें दबा कर इतना भार लाद दिया कि अपने लिये विचार करने की न सामर्थ्य बची न अवकाश ।आनन्द जीवन का भोग्य है ।उन्मुक्त भाव से जीवन का रस उसके लिये वर्जित क्यों ?ललित कलायें मन का उन्नयन करती हैं सरसता का संचार करती हैं ,वह जीवनांश उत्सव बन जाता है ।नारी उनमें डूब कर आनन्दित हो तो दोष काहे का  ?
कोरे ऊँचे आदर्शों को लाद देने से काम नहीं चलता ।अगर उनसे जीवन असंतुलित होता है तो वे व्यर्थ हैं।व्यवहार की श्रेष्ठता, समाज में संतुलन और जीवन में संगति लाने के लिये है ..'
मुख से चाहे न बोले चाहे ,पाँचाली का मन बराबर  हुँकारा दे रहा है .
'  स्त्री के  लिये भावना का मार्ग सहज-गम्य है।मैं उस प्रकृति -रूपा  को  बाँधना नहीं मुक्त करना चाहता हूँ  .'
कल्पना में उभरने लगते हैं वे दृष्य  साथ में  कृष्ण के स्वरों की पीयूष-वर्षा -
' मैं मनोमुक्ति देने  आया हूँ .इस शरद्पूर्णिमा की ज्योत्स्ना में ,स्त्री -पुरुष का भेद भूल ,मुक्त- मना महारास के परमानन्द में डूब जाओ .संपूर्ण मनश्चेतना इस रस में  लीन हो  ,अपनी लघुता से मुक्त हो लें सब - चाहे सीमित अवधि के  ही लिये.'
'हाँ ,तुम्हारा प्रयोजन  जान रही हूँ ..'
' हाँ ,मैं उसी का आयोजन करता हूँ सखी .वही  कला कि जीवन का विष रस में परिणर्तित हो जाये ,जड़-चेतन में चिदानन्द की  व्याप्ति संभव हो .'
आत्म-विस्मृता पांचाली सुनती रहती है चुपचाप.
 ' मैं  जीवन को सुन्दर बनाना चाहता हूँ. कि भूमा की आनन्दिनी वृत्ति सब में चरितार्थ हो .'
 'नारी-पुरुष का आकर्षण प्रकृति का सनातन नियम है .बचेगा कोई कैसे .वह प्रकृति है .उससे भाग कर -पुरुष कहाँ रहेगा !
उसी वृत्ति का परिष्करण कर वासना से ऊपर भावना में परिणत करना चाहता हूँ  .
  अमित विस्तार पाती अंतश्चेतना का संस्कार करता यह महोत्सव ऐन्द्रिय वासना से निरा अछूता है
'आत्मा में आनन्द का झरना फूट पड़ता है. सारे इन्द्रिय-बोधों को आत्मसात् करती वह सौंन्दर्य  चेतना ,समय-खंड से असीम में खींच ले जाती है -कितना मनोरम रूप .मन सीमित नहीं रहता ,सामने जो है वह भी दृष्टि में नहीं आता,सुनाई नहीं देता .एक विरा़ट़् अनाम अनुभूति अपने में डुबा लेती है .
' मैं यह  सब ,उनसे भी बाँटना चाहता हूँ जो सरलमना हैं ,सहज-विश्वासी भी और  जीवन के आनन्दमय रूप से  वंचित रही है ,कि ,मत घुसी रहो दीवारों के भीतर ,
बाहर आओ प्रकृति के रम्य प्राँगण में , आनन्द -विभोर हो मन असीम में विस्तार पा ले .'
 हाँ ,उसने कहा था ,'आयें सब साथ-साथ इस रम्य-लोक में . सौंदर्य मन का उन्नयन करता है.प्रकृति के  परिवेश में ,सब-कुछ भूल कर उन्मुक्त रास रचा लें .कितना आनन्द कि तृप्त हो जाए तन-मन . ऐसे में पाप तो छू भी नहीं पाता .सब-कुछ आनन्दमय, रमणीय,पावन!'
कल्पना करती है  दिव्यता में  डूबी उस मुक्त -बेला की जहाँ देश-काल व्यक्ति का विलय हो गया होगा .व्याप्ति की असीमता में सब ने सब का अनुभव किया होगा .सब में बसा वही कृष्ण-मन , लगा  जैसे इस विराट् क्रीड़ा में वही सहचर बना है ,प्रत्येक का .सब को उसके साथ का अनुभव हो रहा है .वह एक साथ  सब के साथ है , सब  के साथ !
हाँ,हाँ यही तो हुआ था .
और अभिभूत करे दे रहे हैं उसके  शब्द -
' देखो न कृष्णे ,इस महारास का प्रत्येक भागी मेरा ही रूप है. रस का भोग ,जीवन के हर  मीठे-तीते रस का भोग मैंने किया है .नहीं किया होता तो सबसे भिन्न हो जाता !मैं अपने हृदय में सबको अनुभव कर सका हूँ ।ये गोप भिन्न नहीं हैं ,मेरा आत्म-भाव सब में स्थापित हो गया है ,ये सब मेरे साथ हैं हूँ .देखोगी तो समझ जाओगी सखी ,अपने में पा लोगी मुझे.इस महारास का भोग मैं शत-शत देहों से कर रहा हूँ .इन ग्वालों में, मैं ही विद्यमान हूँ -सहस्र सहस्र रूपों में--.इस विराट् चेतना के आनन्द का अनुभव ये सब कर रहे हैं , वही  मैं अपने में कर रहा हूँ .'
पाँचाली  विभोर  ! '
'चित् प्रकृति का यह रूप ,मानवी प्रकृति से समन्वित हो !पुलकित  मन-प्राण जुड़ाते रहें  .रुक्ष-विषण्ण जीवन को रस के ये कण सहनीय बना दें .'
 दोनों चुप .
अनायास पांचाली की विनोद-वृत्ति जाग उठी -
'अरे वाह , तुम तो बड़े भारी चिन्तक निकले गोपीवल्लभ !मैं तो नट-नागर ही समझे थी . तुम क्या-क्या हो मैं तो समझ नहीं पाती.'
'बस-बस ,खींचने पर तुल गईँ .' कृष्ण ने हाथ हिला कर निषेध करते हुये कहना जारी रखा ,
'एक साधारण गोप बालक ,वन-वन घूमता गोचारण करता बड़ा हुआ ,जान लिये भागता रहा इधर से उधर ,और अब पांचाली, तुम भी हँसी उड़ाने पर तुल गईँ !'
'गुरु संदीपनि के आश्रम से लोगों को भरमाने शिक्षा भी ले कर आये हो क्या ?सारी दुनिया को बहका लोगे ,पर मैं नहीं तुम्हारे झाँसे में आनेवाली .'
मोहक हँसी से व्याप्त हो गया मोहन का आनन .
' मैं तो मनमाना बोल जाता हूँ  पर तुम कब बहकी हो पाँचाली ? '
मनमाना ?द्रौपदी के मन में उठा ,ऐसे निचिंत भाव से सब कुछ कह जाते हो जैसे काल की गति  को अपने संकेतों पर साधे बैठे हो !
पर चुप रह गई वह .
'जीवन में इतनी उठ-पटक रही सखी,निरंतर  चलता  मंथन  . घूर्णित - विचारों के निहित  तत्व  अपने  आप  तल में ,जमते चले गये .'
'समझ रही हूँ मीत, सब समझ रही हूँ .'
'हाँ ,तुम्हीं समझोगी !तुम भी तो.. पांचाली, तुम भी ..तभी तुमसे  सब  कुछ कह बैठता हूँ  .'
बार-बार ध्यान में आता है कैसी-कैसी बाधायें पार कर इस मनोभूमि तक पहुँचा होगा यह विलक्षण पुरुष !
मन ही मन कहती है , तुम नहीं होते मेरे साथ, तो मैं  कितनी एकाकी, कितनी लाचार होती !और  कितनी असहाय !जीवन को सहन करने की शक्ति तुम्हीं से पाती हूँ गोविन्द ,तुम क्या हो मैं समझ नहीं पाती,सिर्फ़ सोचती रह जाती हूँ ।
(क्रमशः)

बुधवार, 23 नवंबर 2011


 ये बच्चे भी न !
*
 तब मेरी पुत्री का परिवार बरौनी - बिहार में था.
उन दिनों  लीचियों की बहार थी .
मेरी नातिन ,चन्दना , होगी 4-5 वर्ष की ,हम लोग लीची छील कर खाते तो अलग जा  बैठती .बड़ी अजीब दृष्टि से देखती रहती -जैसे उसे बड़ी वितृष्णा हो रही हो .
उसे बहला-फुसला कर अपने पास बुलाया और लीची का स्वाद ले सके इसलिये उसके लिए छीलने लगी ,उसने बड़ी ज़ोर से झिटका बोली,' नहीं खाना.'
 'क्यों खा कर तो देखो कितनी अच्छी है .'
वह मुँह बना कर बोली ,ऊँ.. नईँ ..चाचरोच(काक्रोच)'  .
लीची की गुठली को  वह काक्रोच समझ रही थी ,
समझाना-बुझाना सब बे-कार .
  उसके मन में जम कर बैठ गया था कि लीची के अंदर  काक्रोच घुसा है - छूना तो दूर पास तक नहीं आता थी वह.
अब तो खैर, बड़ी हो गई है ,
और इसी लड़की ने एक दिन चींटियाँ चबाईं ,फिर रोई-पछताई  .
हुआ यह कि उसने अपनी टॉफ़ियाँ  अल्मारी में रख दी थीं  ,.दो-तीन दिन बाद अल्मारी खोली तो टाफ़ी दिखाई दीं .उसने झट से निकाली और रैपर हटा कर मुँह में रख ली .
टाफ़ी ,चबाई उसने और स्वाद लेने लगी ,पर मुँह बिगाड़ कर ,थू-थू करने लगी .
ध्यान दिया तो उसके हाथ पर  नन्हीं-नन्हीं चींटियाँ रेंग रहीं   थीं ,
.  मुँह से निकली टाफ़ी में चींटियाँ चिपकी थीं- मरी-अधमरी.
अल्मारी देखी  टाफ़ियों के रैपर के अंदर  नीचे से  खोखला कर   मार चींटियां चिपकीं थीं ,झुंड की झुंड.
 चन्दना के मुँह - ज़ुबान पर भी .जल्दी-जल्दी साफ़ किया कुल्ला कराया पर जीभ पर का चींटियों का स्वाद ! वह रगड़-रगड़ कर पोंछती रही . कुल्ला करती रही .
इस टाफ़ीवाली बात से एक लालीपाप की याद आ गई .
मेरा पोता 6-7 वर्ष का .स्कूल से आया तो एक लॉलीपॉप लेकर चाटता हुआ .
घर पर टॉयलेट जाना था उसे . अब  समस्या यह कि लॉलीपॉप कहाँ रखे जहाँ बिलकुल निरापद  रहे.,किसकी सुरक्षा में दे जो उसे हाथ में पकड़े रहे ,मौका पाते ही चाटना न शुरू कर दे .
अपने से कुछ बड़ी बहिन को पकड़ाने का तो सवाल ही नहीं उठता .
.इस समय उसे मैं -बड़ी माँ, ही अपेक्षाकृत ईमानदार दिखाई दीं .
मेरे पास आकर बोला ,'मैं अभी आता हूं .ये पकड़ लीजिये .
मैंने पकड़ लिया .वह चल दिया .फिर मुड़ कर देखा उसकी दृष्टि में साफ़ संशय था .
मुझे हँसी आ गई .
अब तो उसका शक पक्का हो गया ..
चलते-चलते पीछे लौटा, बोला ,'अभी आता हूँ  पकड़े रहिये बड़ी मां,बट टोन्ट लिक इट.'
बड़ी जल्दी में था शायद एकदम दौड़ कर टॉयलेट में घुस गया .
*

सोमवार, 21 नवंबर 2011


ये धरती -
*
(बाल-दिवस पर मन में आया कि हमें बच्चों के लिये भी कुछ लिखना चाहिये .कोशिश की है एक कहानी लिखने की -जैसी भी बन पड़ी प्रस्तुत है- )
'माँ ,देखो ,ये कबूतर इस पानी में घुस कर पंख फड़फड़ा रहा है- सारा पानी उछाल-उछाल कर चारों तरफ़ पर कीचड़ कर दिया '
'रोज़ भगाती हूँ,और जब देखो तब चले आते हैं ..'
'और ये चिड़ियाँ तोता गिलहरी मौका लगते ही फल और डालें कुतरती रहती हैं .'
'अब जाल लगवा देंगे चारों ओर ..' मम्मी ने कहा.
मुकुल बड़ा-सा बाँस लेकर सारे पक्षियों और गिलहरी को दूर तक खदेड़ने लगा.
 रात उसे सपना आया -कि चिड़ियाँ तोता ,गौरैया ,,गिलहरी  कबूतर खरगोश आदि बहुत से लोग .आये हैं .कह रहे हैं ,हमें तुमसे बात करनी है.
सपने में मुकुल ने सोचा 'अरे ,इन सब को भी बोलना आता है ..' उसे याद आगया तोता तो हमारी बोली अच्छी तरह बोल लेता है .'
वह बाहर निकल आया
'आओ बैठो .'
वे रंग-बिरंगे नन्हें -प्यारे लोग उसके आस-पास बैठ गये .मुकुल के मन में खुशी की लहरें उठने लगीं .
'क्या हुआ ?'
'तोता आगे आया बोला ,'आप लोग क्या चाहते हैं .हम पशु-पक्षी यहाँ नहीं रहें ? .'
'नहीं क्यों , रहो न .हमने कब मना किया आराम से रहो ,बस हमारी जगह पर गड़बड़ मत करो .'

 आपकी जगह कौन सी  ?
'यही जहाँ हम रहते हैं .,  पाँच साल में हमने इसे कितना अच्छा कर लिया पर तुम लोग समझते नहीं ..'     '
' ,'हाँ ,पाँच साल से आप लोग यहाँ आ गये .पहले हज़ारों सालों से ,हम सब यहाँ रहते थे ,धीरे-धीरे आप लोगों ने ने हमें भगा कर सब अपने कब्ज़ें में कर लिया . खुली जगह थी खूब पेड़ थे दूर-दूर तक खुला आसमान था, धूप-हवा-पानी किसी चीज़ की कमी नहीं थी .लेकिन ये सारी जगह आपकी कैसे हो गई .?.'
'पापा ने ये बड़ी-सी कोठी बनवाई है न अपने रहने के लिये .'
' और हम सब को उजाड़ दिया .हम लोग लड़ नहीं सकते और आदमी लोग हमेशा मनमानी करते हैं.'
,'पेड़ कटवा दिये..हमारे घोसले तोड़-फोड़ दिये अंडे-बच्चे निकाल फेंके .न हमारे रहने को जगह न खाने को फल कहाँ जाये हम '
हम तो आपसे कुछ नहीं लेते .न हमें कपड़े चाहियें ,न बड़े-बड़े घर ,और सामान तो बिलकुल नहीं .
और यह सब तो ईश्वर का दिया हुआ है सब जीवों के  लिये .आप लोगों छीन लिया,सब-कुछ बिगाड़ दिया   सबके  हिस्से का अपने लिये समेट लिया ....'
'कैसे ?'
.,देखो न ,सब जगह दीवारें खिंच गई ,ये लो सुनो .ये छोटी-सी गौरैया क्या कह रही है..'
वह आगे फुदक आई ,'हमने तो घरों के मोखों में घोंसला बनाना शुरू कर दिया था.तुम्हारे आँगन में खेलना हमें बड़ा अच्छा लगता था .पर तुम लोगों ने हर जगह जाली और तार लगा दिेये .
'अम्माँ कहती हैं तुम लोग खूब कूड़ा और तिनके फैलाती हो ..'
मुकुल को ध्यान आया अभी कुछ दिन पहले अम्माँ सफ़ाई कर रहीं थी ,झाड़ू के धक्के से  बराम्दे की साइड से एक तिनकों का घोंसला नीचे आ गिरा .दो बिलकुल नन्हें बच्चे ज़मीन पर पड़े चीं-चीं कर रो रहे थे ,दो अंडे टूटे पड़े थे उनका पीली पदार्थ ज़मीन बिखरा पड़ा था. .'
' अपने घर तो बढ़ाते जा रहे हो और हमारा छोटा-सा घोंसला ,जरा सी जगह में उसे नहीं रहने दिया..हमारे अंडे-बच्चे मर जाते हैं हमें भी दुख होता है ..'
मुकुल सिर झुकाये सुन रहा था .समझ नहीं पा रहा था क्या उत्तर दे .
गिलहरी बोल पड़ी,'
तुम-लोग घऱ बनाते हो तो कितना सामान पड़ा रहता  है ,और कितनी  गंदगी फैलाते हो तुम लोग हर जगह थूकना ,कूड़ा फैलाना और भी जाने-क्या-क्या..   ,'
नन्हा खरगोश अब चुप न रह सका ,'भगवान ने इन्हे सब के साथ मिल कर रहने की अक्ल क्यों नहीं दी अरे ये आदमी लोग बड़े स्वार्थी हैं.. .बड़े लालची हैं.'
'हम लोग तो ज़रा सी जगह में गुज़र कर लेते थे .तुम लोग चार-जनों के लिये कितनी-भी जगह घेर लो मन नहीं भरता .हमारे लिय न नदी का पानी पीने लायक रहा .सब गंदगी बहा-बहा कर खराब कर दिया हवा में तमाम धुआँ औऱ अजीब सी महकें ,सांस लेते नहीं बनता-कभी-कभी तो ..'
कौवे का कहना था   'ये धरती माता का दुलार सब प्राणियों के लिये है हमारे न होने पर इनका जीवन भी  कितना कठिन हो जायेगा ये नहीं जानते ये लोग .!
मुकुल को याद आया कि पशु- पक्षी इस धऱती के लिये बहुत उपयोगी हैं ,और पेड़-पौधों के बिना दुनिया उजाड़ हो जायेगी ..'.
इतने में उसकी नींद खुल गई .

सपना उसके ध्यान में था. .कभी पढ़ा हुआ एक  कथन उसके मन में कौंध गया -' यह धरती  एक कुटुंब है जिसमें सभी जीव-धारी एक दूसरे पर निर्भर हैं .'.
उसने सोचा कुछ -न कुछ करना ज़रूर पड़ेगा जिससे कि यहाँ सबका जीवन सुखी हो सके .

*.

बुधवार, 16 नवंबर 2011

काल-मृत्यु .


*
अभी तक  सुना करती था कि अमुक , उपायों से  अमुक रसायनो से या  अमुक (अष्टांग योग आदि की) साधना से -आयु बढ़ जाती है .मुझे आश्चर्य होता था कि संसार में जीव अपनी निश्चित आयु लेकर आता है ,गिनी हुई सांसें ,निश्चित अवधि .फिर इन उपायों से क्या विधि के विधान में व्यवधान आ जायेगा !
पर अब जाना कि मृत्यु दो प्रकार की होती है .काल-मृत्यु और अकाल मृत्यु .अकाल-मृत्यु रोग,से विष से या अन्य अनगिनती प्रकार से हो सकती है . बताये गये  सब उपाय शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और रखने के लिये हैं - अकाल मृत्यु से बचने का हर संभव ,सावधान प्रयत्न !
और काल-मृत्यु जन्म के साथ जुड़ा एक सत्य - सृष्टि का अनिवार्य नियम .
काल मृत्यु हमारे यहाँ ग्राह्य है , पूजनीय है (कालमृत्यू च सम्पूज्यो सर्वारिष्ट प्रशान्तये ').उसके प्रति भय या तुच्छ-भाव रख कर  भागने और  बचने का कोई लाख प्रयत्न करे, सब बेकार .यह विधान उन मनीषियों ने इसीलिये किया  होगा कि ऐसी मानसिकता का निर्माण हो और  जीवन का मान और गौरव इसी में कि  सहज-स्वाभाविक धर्म समझ कर इसे शिरोधार्य कर सकें .इसीलिये वैभव,शक्ति या विद्या-कला की साधना में भी यह भान भूले नहीं .और सचमुच शक्ति-त्रय में से किसी की भी (शक्ति ,लक्ष्मी और सरस्वती ) साधना में काल-मृत्त्यु का स्मरण विहित है (दुर्गासप्तशती में )- क्यों कि काल-मृत्यु देह का धर्म है .
 उद्देश्य यही होगा कि साधना के क्रम में और सफल होने पर भी व्यक्ति को अपनी असलियत का भान रहे ,और  व्यर्थ के अहंकारजन्य अरिष्टों का शमन होता रहे
ऊपरी उपाय ग्रहणीय हैं स्वस्थ और मुदित रहने के लिये .जीवन की क्वालिटी बढाने के लिये  .

इस पर सुधी-जनों के मत जानने की उत्सुकता रहेगी .
*

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

कृष्ण-सखी 13. & 14.


13.
कृष्ण पक्ष की अष्टमी .वातायन से आती चाँदनी अपनी श्यामता  एवं उजास भरी  कूचियाँ फेर स्वप्नलोक का निर्माण कर रही है .
समय का अविराम चक्र अपनी गति से घूम रहा है .पांचाली के दांपत्य में चार वर्ष बाद अर्जुन के आगमन  का क्रम .
अभी चल रही है उनकी दीर्घ अनुपस्थिति..पर किसी का साहस नहीं होता कि द्रौपदी का एकान्त भंग करे . बस एक कृष्ण हैं ,जिनका उस रिक्त वर्ष में प्रायः ही आगमन चलता है .और तब भाइयों के वार्तालाप से निवृत्त हो कर वे ,और दैनिक-चर्या संपन्न कर द्रौपदी  कक्ष के आगे दोनो अपनी पीठिका और चौकी पर आ बैठते हैं .
रात बीतती रहती है , उपवन के वृक्ष हवा में झूमते-हिलते हैं ,आकाश में तारों की महफ़िल ,जहाँ अक्सर चंद्रमा भी अपने समय-सुविधानुसार उपस्थित  हो जाता है .
कृष्ण से  संवाद बिना बहुत दिन होने पर विचित्र सी व्याकुलता घेर लेती है.
तब उस अकेले कक्ष में मन में छाई  रिक्तता को पूरने जाने कहाँ-कहाँ की स्मृतियाँ, ,भूले-बिसरे प्रसंग बाढ़ की तरह उमड़ते चले आते हैं ,जिनमें कहीं कोई तारतम्य नहीं . और भूल-भुलैया बनी -सी विगत की गलियों में भटकी फिरती है पांचाली . .
.जीवन के सामान्य क्रिया-कलापों के बीच  उन्हीं  बातों का बार-बार साक्षात्कार करते कहाँ -कहाँ के विचारों में डूबने लगता है पार्थ विरहित, अकेला मन !
ढमाढम् .ढमाढम्..दूर कहीं से ढोल-चंग बजने की आवाज़ें आ रही थीं उस शाम  .बीच-बीच में उत्तेजित आनन्द से उन्मत्त स्वर लहरी.
वनवासियों का कोई उत्सव है .सारी रात नाच-गाना .पुरुष-नारी दोनों अपनी  विशेष-भूषाओं में सजे ,मद पी कर मत्त .
कितना सहज जीवन है इन धरती -पुत्रों का, न कोई कुंठा न व्यर्थ की चिन्ता .वजर्नायें नहीं, सहज आडंबरहीन जीवन .
 'आदिवासी कितना उन्मुक्त जीवन जीते हैं ,'द्रौपदी ने कहा था.
'हाँ ,देखो न ,सीधा-सरल जीवन  ,उत्सवों का आयोजन. खुल कर नाचते -गाते प्रसन्न रहते हैं ,अंतर का राग व्यक्त होना चाहता है प्रकृति के परिवेश में उसी की अभिव्यक्ति है यह .दबाओ तो विकार बन  जायेगा . एक राह मिल जाए जहाँ  द्विधा रहित हो कर ,अभिव्यक्ति की छूट पा सकें .अंतर में कुंठा पनप नहीं पाये सब-कुछ सरल और सुगम .कितने सहज संबंध इनके और कितनी सरलता से जुड़ जाते हैं .'
कृष्णा का ध्यान कहीं और पहुँच गया -
 कोई ज्योत्स्ना-स्नात राका रही होगी जब  गोपेश ने यमुना तट पर रास का आयोजन किया होगा.
मन में शंका उठी थी कृष्ण के महारास पर.
उस दिन पूछ बैठी थी वह,' और तुम्हारा महारास - वह नृत्य-गान का उन्मुक्त आनन्दोत्सव ! मर्यादित  नागर-समाज में उच्छृंखल व्यवहार  की छूट लेना तो नहीं .. ?'
'उच्छृंखल नहीं सहज और स्वस्थ बना रहा हूँ समाज को .जहाँ एक को सारी छूट और दूसरे को सारे बंधन वह समाज स्वस्थ हो ही नहीं सकता . समाज के सभी लोग भाग लें. नर-नारी दोनों.निर्मल आनन्द.नृत्य और गान खुले परिवेश में ,और कृष्णे ,दुरुपयोग तो किसी भी वस्तु का किया जा सकता है .उसके पीछे सुन्दर संभावनाओं की खोज क्यों पीछे रह जाय ?'
 'समाज के नियमों से तटस्थ रह ,इतना उन्मुक्त आचरण  कैसे कर लेते हो तुम ?इतनी नारियों को सम भाव से आत्मीय कैसे बना पाते हो ?और सहज इतने कि किसी को आपत्ति का कोई कारण दिखाई नहीं देता ?'
' आपत्ति क्यों ?सहज-स्वाभाविक व्यवहार, कोई दुराव-छिपाव नहीं .'
कितना चंचल है मन . थिर रहता नहीं .पल में कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है.
वह उत्सव की बेला बिला गई ,सामने आ गई. जीवन की प्रस्तावना-कथा .विविध संदर्भ जाग गए ,सखा के साथ बीते किसी काल-खंड की  स्मृतियों में पहुँच गई.
 वही शब्द कानों में गूँजने लगे -
.'उन ब्रज वनिताओं ने अपने नेह-पारावार में मुझे आकंठ स्नान करा मेरे तन-मन को निर्मल कर दिया.  उनके गुणों से कितना अभिभूत हूँ . और इतना कृतघ्न नहीं  ,कि अपने अहं की तुष्टि के लिए  उनमें  कमियाँ ढूँढ-ढूँढ कर ढिंढोरा पीटता रहूँ  , नारी जाति के लिए   कृतज्ञता कैसे व्यक्त करूँ ? यह जीवन जिनकी देन है ,उन्हें जीवन के संतापों से किंचित भी मुक्ति दिला सकूँ  . खोलना चाहता हूँ ये बेड़ियां, कि वे खुल कर साँस  ले सकें .इसीलिए ये गान ,नृत्य ,रास, फाग ,झूला-हिंडोला कि जीवन में रस का संचार हो .आनन्द जो तिरोहित रह जाता है  उसका आस्वाद ले सकें ..'
विस्मय होता है पाँचाली को . समझ नहीं पाती नहीं कब क्या करेगा !
'नारी के प्रति तुम्हारी दृष्टि कितनी संतुलित है ,कितनी मानवीय !'
' मेरा इस प्रकार यहाँ होना , मेरा जीवित बच जाना ,उन्हीं के कारण संभव हुआ  .
 जो आज हूँ, उनकी ही देन ,एक ने वर्षों कष्ट और ,दारुण मनोव्यथाएँ  झेलते हुए मुझे जन्म दिया ,दूसरी ने अपनी सद्यजात-कन्या  दे कर मेरे जीवन  की कीमत चुकाईमेरे शैशव को अमृत-पयपान काराया ,वात्सल्य से सींचा,निश्छल स्नेह से मेरा जीवन सँवारा . ब्रजनारियाँ मेरी बाल-सुलभ मनमानी ,मेरे सारे उपद्रव सहज-विनोद भाव से सहन करती रहीं . सच्चा आनन्द तो उन्हीं ब्रज की गलियों में पाया मैंने ,उस गोचारण के  सहभोज जितना रस मुझे कहीं नहीं मिला वैसे सरलमना संगी फिर मेरे जीवन में  कभी नहीं आये .और सिर्फ़ तब नहीं ,आगे का सारा जीवन भी तो ..यह जीवन क्या मेरा रह गया . उन सब का अधिकार इस पर मुझसे  कहीं अधिक है .'
अपनी अभिन्न सखी से सामने अपना मन खोल देता है यह पुरुष जिसे लोग असाधारण ,अलौकिक समझते हैं .
 'मित्र हो तुम मेरी ,तुमसे क्या छिपाना .'
 कभी  बोलते-बोलते रुक जाता है  .लगता है जैसे कंठ भऱा आ रहा हो .
मुख बोले या न बोले पांचाली से कुछ गोपन नहीं रहता.
सहसा वह कह उठती है , ' यह तुम कह रहे हो वासुदेव ?'
'बस एक तुम .तुम्ही से कह पाता हूँ...'
उसकी एकान्त मनोव्यथा की साक्षी है केवल पांचाली .उसी के सामने खुल पाता है वह ,
'हाँ पांचाली ,मैं .हँसता रहता हूं ,इसका यह अर्थ तो नहीं ,कि अंतर में दुखन नहीं मेरे. ..इन परिस्थितियों में कोई होता ,...'
 'जनार्दन ,तुम्हें समझ रही हूँ !'
'सब ने क्लेश ही तो पाया ,किसे कुछ दे पाया मैं .किसे सुख मिला मुझसे ,बस अशान्ति ही तो ..'
नयनों में कैसी निर्लेपता छाई जा रही है .जैसे कहीं बहुत दूरियां माप रहे हों .  ऐसे विषम क्षणों मे पाँचाली को अपना दुख बहुत छोटा लगने लगता है .
 क्यों कहती है ,क्यों पूछती है इतना सब ?
देखती चले चुपचाप ,क्यों हर बात जानना चाहती है !मन ही मन स्वयं को  धिक्कारती है - क्यों जगा देती है इस आनन्दी प्रतीत होनेवाले पुरुष के मन की सोयी व्यथायें ?
 मुझे तो हमेशा कठिनाइयों से उबारा है इस प्राणसखा ने .
आश्वस्ति हेतु कुछ कहना चाहती है .पर क्या ? कहने को है ही क्या  !
और वह चुप सुनती रहती है .
'तुम सोच मत करो सखी  ,ये तो देह धरे के दंड हैं . शरीर ही काला नहीं जीवन-कथा के सारे अध्याय उसी रंग से रचे गये .जन्म से अब तक जिसके साथ रहा अशान्ति के सिवा उसे क्या भेंट दे सका .माता-पिता कभी चैन से रह सके.. .दोनों माता-पिता ?
 केवल उनका नहीं संपूर्ण नारी जाति का वह ऋण नहीं चुका सकता जिसने किसी न किसी रूप में मुझे जीवन भर सहेजा .उसे पराभूत होते देखना मुझे सह्य नहीं .
चिर-ऋणी हूँ मैं उसका . किसी का सहारा बन सकूँ किसी को प्रसन्नता दे सकूँ....'
सिर झुकाये सुन रही है द्रौपदी.
 'मैं भूल नहीं पाता अपनी भगिनी को ,जिसने मेरी जीवन-रक्षा हेतु  कंस का आघात झेला ,उस  शक्ति स्वरूपा का अपरिमित ऋण है मुझ पर ..'
'क्या वे .. उनका वध कर दिया कंस ने ?'
'बस यही संतोष है .मुझे जीवन देनेवाली वह शक्ति-रूपा मेरी भगिनी जीवित है .'
'अच्छा ! मैंने भी सुना था नंदबाबा  और यशोमति-माँ  के एक पुत्री जन्मी थी ..जो..कंस के हत्थे चढ़ गई? '
'उस समय यही प्रचारित किया गया था .कहीं कंस को भनक लग जाती तो रक्षण देने वालों का भी जीना मुश्किल  हो जाता.,देवकी- माँ  के अन्य शिशुओँ ,मेरे उन सहोदर भाइयों की भाँति कंस उसे मार नहीं पाया था .जब वह उसे घुमा कर पटकना चाहता था अचानक वह उसके हाथ से फिसल गई .उसने समझा कहीं जा कर गिरी होगी . बच कहाँ सकती है .
सात शिशुओं को पटक कर मार देने वाले नृशंस हत्यारा !
 कंस की दासियाँ भी उससे खिन्न थीं .और ऊपर से  कन्या का वध ,जघन्य पाप  ! नहीं ,अब हम नहीं होने देंगे यह अत्याचार .तय कर लिया था उन  ने . उनके मन में विश्वास जमा था कि आठवीं बार यह हत्यारा सफल नहीं होगा .यह संतान नहीं मर सकती ,कभी नहीं मर सकती.
आधी रात कन्या का आगमन - सूचना दी गई थी कंस को.
' ठठा कर हँसा था वह.सोते से उठकर चला आया .एकदम कोमल अवश कन्या का वध उसके लिये कौन कठिन काम ,
सद्यजात थी. वैसे ही रहने दिया परिचारिकाओं ने .गर्भ का तरल  यथावत् शरीर से लिपटा रहा. फिसलन भरा आर्द्र तन ,ऊपर से  तैल आलेप दिया उन लोगों ने .
उतावली में उसने ने उठा कर जैसे ही झटके से घुमाना चाहा  हाथ से एकदम फिसल गई .हड़बड़ाहट में अवधान रहित और भौंचक हुये कंस के सामने कई दासियाँ दौड़ आईं ,'अरे, कितनी त्वरा से ...एकदम दृष्टि से ओझल! किधर चली गई वह ...'कहते हुये दासियों ने उसका ध्यान बटा कर छिटकते शिशु को अति लाघव से झेल लिया,झुक कर चारों ओर खोजने के मिस हाथों-हाथ  गायब कर दिया .  .
'अरे ,कितना वेग आपके करों में महाराज.एकदम से कौंधी और ओझल !  दृष्टि विफल हो गई कुछ नहीं  दिखा किधर ,कैसे ? हम सब तो हत्बुद्ध रह गये  .'
भरमा गया कंस और बालिका को चुपके से विंध्याचल पहुँचा दिया गया. वही गोप-बालिका है विंध्यवासिनी !
( 'नंद गोप गृहे जाता,यशोदा गर्भ संभवा ,ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी .' -दुर्गासप्तशती)
वह जीवित है ,विद्यमान है , हमारे साथ है!
दोनों के प्रमुदित नयन मिले ,एक दूसरे के परितोष में मग्न , परम आश्वस्ति से आपूर्ण .
कोई कुछ बोल नहीं रहा .
 कैसी  अनिर्वच स्वस्ति के क्षण !
14.
'राधा का साथ ? एक बार ब्रजभूमि से निकला फिर वहाँ का सब कुछ स्वप्न बन कर रह गया, '
माधव ने कहा था.
'फिर कभी नहीं मिले तुम ?'
' हाँ ,मिला था  एक बार. प्रभास-तीर्थ में- बस एक बार !'
द्रौपदी सुनती रही ,मन की आँखों से देखती रही .
 सूर्यग्रहण ! प्रभास तीर्थ पर मेला लगा है .
कृष्ण आये हैं परिवार और  रुक्मिणी के साथ.उधर ब्रजभूमि से गोपों की टोली आई है .नन्द-यशोदा से वसुदेव-देवकी मिले . कितने कृतज्ञ .
रुक्मिणी ने बंकिम हास्य के साथ कृष्ण से  पूछा था ,'बरसाना की राधा के विषय में बहुत सुना है.  कहाँ है तुम्हारी वह बालापन जोरी,मुझे भी दर्शन करा दो .'
विचित्र सा उल्लास कृष्ण के मुख पर छाया था .
ब्रज-मंडल से आई टोली की युवतियों की ओर इशारा करते हैं
' वह ठाड़ी तहँ जुवति वृन्द मँह नीलवसन तन गोरी .'
(- सूरदास)
नीलांबरी राधा ! इस दुनिया की नहीं लग रही थी ,लगता था किसी दिव्यलोक से उतर कर आई है .,कृष्ण के नयन अपार अनुराग से भरे .उन्होंने अपने आप को पहले ही तैयार कर रखा था , जानते थे राधा आयेगी .
 रुक्मिणी देखती रही नयनो में ईर्ष्या कौंधी .
द्रौपदी  को ज्ञात था, कृष्ण ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था -राधा से मेरा दैहिक संबंध कभी नहीं रहा .मन की अंतरंगता थी ,परम मित्र के समान .उसने मुझसे कभी कुछ नहीं चाहा-बस देती रही ,अपार विश्वास और अपरिमित अनुराग . जैसी तब थी बल्कुल वैसी की वैसी है राधा !
भावनामय जीवन कभी जरा-जर्जर नहीं होता क्य़ा !युग-पर- युग ऊपर से निकलते चले जायें उसका राग मंद नहीं होता, उसकी ताज़गी कभी कम नहीं होती ?
 - और कैसे मिलीं राधा और रुक्मिणी - 'बहुत दिनन की बिछुरी जैसे एक बाप की बेटी'(सूर)
रुक्मिणी महलों में निमंत्रित कर लाई थी उस सरल हृदया को.
आतिथ्य के प्रति अति सजग  हो ,कृष्ण से पूछ-पूछ कर राधा की रुचियाँ जानी .
 भवन में उस कक्ष की सज्जा स्वयं कृष्ण ने करवाई . राधा के प्रिय पुष्प ,मोरपंख और बाँसुरी,जो बिदा के समय उसी ने  कनु को भेंट की थी, सजा कर रखे .कमल पँखुरियों से सज्जित कर अपने सामने उसकी शैया सज्जित करवाई. ,क्या पहनेगी ,क्या खायेगी ,कहाँ सोयेगी उसके एक-एक पल का विवरण उनके पास था .
कक्ष के वातायन से मनोहर उपवन की शोभा , कदंब और तमाल के वृक्ष ,ऋतु-पुष्पों सहित  तुलसी-मंजरियों  की गंध समेटे पवन के झोंके ,और चंद्र-ज्योत्स्ना का अबाध आगमन .
 कक्ष में मणि-रत्नों के नहीं , बस माटी का स्नेह-दीप .
निद्रा से पूर्व , भरका हुआ गौ-दुग्ध भिजवाना उसे -  स्वर्ण -रजत के नहीं ,काँसे के पात्र में ,
और सुनो रानी,हीरे-मोती पाटंबर सब उसके लिये व्यर्थ हैं - देना ही चाहो तो नीलांबर-पीतांबर और वनमाला ही अर्पित करना.
पटरानी का मुख देख कर बोले थे -बस एक ही दिन का आतिथ्य तो उसका  ,सारा वैभव -विलास और अधिकार तुम्हारा !
स्वयं रहे सारी व्यवस्थाओं में व्यस्त.
 राधा के आगमन के उपलक्ष्य में पुर की नवीन साज-सज्जा  करवाई गई ,अपनी बालसखी को रथ पर बैठा कर पुर का भ्रमण जो करवाना था .
   पर सौतिया डाह तो सगी बहनों में भी द्वेष भर देता है .
अपने कनु को देख मुस्कराई राधा .बोली कुछ नहीं .
कृष्ण के साथ द्वारका -भ्रमण कर लौटी थी ,उसके बाद भोजन किया माखन -मिश्री ,फल प्रिय थे उसे .
शैया पर विराजीं ,रुक्मिणी स्वयं दुग्ध का पात्र लेकर पहुँचीं ,'लो बहिन ,स्वामी को अब तक स्मरण है कि रात्रि शयन से पूर्व तुम दुग्धपान करती हो. कहीं चूक न हो जाये - उन का विशेष आग्रह है .'
 मन- मोहन के ध्यान में लीन राधा ने कृतज्ञ हो ,  मंद  स्मित पूर्वक  , रुक्मिणी के हाथ से  पात्र ले लिया .
रुक्मिणी खड़ी रहीं .
पास रखी वेदिका पर रखने का उपक्रम करते देख बोल पड़ी , 'विश्रान्त लग रही हो  ,बाल सखा के साथ नगर-भ्रमण करते थक गई होगी!.. कहीं ऐसा न हो दुग्ध धरा रह जाय और तुम निद्रालीन हो जाओ .नहीं, मैं यहीं खड़ी हूँ ,पात्र ले कर ही जाऊँगी .'
'कितना कष्ट कर रही हो मेरे लिये ,' उपकृत थी  राधा शैया पर स्थान बनाते हुये बोली ,'बैठो बहिन .'
' नहीं अब चलूँगी ,स्वामी की सेवा करनी है .तुम शयन करो .'
अनुरोध का मान रखा राधा ने  झटपट दूध पी लिया .
*
 रात में रुक्मिणी ने पाया कृष्ण के चरणों में छाले पड़े है .
'क्या बिना उपानह पैदल पुरी घुमाते रहे उन्हें जो चरणों में ये छाले डाल लाये ?' वाणी में किंचित तीक्ष्णता थी .
पत्नी की मुख- मुद्रा देखते रहे कुछ पल  ,उनके मन में क्या चल रहा है , वह नहीं अनुमान पाई .
'तुमने राधा को इतना गर्म दूध पिला दिया ?'
सारे किये- धरे पर पानी फिर गया हो जैसे - रुक्मिणी एकदम हतप्रभ .
कृष्ण ने द्रौपदी से कहा था ,''सखी ,वह ताप ,'मेरे हृदय को अब तक दग्ध कर रहा है. '
पर तब रुक्मिणी से कहा था ,',उसे इतना गर्म दुग्ध क्यों पिलाया तुमने ?
पत्नी ने सफ़ाई दी ,'मेरी ऐसी कोई योजना नहीं थी .गर्म दूध दिया था इसलिये कि वह खोई सी रहती हैं ,विलंब से पियेंगी तो भी ठंडा नहीं होगा .इतनी बेखबर रहती हैं मुझे पता नहीं था .'
फिर कुछ नहीं कहा था कृष्ण ने .
उस रात वे सोये कहाँ ?
जाने कब की सेंती धरी बाँसुरी निकाल लाये  .और कुंज- भवन में चले गये.
रह-रह कर सारी रात बजती रही बाँसुरी - धीमे-धीमे स्वर ,
कैसा आकुल राग?
राधा सो रही है .कितनी आश्वस्त, कैसी  गहन शान्ति के ज्वार में डूबी.
ऐसी विश्राम भरी निद्रा कभी आई थी क्या? बीच में आई किंचित् सजगता, आभास देती है कान्हा का, यहीं- कहीं  आस-पास है वह  .विलक्षण तृप्ति से भरा  मन  .बाँसुरी की आकुल तान ,थपक  बन बन , फिर-फिर  तन्द्रा में खींच ले जाती है .
वातायन से आती शुभ्र चन्द्र-रश्मियाँ  उस मीलित पलकों वाले निद्रित मुख का प्रक्षालन करती बही चली आ रही हैं .कक्ष में सब-कुछ अपार्थिव  हो उठा है .
उसी मनोभाव  में आत्मविस्मृता  पांचाली जाने कब निद्रा-लीन हो गई .
(क्रमशः)


बुधवार, 2 नवंबर 2011

कृष्ण-सखी - 11.& 12.


11
एक उन्हीं का तो सहारा है द्रौपदी को.
क्या कुछ घटना क्रम है ,कैसे अपने व्यक्तित्व को निरंतर माँज रहे हैं ,रगड़-रगड़ कर और और परिष्कृत कर रहे हैं .अर्जुन का कब, कहाँ, क्या, सब जानना होता है कृष्णा को .
और साथ में चलती हैं दुनिया भर की चर्चायें .
स्थान होता है कृष्णा के कक्ष के आगे का भाग ,उसका प्रिय स्थान . चौकी पर गोविन्द और पीठिका पर पांचाली .सामने वाटिका है - ऋतु के पुष्प-पत्रों से सुसज्जित.
वृक्षों से झरते हवा के झोंके ,पुष्प-गंध लिये चले आते हैं .
आकाश मेघाच्छन्न हो तो मयूरों का नर्तन ,और एक बार तो एक मोर-पंख पांचाली के पास आकर गिरा .
अर्जुन के विस्तृत समाचार लेकर जब कृष्ण  का आगमन होता है ,चारों भाई परम उत्सुक हो उठते हैं- चेहरे पर आई प्रसन्नता छिपाये नहीं छिपती ..बहुत सत्कार करते हुये घेर लेते हैं उन्हें .
तुरंत पुकार होती है ,' पाँचाली कहाँ हो  ,देखो तो कौन अतिथि आये हैं !'
अर्जुन की नई उपलब्धियाँ सुनते भाइयों की छाती फूल उठती है.'अब दुर्योधन और शकुनि की चालें कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगी .हम समर्थ हो गये हैं कोई भिड़ने की हिम्मत नहीं करेगा. अनेकों स्थानों , तीर्थों का भ्रमण किया कितनों से मैत्री जुड़ी,कितनों से संबंध .वहाँ सुदूर पूर्वी प्रदेशों की नारियाँ जिनके नेत्र-नासिका आदि मुखावयव बिलकुल भिन्न .वहाँ के सौन्दर्य के प्रतिमान भिन्न हैं .
द्रौपदी जानती है किरात परिवार की - मुँदी-मुँदी आँखें.ऐसी एक सपत्नी मिली है - चित्रांगदा.कभी न कभी तो आयेगी .
शूल -सा चुभा हृदय में .
पर ठीक तो है .मैं भी तो जीवन को भोग रही हूँ और वह इस लंबी अवधि में बिलकुल वंचित रहेगा क्या ? कुछ तो राग-रंग तो जीवन में चाहिये ही .
एक दम ध्यान आया ,एक युठिष्ठिर और एक अर्जुन ! कितनी भिन्नता है दोनों में .और हो भी क्यों न - वे धर्म राज - कभी विचलित होते नहीं देखा ,न कभी उद्विग्न ,कुछ होता रहे उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता . शान्त- संयत, परम नीति परायण, सत्यवादी - सोचते-सोचते कुछ अटकती है और बहुत से धीरोदात्त होने के गुण . हाँ , यह तो सभी  मानते हैं .
और धनंजय ? इन्द्र का अंश -स्वच्छंदता स्वभावगत . सौंदर्य का भोगी और रसज्ञ - धीर-ललित! पर भाई के सामने सदा मर्यादित .यह भी जानती है वह कि भीम में थोड़ा औद्धत्य है ,वेग-आवेग से युक्त .वायु की संतान जो हैं . शेष दोनों अपने ढंग के , छोटे पड़ जाते हैं. सारे भाई कितने भिन्न .फिर भी सदा एक साथ !
सब के साथ संयत बनी ,सारा कुछ सुनती रहती है .

'अब तुम भी विश्राम करो ,बंधु ' कह कर बड़े भैया उठ जाते हैं,

भोजन के पश्चात लेटने का उनका नियम है .और भाई भी धीरे-धीरे उठ लेते हैं
इसी क्षण की प्रतीक्षा रहती है उसे ,पूरा अवकाश होता है मीत से मनमानी बातें करने का . सखा से पूछने में काहे का संकोच .कृष्ण समझते हैं उसकी व्याकुलता , द्रौपदी छोटी-से छोटी बात जान लेना चाहती है !
मणिपुर की राजकन्या चित्रांगदा के रूप पर मुग्ध अर्जुन ने चित्रवाहन से अपनी कामना प्रकट की .पिता ने अपनी शर्त सामने रख दी -हमारे कुल में एक ही संतान जन्म लेती है .चित्रा यहीं रहेगी ,और उसकी संतान भी ननिहाल में .
चलो यह भी ठीक -याज्ञसेनी ने सोचा .
धनंजय ने कहा है ,'अश्वमेध के अवसर पर आने के लिये .'
' हाँ ,उचित है .'
कर्ण का उल्लेख हमेशा टालने का यत्न करती ,पर कभी -कभी उन चर्चाओँ में  वह साक्षात् खड़ा हो जाता- पांचाली में  कुछ नये संताप जगाता हुआ.
ऐसे ही एक वार्तालाप में कृष्ण ने कहा था-
जब किसी की वास्तविकता नहीं जानते हम तो आक्षेप करने का क्या औचित्य ? उसका व्यक्तित्व क्या उसकी कुलीनता  का आभास नहीं देता .अपने जन्म का प्रमाण  कोई कहाँ से लाएगा ? एक शृगाल के कुल में क्या सिंह पैदा हो सकता है !'
और  कहा था ,'हाँ, मैं भी कहीं जन्मा कहीं पला ,मेरे माता-पिता का पता न होता तो और  मेरे साथ भी यही सब होता ...!.. .
'तुम अग्नि संभवा हो पर प्रखरता में वह तुमसे कम नहीं.कोई कमी ,कोई तुच्छता कभी दिखी क्या उसमें ? मुझे तो लगता है इन राज-पुरुषों से अधिक संभ्रान्त है वह .'
कृष्णा बड़ी उलझन में पड़ जाती है .अब यह सब कह रहे हैं पर उस दिन क्या हो गया था ?
इतनी विशेषतायें गिना रहे है ,कभी किसी कमी की चर्चा नहीं की .फिर क्यों ....वह पूछना ,चाहती है -उस दिन क्यों इसी मुख पर असंतोष की रेखायें उभर आईँ थीं .मेरी दृष्टि ने प्रत्युत्तर में अनुकूलता क्यों नहीं पाई थी ?.
' मैं तो दोनों में से किसी को नहीं जानती थी गोविन्द , ' उस दिन कह ही डाला कृष्णा ने
 'कितनी बातें सुनी थीं कर्ण के विषय में,अज्ञात कुल-शील ,दुर्योधन का कृपा पात्र ,सारथी की आजीविका ...और अर्जुन,सव्यसाची , इन्द्र का अंश ,कृष्ण का बंधु,अद्वितीय धनुर्धर ,और भी जाने-क्या-क्या जिसकी गौरव-गाथा गाते पिता थकते नहीं थे .'
' कृपा पात्र? कर्ण ?दुर्योधन का ! कर्ण के,ऐसे अप्रतिम योद्धा के ,परम वीर के  संरक्षण में आ गया वह... अरे निश्चिंत हो गया वह .अर्जुन की टक्कर का और कौन था यहाँ ?'
'इतनी प्रशंसा करते हो उसकी और तब तुम्ही अनुकूल नहीं थे .जब कर्ण  मत्स्य-बेध हेतु शर-संधान हेतु तत्पर हो गये . तुम्हारी दृष्टि क्यों मुझे बरज गई थी ?
कृष्ण मौन रहे .द्विधा में रहे कुछ समय.
फिर बोले- ,'हाँ  ..तुम्हारे जन्म का जो निमित्त था वह तो पूरा होना था पांचाली .
सारे सरंजाम इसलिये रचे गये थे कि महाराज द्रुपद को अर्जुन  ही अपने जामाता के रूप में स्वीकार था .उनका सारा आयोजन इसीलिये था .ये कर्ण जाने कहाँ से आ गया तब कौन जानता था किसी को अनुमान भी नहीं था कि वह बीच में कूद पड़ेगा .'
' ..और मैंने क्या सोचा ..क्यों नहीं चाहा कि वह जीत ले शर्त . वह भी सुन लो .दुर्योधन ने आगे बढ़ कर  कर्ण को अपनाया अपने समान स्तर पर ला कर उसे अपना मित्र बनाया .जिस भी कारण से हो लेकिन उसे पद और प्रतिष्ठा देने वाला वही था .कर्ण क्या  कभी यह भूल सकता था ?
'उसके बिना क्या था कर्ण ?किसने मान्यता दी थी उसे ?किसने उसकी क्षमताओं को पहचाना ? बस एक दुर्योधन ने  .वैसे भी कर्ण स्वार्थी नहीं ,अपना सब कुछ देकर उऋण होने का प्रयत्न करनेवाला .जिसने मान-सम्मान दिया ,पहचान दी उस मित्र के लिये वह कुछ भी करने से चूकेगा नहीं .उसी मित्र के मन में तुम्हारे प्रति लालसा जान कर वह तुम्हें स्वयं स्वीकारता क्या ?नहीं . वह तुरंत उस की कामना पूरी करता .और यह मैं नहीं चाहता था कृष्णा ,कि तुम उस कुटिल-मति की सहधर्मिणी बनो '

' लेकिन तुम इस प्रकार उसे अपमानित कर निकालोगी यह भी नहीं सोचा था .बाद मे  घटना- चक्र ने जो मोड़ लिया उसकी कोई संभावना  मुझे नहीं थी .तुम्हारे मन में उसके प्रति इतनी विरक्ति ,इतनी वितृष्णा कहाँ से आ गई ,याज्ञसेनी ,जब तुम  उसे जानती तक नहीं थीं ?
वैसे जानती तो तुम  पार्थ को भी नहीं थीं .'
एक उसाँस ली द्रौपदी ने ,' हमेशा दाँव पर लगा रहा यह जीवन !पिता , सासु-माँ ,और पति भी . सब अपना-अपना सोचते रहे .मेरे लिये कभी किसी ने नहीं सोचा..कैसी दुरभिसंधियों से घिरी रही !
कभी-कभी लगता है सब शामिल हैं उसमें .एक साथ ये पांचो   -इनका भ्रातृत्व का रिश्ता सबसे ऊपर है - मैं सब के लिये गौण रह गई हूँ  ...समझ नहीं पाती  किसका आसरा करूँ   ...'
'ऐसा न कहो सखी ,स्थितियाँ ही ऐसी विषम हैं. कोई करे तो क्या करे ?..पर मैं  हूँ न ,   वन में हो चाहे पुर में . देखो ,स्मरण करते ही दौड़ा चला आता हूँ .
'बस एक तुम ही तो ..यहीं  कुछ चैन पाता है मन .
.मेरा सहारा बस तुम हो गोविन्द !'
*
11.
'उलूपी -ऐरावत वंश के कौरव्य नाग की कन्या.. .'
चारों भाई कृष्ण को घेर कर बैठे  हैं .पांचाली आ चुकी है. खिड़की के पास  चौकी पर उसका निश्चित स्थान है
'उनका निवास तो पाताल में था,' नकुल बीच में बोल उठे .
सहदेव के नयनों में भी प्रश्न की झलक.
' धरती पर आना-जाना लगा ही रहता है .और धनंजय ही कहाँ एक जगह टिकनेवाले .उलूपी एकाकिनी थी .' कृष्ण ने समाधान किया.
'एकाकिनी ?'
'हाँ ,पारस्परिक शत्रुता में गरुड़ ने उसके पति को अपना ग्रास बना लिया था.'
सब सुन रहे हैं ,
'हाँ , यौवन-संपन्ना अकाल वैधव्य-प्राप्त उलूपी,.. पर अब नहीं. अब वह है धनंजय की सौभाग्यवती पत्नी . '
 सब चौंक गये .एकदम चुप्पी छा गई .
मौन भंग किया भीम ने -
'..तो क्या हुआ ? भइया कृष्ण  ने भी तो जानते-बूझते उन सोलह सहस्त्र अभागिनियों को सौभागिनी बनाया ..कौन सा दोष था उनका ?'
'अपने हित में नहीं.. ,' कृष्ण का स्वर था ' कितना अन्याय हुआ था उनके साथ .वे सोलह सहस्र निरपराध अपहृतायें सामाजिक बहिष्कार का जो दुसह दुख भोगतीं और जीवन भर वंचनायें सहतीं ,उनका संताप आने वाले युगों को  विकृत कर देता.कितने युग अभिशप्त  हो जाते कौन जाने...'
 द्रौपदी सुन रही है चुपचाप
' बहुत समर्थ नारी है उलूपी  .अपनी साधना से संजीवनी मणि प्राप्त करनेवाली  !'
किसी को कुछ कहना नहीं ,सब सुन रहे हैं   ,वासुदेव के स्वर गूँज रहे हैं  ,
'....इधऱ .आप लोगों को व्यापक समर्थन और सहायता चाहिये . हर संभव  प्रयत्न कर रहे हैं धनंजय..इस संबंध से उन्हें जलचरों के स्वामी होने का वरदान मिला है .कितनी सामर्थ्य बढ़ा रहे हैं अपनी !'
'उचित किया अर्जुन ने ,' युधिष्ठिर बोले थे -'अकेले रह कर कौन ,क्या कर सकता है ?'
','कितने अलग-थलग पड़ गये थे हम लोग .अब देखो न उधर मणिपुर तक हमारे संबंधी और इधर यह नागवंश भी हमारे साथ हुआ .दूरदर्शी है हमारा भाई .' युधिष्ठिर संतुष्ट हैं .
द्रौपदी की ओर देखा है कृष्ण ने -
'सारे विवाह ,विवाह कहाँ ?एक समझौता बन जाते हैं .राजाओं के साथ तो और भी .समर्थन जुटाना है ,शक्ति बढ़ानी है .जिससे अवसर आने पर सहायता के लिये बहुत से  हाथ  आगे बढ़ आयें .
भाइयों के  मुख पर आश्वस्ति के भाव हैं.
तभी परिचारिका ने प्रवेश कर भोजन हेतु कक्ष में   पधारने का निवेदन किया.
द्रौपदी उठ खड़ी हुई , 'तनिक .उधर की व्यवस्था देख लूँ .'
कृष्ण  समझ रहे हैं सखी की मनस्थिति .
*
12.
'क्यों सखी, तुम्हारे तो तीन ही सपत्नियाँ हैं ,वे भी साथ नहीं रहतीं -शासन  तो तुम्हारा चलता है सब पर , पार्थ के तो और चार सहपति ..'
'बस चुप करो ,वे सहपति नहीं भाई हैं सब .जब भाई साथ होते हैं तो पत्नी किसी की नहीं  ,सब छुट्टे .'फिर कुछ रुक कर पांचाली ने जोड़ दिया, 'बँधी रहती है बस पांचाली , .बिना भेद-भाव ,सबकी परिचर्या का व्रत धारे  .'
'धीर धरो याज्ञसेनी, जीवन की परिस्थितियों पर हमेशा हमारा बस नहीं रहता...आगे के लिये सोच-समझ कर व्यवस्था करना ही दूरदर्शिता कहलाती है .'
वह चुप रही .वासुदेव ही कहते रहे -
'यहाँ  तुम्हारी राह में  कोई नहीं ,न ही  कोई उस पद की दावेदार .और लाभ सारे अपने .उन दूरस्थ सपत्नियों के पुत्र हैं.उन सब का होना पार्थ के लिये कल्याणकारी होगा. हम सब के लिये भी . सहायता के लिये तुरंत दौड़े आयेंगे .कौन जानता है आगे किस स्थिति से सामना करना पड़े ..'
द्रौपदी जानती है .चित्रांगदा का पुत्र वभ्रुवाहन - भाइयों को उत्सुकता थी कब देखने को मिलेगा .
पर उसके लिये मणिपुर नरेश की शर्त थी- उनके परिवार में एक ही संतान होती है , अतः पुत्री और उसकी संतान वहीं  रहेगी, वहीं पलेगी ,.विशेष अवसरों पर आना-जाना बस .और उलूपी का इरावान - वह तो छोटा है अभी .
कृष्ण की बात कितनी सटीक है समझ रही है वह.
 सुभद्रा का ,अभिमन्यु का कितना बड़ा सहारा है हम सबको?
 सुभद्रा  नहीं होती तो ?बचपन से उन्हीं के यहाँ पले हैं द्रौपदी के पाँचो पुत्र .
इतनी सुख-सुविधायें ,इतना अपनत्व ,ननिहाल का मान-सम्मान मिल पाता क्या ?
बहुत ठीक किया था वासुदेव ने.
दुर्योधन अपने वाग्जाल ,और धूर्तता से ,भोले बलदाऊ को  बहका कर अपने अनुकूल बना लेता है ,और वे उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ कर पांडवों पर ही क्यों ,कृष्ण से भी कुपित हो जाते हैं .उन्हें साधना तो  बहुत ज़रूरी था .
सुभद्रा के उपयुक्त वर थे अर्जुन ,नहीं तो दाऊ कहीं दुर्योधन की चाल में आकर बहिन को ग़लत हाथों में सौंप देते तो ?.समझ रहे होंगे कृष्ण .तभी सुभद्रा-हरण की योजना बना दी .अब लाड़ली बहिन के पति से कहाँ तक विरोध  कर पायेंगे दाऊ!
वाह रे, कृष्ण क्या एक ही वार से दो निशाने साध लिये .
और सुभद्रा -सरल,स्नेहमयी ,गोपकन्या ,कृष्ण की भगिनी .द्रौपदी के आड़े कहीं नहीं आती .साथ में रहती भी कितना कम है ,प्रायः ही मायके जाती-आती हुई ..
कहता तो ठीक है, विवाह भी आवश्यकता बन जाता है ,और कितनी समस्यायओं का समाधान भी .केवल भोग की इच्छा वहाँ नहीं रहती  .
और ये मोहन सारा कुछ  ऐसी आसानी से कह जाता है .
ऊपर-ऊपर से लगता है बेकार में बोल रहा है पर वाणी प्रतिफलित हो जाती है इसकी.जाने कौन सी बात कहाँ जाकर यथार्थ में परिणत हो जाये !
पर कभी-कभी  खीझ जाती है द्रौपदी -
अरे ,ये बचपन से ऐसा है - टेढ़ा ! कब क्या करेगा कोई ठिकाना नहीं !
सोचती ही रह जाती है - भवितव्य इसे व्याप जाता है या इसके मुँह से जो निकल गया वह सच हो जाता है -
लगता है छलिया ,पर इसका कोई काम निरर्थक हुआ है कभी क्या !
*
(क्रमशः)


सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

कृष्ण सखी - 10.


10
कैसे हैं, कहाँ हैं अर्जुन ?
 कृष्णा का मन बार-बार पुकारता है !
कृष्ण समझते हैं सखी की मनोव्यथा - और तब राज-रनिवास सब पीछे रह जाता है.
बराबर मित्र की खोज-खबर रख रहे हैं कि वह कहाँ है ,किस हाल में ,क्या कर रहा है.
वनवास चल रहा है साथ ही  साधना  का अविराम क्रम .देश-देशान्तर भ्रमण करते जीवन के गहन अनुभव बटोर रहे हैं धनंजय ,अपने व्यक्तित्व को माँज-माँज कर और चमका रहे हैं .
पर एक निरंतर कथा चलती रहती है मन में .  पुरानी स्मृतियाँ कौंध जाती हैं .-
उस दिन लक्ष्य-बेध के उपरान्त पांचाली ने धनंजय का वरण किया था .
सारे भाई जब घर  पहुँचे तो आगे रहे  युधिष्ठिर ने आवाज़ लगाई ,'देखो माँ ,आज हम क्या वस्तु लाये हैं ?'
माता कुन्ती किसी कार्य में व्यस्त थीं ,आने में कुछ विलंब होना जान, हमेशा जैसा उत्तर  देतीं थीं,  वे अंदर से ही से बोलीं   ,'सब भाई मिल कर बाँट लो.'
विस्मित-चकित पाँच जन ,छठे युठिष्ठिर सदा की तरह मौन-शान्त,निरुद्विग्न  !
नीतिज्ञ , संयत, विचारवान धर्मराज !
("मैं भीष्म बोल रहा हूँ' में श्री भगवती चरण वर्मा ने कथन- कर्ता युधिष्ठिर को बताया है)
पाँच ब्राह्मण कुमारों का दैनिक भिक्षाटन नहीं था ,यह दान में मिली चीज़ नहीं थी  ,वीर्य-शुल्का कन्या अपनी सामर्थ्य से जीती थी पार्थ ने .
बड़े भैया के धर्म और नीति को कई बार समझ नहीं पाते पर चुप रह जाते हैं .
.
कुछ बातें पूछी नहीं जा सकतीं, बस मन में दबी की दबी रह जाती हैं .
अरे,यह सब तो पांचाली से भी नहीं कह सकते !
नहीं , किसी से भी नहीं !!
परस्पर का विग्रह सदा बचाना होगा .
आज सोचते हैं , नवागता पांचाली को कैसा अटपटा लगा होगा ?
 विस्मय की रेखायें और प्रश्न के चिह्न पांचाली के मुख पर भी उभरे देखे हैं और दृष्टि बचा गये हैं पार्थ .मेरे ही कारण तो झेल रही है इतना कुछ !
कितनी समझ -कितनी सद्बुद्धि-सहृदयता है और कितना गहन गांभीर्य ! मन ही मन कृतज्ञता का अनुभव करते हैं वे .एकाकी विजन में भटकते  वह पुराना सब अचानक ही कौंधने  लगता है .
टिक कर कैसे रह पायें कहीं .अशान्त मन को समेट कोई नया उद्देश्य ढूँढते और चल पड़ते आगे .
इस परम मित्र की पूरी खोज-ख़बर रखते हैं गोविन्द कि पूरा विवरण देना होगा प्रिय सखी को .
 * 
(क्रमशः)

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

कृष्ण सखी .- 9.


9
अर्जुन वनवास पर हैं, बारह वर्ष के लिये.
द्रौपदी का मन कभी-कभी बहुत अकुलाता है .पर यह दुख किसी से नहीं बाँट सकती - चार पति  हैं न ! व्याकुलता क्यों ?
हरेक को लगेगा, हम हैं तो !
वे समझ नहीं सकते .मैं समझा नहीं सकती .चुप रहना है बस .
पार्थ ,कैसे बीतेंगे  बारह साल तुम्हें देखे बिन ?तुम्हें रोक नहीं सकती  कि मत छोड़ जाओ ऐसे .मैं तो  साथ भी नहीं जा सकती , कैसे बीतेगी यह दीर्घ अवधि? तुम्हें पुकारे  बिना कैसे रहूँगी !
कौन सा अपराध किया था पार्थ ने ?कर्तव्य परायण अर्जुन की सदाशयता ही उसे दंडित कर गई .
सारा परिदृष्य पांचाली के नेत्रों के आगे घूम गया -
कक्ष में युधिष्ठिर के साथ है द्रौपदी .
ऐसा लगा बाहर कुछ शोर उठ रहा है  . लोगों के दौड़ने- भागने की आवाज़ें भी -
युधिष्ठिर उठे ,वातायन के कपाट पूरे खोल बाहर झाँकने लगे.
 आवाज़ें अब अंदर भी सुनाई देने लगी हैं -
'अरे,अरे हमारी गउएँ ..वे खींचे लिये जा रहे हैं '..'है कोई क्षत्रिय-पुत्र ,जो उन आतताइयों से  बचा ले ...' 'वे खींचे लिये जा रहे हैं.''अरे ..रे  भाई को घायल कर दिया..अरे कोई है.'.'बचाओ ,बचाओ ,कोई हमारी गौओं को बचाओ.. ''मार डालेंगे वे उन्हें ..,'
 अचानक अर्जुन ने वेग से कक्ष में प्रवेश किया ,दृष्टि खूँटी पर टँगे अपने अस्त्रो पर जमी है .त्वरित गति से शस्त्र उतारे और एकदम पलट कर बाहर निकल गये .
युधिष्ठिर पलटे थे कुछ कहने को तत्पर  ,'अर्..' निकला था मुख से पर शब्द पूरा होने से पहले ही अर्जुन जा चुके थे .
'तुमने रोका नहीं पांचाली?
कुछ समझने-सोचने कहने का अवसर ही कहाँ दिया ?किसी और दिशा में देखा भी नहीं था अर्जुन ने .विस्मित बैठी रह गई द्रौपदी. .
'कुछ कहा उसने .?'
'कहा ?उसने देखा तक नहीं .बस हवा का झोंका जैसे आये और निकल जाये..'
'मैं समझ गया ...कर्तव्य में वह कभी नहीं चूका ,और आज भी..'
*
फिर अर्जुन ने कक्ष में अनधिकार प्रवेश का दंड स्वीकार लिया.
पहली आपत्ति बड़े भइया ने उठाई -
मेरे कक्ष में तुम्हारा प्रवेष-निषेध कैसा !
युठिष्ठिर ने कहा था ,'बंधु,मैं अग्रज हूँ ,मेरे कक्ष में तुम कैसे वर्जित हो सकते हो . यह मर्यादा तो बड़े भाई के लिये है कि छोटे भाई के दाम्पत्य-एकान्त में प्रवेश न करे.
बड़ा भाई तो पिता समान होता है .नहीं भइया नहीं .किसी को कुछ गलत भी लगे तो मैं क्षमा करता हूँ .जब मुझे ही आपत्ति नहीं तो फिर यह सब क्यों ? क्यों द्रौपदी ?
 ' और फिर इनकी दृष्टि -वही लक्ष्य-बेध वाली , अपने शस्त्रों पर एकाग्र ,कक्ष के और कुछ  पर दृष्टि भी नहीं गई .'
सब समझा रहे हैं- तुमने अपना धर्म निभाया कोई अपराध नहीं किया .
शस्त्र के बिना कैसे चलता .तुमने हम सब को अकल्याण से बचाया ,तुम गये ,अपने आयुध ले कर चले आये.हम सब के हित के लिये  .
पर अर्जुन को स्वीकार नहीं  -
'ये सब बहाने हैं, मुझे दंड से बचाने के लिये .नियम सबके लिये एक सा .क्या बड़ा ,क्या छोटा .अपराध जग विदित है .नहीं ,मैं नहीं मान सकता .'
 दंड शिरोधार्य कर वनवास की दीक्षा ली और चल दिए.
पांचाली का  अंतर हाहाकार कर उठा.
बारह वर्ष -पूरा एक युग! और मैं तो तुम्हें रोक  नहीं सकती .तुम्हारे साथ जा  नहीं सकती ,धनंजय.मत छोड़ जाओ ऐसे !
सब ने देखा ,सब ने समझा तुम्हारे जाते समय मेरी उद्विग्नता और तुम्हारी भी .
और हर एक को  लगा  - मैं थओ . फिर यह  व्याकुलता क्यों ?
मेरा प्रथम पुरुष वही और उसकी प्रथम स्त्री मैं .बाकी हिस्से-बाँट तो बाद में हुई ,
पार्थ, कैसे बीतेंगे ये बारह साल  बिन तुम्हारे !
और उन सबकी अपनी पत्नियाँ नहीं क्या ?वहाँ तो मैं कहीं नहीं .
हाँ ,धनंजय की भी हैं .तो क्या बारह वर्ष ब्रह्मचारी रहता ?कितनी तो उस पर मर मिटी होंगी .मेरा पार्थ है ही ऐसा.उर्वशी का प्रणय-प्रस्ताव अस्वीकार कर सके जो और बदले में शाप स्वीकार ले .है कोई ?
तुमने विवाह किये कृष्ण से सूचना मिलती थी .मुझे अच्छा लगा ,मैं भी तो यहाँ जीवन को भोग रही हूँ.
कैसे दोष दूँ उसे ?
बरस पर बरस बीतते जाते हैं .वैसे  रात में न सही दिन में तो पार्थ को देख लेती थी बीच-बीच में वार्तालाप हो जाता था .और अब यह दीर्घ अवधि .चार वर्ष बाद अर्जुन की बारी आती थी -एक वर्ष के लिये केवल ,उनकी होती थी मैं वह मेरे होते थे  वे ,उतना ही अपना भाग समझ कर मन को समझा लिया था .पर...विधाता को उतना भी स्वीकार न हुआ .
भाइयों पर कोई अभिशाप पड़े तुम से देखा नहीं जाता  .
पार्थ , तुम क्यों हो इतने कर्तव्यपरायण ,इतने स्नेही ,इतने सहृदय !


*
(क्रमशः)

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

या सत्वैकगुणाश्रया साक्षात् सरस्वती ....


*
    वसन्तागम हो रहा है .धरा नवल परिधान धारण कर रही है, दिशाएं सौंदर्य-सज्जा में व्यस्त,आकाश की मुस्कान- तरंगें  क्षितिजों तक व्याप्त हो गईं .
    देवि सरस्वति ,
तुम्हारे आगमन का संदेश पा धरती पुलक से भर गई है!
     हे सर्व-कलामयी ,तुम्हारी अभ्यर्थना  की तैयारियाँ हैं ये . शीत की  रुक्ष विवर्णा धरती पर तुम कैसे चरण धरोगी ? पहले पुलकित धरा पर हरियाली के  पाँवड़े बिछें , विविध रंगों के पुष्प वातावरण को सुरभि- सौंदर्य  से आपूर्ण करें,दिग्वधुएँ मंगल-घट धरे आगमन -पथ में ओस-बिन्दु छींटती अर्घ्य समर्पित करती चलें, पक्षियों के स्वागत-गान से मुखरित परिवेश  हो ,निर्मल नभ शुभ्र आलोक बिखेर तुम्हारे स्वागत को प्रस्तुत हो तब तो तुम्हारा पदार्पण हो !
 तुम्हारे अभिनन्दन में  मधुऋतु एक नई कविता रच रही है.जीवन्त कविता, जिस की नित्य नूतन सौंदर्यमयी चित्रमाला भू-पटल पर अंकित होने लगी है.
प्रकृति के ऋतु-काव्य की चिर-पुरातन ,चिर- नवीना स्रोतस्विनी अनवरत बह रही है . वही तन्मय भाव पुनर्नवीन हो  काल के  पृष्ठों पर चित्रात्मक लिपियों में अंकित हो रहे हैं .अँगड़ाई से चटकती देह लिए कलियों का उन्मीलन करती , रंग बिखेरती तितलियों का मुक्त विहार ,मत्त भ्रमरों की गुंजित मनुहारें, रोमांच भरता मलयानिल का परस ,तुम्हारे अगवानी के सजीले दृष्यांकन हैं .दिशाओँ ने कोहरे की चादरें समेट ली हैं .स्वच्छ  सुनहरी किरणें पर्वत शिखरों का अभिषेक करती बड़े भोर से उतरने लगी हैं.सरिताएं स्वच्छ जल से आपूर्ण , ताल-तलैयाँ धुंध के आवरण हटा,प्रभात की मुस्कान से झलमला उठे है. जल पक्षियों की  कुलेल से मुखरित ,किरणों की दीप्ति से ज्योतित वासंती साँसे ,हवाओं में घुली जा रही हैं .तरु-लताओं ने अरुणाभ किसलयों की बंदनवारें सजा लीं, बौराए आम्र-कुंजों में , गंध-  व्याकुल नर कोकिल की प्रणयाकुल पुकार रह-रह कर गूँज  उठती है .
      फ़रवरी बीत रही है .वृक्ष की शाखें रोमांचित हो उठीं  .मैग्नोलिया की शाखें गुलाबी कलियों से भर गईं -पत्ता एक भी नहीं .तरु-बालाओं की सारी देह-यष्टि ,जो पल्लव-आच्छादन  में छिपी  रहती थी उजागर हो गई. एक-एक मोड़, पूरे उतार-चढ़ाव का चारु संयोजन और प्रत्येक घूम की मोहक भंगिमा, जो डालें पत्तों  की सघनता में छिपी रहतीं थीं ,उन सबका ललित संभार सामने आ गया.तनु देह-यष्टि, की समग्र रूप-रेखाएं, प्रत्यक्ष ,जैसे आवरणों में छिपी देह का सारा सुकुमार संयोजन आभूषित हो निरावृत हो गया हो. अलभ्य दृष्य,नेत्रों के लिए अनायास सुलभ हो उठा .निसर्ग का यही मदिर लास्य चहुँ ओर, जैसे तुम्हारे शुभागमन का उल्लास छलक गया हो .
          हवाएँ ताल दे-दे कर नचाती हैं, लचकती हुई तरु-शाखें पुष्पाभऱण धारे झूमती हैं  . कुछ दिन पूर्व की नितान्त निर्वसना,चेरी की  टहनियाँ  फूल उठी  हैं .तन्वंगी श्याम-सुकुमार टहनियों पर फूलों के गुच्छे-ही गुच्छे, नव-किसलय अभी फूट रहे हैं . फूलों भरी डालियों की तनु काया पर नन्हें-नन्हें किसलयों के आवेष्टन  जैसे  लघु अंतर-वस्त्र धारण कर लिये हों.
कला और विद्याओं की अधीश्वरी,ज्ञान-विज्ञान की मूल ,सृजन की प्रेरणा,साक्षात्  सरस्वती, इस  ऋतंभरा धरा को अपने चरणों से धन्य करने अवतरित हो रही हैं .मधु और माधव का युग्म - सुख-सुरभि-सौंदर्य का अनुपम जगत जिसे  वाणी के अवतरण की रुपहली स्वर-लहरी मुखरित कर देगी .क्षण-क्षण नवीन होता रूप,  मधु- गंधी मलयज का स्पर्श ,गगन के रंग और निसर्ग का संगीत , वनस्पतियों में अंकुरों के पुलक-कंटक ,अरुणाभ नव-पल्लवों के विकसने की अकुलाहट वातावरण में नव-चेतना का संचार कर रहे हैं. झूमते बिरछ, लताओँ की  सुकुमार  अँगुलियाँ थाम ,में बाहुओं में ले अपने आप में समेट लेंगे .
इस मंगल बेला में , मन-रंजन  के सारे उपादान लिए प्रकृति स्वागतार्थ प्रस्तुत हो गई है.  हवाओं में वसन्त की गमक, कोलाहल -हलचल चारों ओर जैसे ढोल-नगाड़े  बज रहे हों लगातार और उनकी ढमक उर-तंत्री को रह-रह कर उद्वेलित कर रही हो .
           श्री-सौंदर्य और सृजन की मूल हो तुम ,ये नवल अंकुरण अभिव्यक्तियाँ हैं ,अंतस् के आनन्दोद्गार ,पुष्पित पल्लवित,सृजन की मूल धाराओं के प्रवाह में चेतना का असीम  विस्तार,प्रेम का राग सबको छाये है,ये सब तुम्हारी ही तो कलाएँ .इस धरा पर कितनी धाराओं को प्रवाहित कर सिंचित कर रही हैं !सारी अनुभूतियों , अभिव्यक्तियों की मूल तुम ,यह सारा पुलक रोमांच प्रकृति की अंतर अभिव्यक्तियाँ हैं,तुम्हारी यह रचना सृष्टि तुम्हारे आगमन से रोमांचित हो उठी है ,
        सृजन का मूल तुम्हीं ,हर रचना का आदि कारण .तुम्हीं से स्नेहित-अनुप्राणित जीवन की ज्योति,अंतर का राग तुमसे स्वरित, तुम्हीं आधार हो मानस के अतीन्द्रिय संचार का,  सारे विज्ञान-ज्ञान सारे शास्त्र,तुम्हारा मुख जोहते हैं- व्यक्त होने के लिए ,विवृति पाने के लिए  चमत्कृति देने को .आदि कारण हो तुम .तुम्हारे बिना सृष्टि  मूक है कहीं जीवन की मर्मर नहीं ,संवाद- संलाप नहीं स्वरों का उद्गम -विस्तार नहीं  ,भाव-स्पंदनहीन  जड़ता मात्र, हिमीकृत हुई सी .तुम्हारी ऊर्जा के संचार से ऊष्मित हो उपल सी जड़ता,तरल-तरंगित जल में परिणत हो गई है ,विरस क्षीण होती चेतनाएँ जीवन रस से   अनुप्राणित हो गई हैं.
       अक्षरे,तुम वाङ्माया रूपिणी ,तुम अगम- सुगम सुभावमयी  ,मुखर उच्चारण तुम्हारा आवाहन ,शब्दों में विहित  मात्राओँ से सँवारे अक्षऱ पुष्प-गुच्छोंमें ग्रथित  वाक्य-योजना तुम्हें अर्पित अँजलि है. संयुति से विवृति की ओर युग्मों में -चेतना का पल्लवन   वाग्धारा की तरल छवियाँ धारे सारे भोग -स्वरों के व्यंजनों के तुम्हारा भोग- तुम्हीं तो  अनेक भूमिकाएं धार ग्रहण करती हो .
तुम्हारी परछाईँ जो पड़ने लगी  ,सृष्टि का अणु-परमाणु चैतन्य हो उठा .
 दुर्गा सप्तशती में कथा आती है मूल-प्रकृति ही पुरुषात्मक रूप को जनमती है.
वही सत्वगुण दो रूपों में प्रतिफलित हुआ - शिव और सरस्वती.
             कैसे अनुरूप भाई-बहिन .तुम्हारी उज्ज्वलता सारे शाप -ताप कलुषों का शमन   करनेवाली ,शीतल प्रलेप दे कर ,दृष्टि को नये क्षितिजों तक विस्तारती ,निर्मल जल सी वाणी अंतर में उमड़  सारा कलुष बाहर उलीच देती है .
शिव की भगिनी तुम,वैसी ही कल्याणकारिणी, शुभ्र निरंजना !
 उनका डमरू और तुम्हारे स्वर, वे नट तुम वाक् - कैसी युति है , उस महाशक्ति की अभिव्यक्ति के आदि रूप तुम दोनों, जिनसे सारी सृष्टि का अनुप्रणन हुआ. भ्रातृ-भगिनी की समरूपता.सात्विक अनुबंध के दोनों पक्ष एक ही उद्गम के दो रूप,पुरुष-प्रकृति स्त्री-पुंसात्मक हो सम्पूर्ण व्याप्ति के आदि सूत्र स्वरूप हैं !
मुखर उच्चारण तुम्हारा आवाहन , ! नाद-स्वर से पूरित करते ,जड़ पंचभूत में दिव्यता का संचार कर आनन्द का रोमांच भर जीवन को सार्थकता प्रदान कर देते हैं ,
 सर्वगुणयुक्ता.-दृष्य-अदृष्य रूप से संपूर्ण विश्व को व्याप्त करने वाली त्रिगुणापरमेश्वरी  का रूप -
'स ददर्श ततो देवींव्याप्त लोक त्रयां त्विषा,
पादाक्रान्त्या नतभुवंकिरीटोल्लिखिताम्बराम्
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्
दिशो भुज सहस्रेण समन्ताद्व्याप्य संस्थिताम्..'
           सृष्टि संचालनके क्रम में विस्तार की परंपरा आगे चली है   ,गुणों की भिन्न आवृत्तियाँ ,अभिव्यक्तियाँ ..प्रकृति के नारीत्व के तीन रूप जिनमें तुम विलक्षण हो-   शुद्ध सत्वमयी ,  चिद्रूपा , ज्ञान से गौरवान्वित,कलाओं से सरस-रुचिर-आनन्दमयी !
.या सत्वैकगुणाश्रया साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता -अक्षमाला,अंकुश ,वीणा एवं पुस्तक धारिणी महामेधा महास्मृतिः.
जड़ता के आघात से अकुलाए देवगण लालायित हैं तुम्हारी कृपा हेतु ,
वे दौड़ते हैं तुम्हारी  स्तुति करते तुम्हें अपने अनुकूल बनाने के लिये .तुम परम तेजोमयी अवतरित होती हो ,शुद्ध अंतःकरण में बुद्धि रूप से ,परा विद्या मेधा शक्ति बन,जिससे सारे शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त होता है ,सबकी आदिभूत अव्यकृता परा प्रकृति बन कारण स्वरूपा, महाव्याप्ति .तुम्हीं स्मृति ,तुम्हीं विशुद्ध धारणा हो माँ .
धीश्वरी ! क्या कहे जा रही हूँ मैं ?मेरी प्रतीति ही कितनी ! तुम  इन सबसे परे, अपरंपार, अभिव्यक्तियों का संसार  श्री-सौंदर्य की आगार ,आनंदमय कोष का शृंगार और ,तुम्हीं में निवसित सृष्टि का असीम विस्तार ! आत्मा का संचरण हो तुम. जो कुछ भी व्यापता है व्यक्ति को -उस सारी अनुरक्ति -विरक्ति मय चित्त के चारु संचार का संभार और  उच्चार भी हो तुम.
            भूत-जगत में दिव्यत्व-संचारिणी.
कलुषों की निवृत्ति ,मन की परिष्कृति, अंतरात्मा की परितृप्ति हो तुम, सुकृति-विकृति तक परिणामित  मूलप्रकृति तुम,साथ ही उस परम चिति की  इस नश्वर तन में अवतरित साधक के  मृण्मय तन में करती हो तेजोमयी  ऊर्जा का अजस्र प्रवाह जिस में विहरती दिव्यता चिदानन्द बन कर स्वरों में फूट पड़ती है .यह सारा सौंदर्य तुम्हारी छाया है सारे भाव तुम्हारी प्रतीति,जीवन के सारे  राग तुम्हारी ललित वीणा की मूर्छनाओं में विलय पाकर सार्थक होते हैं ,
             किस विध तुम्हारा सत्कार करूँ ,कि ये जन्म-मृत्युमय प्राण तुम्हारे परस से दिव्य हो उठें ,जो जन्मान्तर तक  संस्कार बन   सँवारती रहे ,कब संभव होगा कि मैं चेतना की परम परिष्कृति स्वरूप तुम्हारी भव्यता से ओत-प्रोत  ,अपनी इस लघुता को विसर्जित कर तुम्हारी महत्ता को ,स्वयं में अनुभव कर उसके कुछ अणु-परमाणु  आत्मसात् कर सकूँ
       आओ  सर्व मंगले ,विराजो इस धरा पर ,जो तुम्हारे आगमन का संदेश पा कृतकृत्य हो उठी है,
  तुम्हें हमारा नमन है ,वंदन है !

*
(वासंती-नवरात्र पर लिखी गई  रचना अब प्रस्तुत हुई है - दोष मेरे आलस्य का.)
- प्रतिभा.

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

एक थी तरु - समापन सत्र (36 & 37.)


36.

 आज फिर कनाडा से चिट्ठी आई है
जीजा की चिट्ठी पिछले महीने भी तीनों के पास आई थी कि गौतम की पत्नी ,शन्नो या तरु में से कोई कुछ महींनो के लिये वहाँ चली आये.घर और मन्नो की देख-भाल में उनका हाथ बँटा दे .मन्नो का आपरेशन इतने दिन से टल रहा है ,लेकिन अब तो होना ही है .
संजू के बच्चे इतने छोटे हैं कि रीना के जाने का प्रश्न नहीं उठता ..शन्नो और भाभी अपनी गृहस्थियों से अवकाश नहीं निकाल पा रहीं ,उनके अपने-अपने झंझट हैं .मन्नो की बड़ी बेटी तनु यहीं बम्बई में है .पर वह जा नहीं सकती ,उसकी डिलीवरी होनेवाली है .पहले तो जीजा यही सोच रहे थे कि वह आ जायेगी .स्थितियाँ ऐसी बनती गईं कि अब न ऑपरेशन टाला जा सकता है ,न तनु जा सकती है .
रह गई तरु .उम्मीद उसी से लगाई जा सकती है .
 मायके की बात चलने पर तरु के सामने मन्नो का चेहरा आ जाता है .उनके बारे में बहुत सुना है -सिर्फ अम्माँ ही नहीं औरों से भी .जैसा रूप वैसे ही गुण .औ किस्मत भी वैसी ही मिली .जतीन -जीजा के कान्टैक्ट्स बहुत अच्छे हैं ,पैसे की कमी नहीं अपना बिजनेस है .
 तरु के जन्म के बाद अम्माँ बिस्तर से लग गईं थीं,तो मन्नो ने सारा घर सम्हाला था .तरु को बड़े नेह-से पाला था .रात-रात भर उसे लिये जागती थीं .अम्माँ खुद कहती हैं ,उन्होने तो उसके जीने की उम्मीद छोड़ दी थी ,वो तो मन्नो ने जिला लिया .
तरु सोचती है ,कैसी होंगी वे जो उसे मौत के मुँह से वापस ले आईं ,जिनके गुण गाते अम्माँथकती नहीं .जिनकी कढाई -बुनाई का सामान सहेज कर रखा गया था .उनके साथ रहने का मौका ही कहाँ मिलाथा उसे ?अपने होश सम्हालने के बाद का तो उसे कुछ याद नहीं पड़ता .पहले जब आईं थीं तो तरु घर ंमे नहीं थी ,कहीं और भेज दी गई थी .फिर उनका आना जाना भाग-दौड़ जैसा ही रहा .
 मन्नो जिज्जी पत्रों में हमेशा लिखती हैं-तरु के साथ नहीं रह पाई .उसकी शादी जिस अफ़रा-तफ़री में हुई उसमें वे आ भी नहीं पाईं .उसे अपने साथ रखने को ,वे पहले भी कहती थीं ,पर किसी ने भेजा नहीं .
तरु का मन वहाँ जाने को व्यग्र हो उठा है ,पर चंचल और असित का सोचने लगती है .
फिर यह विचार भी कि ,शन्नो जिज्जी या रेणु भाभी जाने को तैयार हो जायें तो  ठीक .अब तो दोनों ने ही असमर्थता प्रकट कर दी है .
 असित के दौरे, उनके प्रमोशन के बाद से काफी कम हो गये हैं . चंचल घर का काम करने के लायक हो गई है .

 "जिज्जी की बीमारी का सुनकर जाने कैसा लगता है ,"तरु ने कहा था .
 "अब साइन्स काफ़ी आगे बढ गई है और अमेरिका का तो कहना ही क्या !वहाँ जितनी सुविधायें ,जितनी सावधानी मिलेगी उसकी यहाँ कल्पना भी नहीं की जा सकती  तुम बेकार चिन्ता करती हो ."
 इस बार फिर उसने शुरुआत की ,"मुझे तो बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा .अपनी जिन्दगी के लिये मैं उनकी ऋणी हूँ,असित ,वे नहीं होतीं तो आज मैं भी इस दुनिया में नहीं होती --."
 "तो मम्मी,तुम्हीं क्यों नहीं चली जातीं ?मौसी-मौसा इतना तो लिख रहे हैं .तुम्हारी जगह हम होते तो झट् चले जाते .क्यों पापा ,है न ?"
 "हाँ,आज को उन्हें जरूरत है तो किसी को जाना जरूर चाहिये ,"असित ने तरु की ओर देखा ,"तुम्हारे मन पर निर्भर है .जैसा चाहो --."
 "वाह ,मेरा मन क्यों नहीं करेगा ?मैं तो तुम लोगों का सोच कर चुप थी .फिर सोचा शायद कोई और जाने को तैयार हो जाये.'
 "मैं  मना नहीं करूँगा, बशर्ते ,तुम वहाँ जाकर और रुकने को न कहो ....कहीं  वहीं कोई और..'
'बस ,चुप भी करो .'
' हाँ , चंचल को अकेले रहना पड़ेगा और तुम --.'
"अरे ,हम क्या कभी अकेले रहे नहीं ?पिछली बार तो चार दिन अकेले रहे थे ,जब दादी बीमार थीं .सिर्फ रात को महरी आ कर सो जाती थी .मम्मी ,तुम जाओ.अमेरिका रिटर्न्ड  ! वाह , क्या रौब पडेगा मेरी सहेलियों पर  !"
 "वैसे तो रश्मि भी पंद्रह -बीस दिन आसानी से रह सकती है ,राहुल -राजुल को लिखो तो वे भी बारी-बारी से भेज ही देंगे .नहीं तो माँ जी तो हैं ही .वैसे भी आती-जाती बनी रहती हैं ,अबकी से लगकर रह लेंगी ."
 "वह कोई प्राब्लम नहीं .बीच में कितनी छुट्टियाँ पडती हैं,चंचल भी जाकर किसी के साथ रह सकती है .फिर मैं भी तो हूँ ,"असित ने समर्थन दे दिया .
 वह एकदम उमँग उठी .,"तो असित , तुम लिख दो उन्हें -वे  इन्तजाम करें ..मन्नो जिज्जी कितनी खुश होंगी .--."
*
तरु के जाने की तैयारियाँ शुरू .
कोई अपना देश तो है नहीं कि चाहे जब जाओ, चाहे जब लौट आओ .हफ़्तों पहले से बुकिंग और हर तरह की तैयारियाँ . .
चंचल ऐसी मगन जैसे खुद ही जा रही हो .उसने एक लम्बी सी लिस्ट बना ली है  ..
 "मम्मी,ये सामान हमारे लिये लाना है ."
 'ओफ़्फ़ोह चंचल ,तुम्हारा बस चले तो तुम सारा अमेरिका उठवा मँगाओ ,वहाँ से लाना इतना आसान नहीं कि बस गये और खरीद लिया ."
'इसके लिये सबसे अच्छी भेंट क्या होगी मैं बताऊँ ?'
'क्या पापा?'
' कोई योग्य भारतीय लड़का ,जो वहाँ से शिक्षा प्राप्त कर यहाँ आ रहा हो ..'
तरल ने पूरा किया ,'और भारत में सेटल होने का इरादा रखता हो..'
चंचल ने झेंपते हुये कहा ,'आप लोगों को बस यही सूझता है .'वैसे वह सब ख़बर रखती  है कि  कहाँ से पत्र-व्यवहार चल रहा है .

 कुछ फ़र्माइशें वहाँ से भीआई हैं -हरद्वार गंगा-जल ,काँच की चूड़ियाँ ,बिन्दी के पत्ते ,पञ्चदीप आरती ,तुलसी की माला ,सलवर सूट वग़ैरा- वगै़रा .भरतीयों की संख्या वहाँ काफ़ी है और उनके संस्कार भारत की धरती के मोह से मुक्त नहीं होने देते .
 असित के लिये तरु के मन का प्यार उमड पडा है .वैसे तो जब भी वे घर पर नहीं होते उनकी कमी खटकती थी ,वह हर बार तय करती थी अबकी बार उन्हें खूब संतुष्ट कर दूँगी .पर जितना चाव उमड़ता था उतना कर नहीं पाती थी -दुनिया भर के झंझट ,व्यस्तता ,और प्राथमिकतावाले काम .घर में होने पर वैसे भी आवेश ठण्डा ही रहता है .अब मन में जो उत्साह जागा है उसका प्रभाव व्यवहार पर छा गया है ..चंचल का लाड़ भी बढ गया है .उसके मन का सामान वह खुद जाकर दिला लाती है .आगे क्या-क्या करना है सब समझा रही है .
 तरु के भीतर कुछ होने लगा है .
मानवी संबंधों के कौन-कौन से रूप .कैसी-कैसी परिस्थितियां वहाँ के समाज में होंगी ,वह जानने को उत्सुक हो उठी है .वहाँ की जीवन पद्धति कैसी होगी ,तरु सोचती है ,जहाँ इतनी समृद्धि है,इतनी सुविधायें हैं ,उस वर्जनाहीन समाज में ,क्या इसी प्रकार की कुण्ठायें पलती होंगी ?ऐसी विकृतियाँ वहाँ भी होंगी ?कैसे होंगे वहाँ के लोग ?एक ओर यह संस्कृति ,जो व्यक्तित्व की घोर उपेक्षाकर,वर्जनाओं और घुटन का पर्याय बन गई है और जैसा कि सुनती आई है ,ठीक इसके विपरीत वहाँ का उच्छृंखल-संयमहीन और भोगवादी दृष्टिकोण!व्यक्ति ,समाज और परिवार में कितना ताल-मेल है वहाँ ?इन दो छोरों के बीच कोई संतुलन बिन्दु संभव है क्या ?
*
37.
 प्रस्थान का समय जैसे-जैसे पास आ रहा है,तरु की मनस्थिति अजीब होती जा रही है .
 उसके उड़े-उड़े चेहरे को देख कर असित ने कहा ,"तरु, मन न मान रहा हो तो अभी भी लौट चलो ."
 "नहीं , असित , यह कैसे हो सकता है ?जाना तो है ही ."
 "तो निश्चिन्त होकर जाओ,दुविधा से रहित मन से .कौन बहुत दिन रहना है ?तीन -चार महीने निकलते क्या देर लगती है ."

 "हाँ .और क्या ? वहाँ वालों को चिट्ठी समय से डाल देना ."
 तरु का मतलब जहाँ चंचल की बात चल रही है .
 "चिन्ता मत करो ,तुम्हारे  आते-आते तारीख भी पक्की हो जायेगी ."
 चंचल बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई .तीनों एक दूसरे को हिदायतें दे रहे हैं .चंचल ने उसके गले में हाथ डाल दिये और सिर कंधे पर रख दिया ,तरु चुपचाप थपक रही है .

 घोषणायें हो रही हैं .तरु को सुनने की फ़ुर्सत नहीं . ध्यान रखने के लिये असित साथ हैं अभी तो .कोलाहल बहुत बढ़ गया है .
 "अब चलो ,बढ़ो तरु !"
 असित ने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया है ,तरु का हाथ असित के हाथ पर टिकता है -वे एक दूसरे को देखते हैं .असित ने बाँह से समेट लिया उसे ,आँखें मूँद तरु ने सिर टिका लिया उस काँधे पर. बस कुछ क्षण , फिर चंचल का गाल थपथपा कर तरु उसे चूमा  .असित की ओर देखा और आगे बढ़ गई  .
असित और चंचल हाथ हिला रहे हैं ,तरु हाथ में रूमाल पकड़े है , हिलाती है .
 कण्ठ में कुछ उमड़ा चला आ रहा है,दृष्टि धुँधला-सी गई है.असित और चंचल छाया-चित्रों-से प्रतीत हो रहे हैं .
लगेज की चेकिन पहले ही हो चुकी है .तरु के पास बचा है बस एक बैग और एक ओवर कोट .कनाडा में बहुत ठंड होगी .
तमाम हिदायतें दे कर असित और चंचल आँखों से ओझल हो चुके है.कस्टम क्लियर हो चुका है ,लाउंज में इंतज़ार कर रही  तरु , चुपचाप बैठी है .
कुछ एनाउंसमेंट हुये . यात्री लाइन लगा रहे हैं .
उसने टिकट और पासपोर्ट पर्स से निकाल हाथ में पकड़ लिये, लाइन में लग गई .
 *
आगे अकेले ही जाना है.हैंड-केरी घसीटते आगे बढ़ रही है
बस ,घुमाव है आगे ,और बहुतसे लोग .सब अनजाने .इन्हीं के साथ होना है .चलती जा रही है ,जैसे सब कर रहे हैं वैसे ही वह भी.
परिचारिका ने सीट दिखा दी .खिड़की से लगी है .चलो अच्छा है.
स्क्रीन पर जीवन रक्षा के तरीके बताये जा रहे हैं ,
बेल्ट बाँध ली ,एकदम झटका लगा. रन वे पर दौड़ पड़ा है प्लेन -कितनी आवाज़ .कान भड़भड़ा रहे हैं -रूई निकाल कर ठूँस ली उसने. पर्स में रख लाई थी,मन्नो जिज्जी ने पहले से काफ़ी-कुछ बता दिया था .
तीन रातों से बहुत कम सोई है .-जाने की तैयारियाँ ,घर के इंतज़ाम ,मिलने आनेवालों का क्रम और मन की उलझन .असित और चंचल को छोड़ कर अकेले इतनी दूर की यात्रा ,इतने दिन बाहर रहना एक अनजाने देश में .
 अब काफ़ी ऊपर उठ गया है प्लेन.
धरती दूर होती जा रही है .
 लगा सब कुछ नीचे छूटा जा रहा है .जीवन की इतनी भूमिकायें निभाने के बाद एक दीर्घ -विराम !
कितनी भूमिकायें - सबके अलग रंग , अलग ढंग.
इनमें मैं कहाँ हूँ ? मन में प्रश्न उठता है ,
भीतर से कोई कहता है -तरु, अभिनय मे अभिनेता कहाँ होता है ?वेश और रंग धुलने के बाद  पात्रता समाप्त हो जाती है ,संबंध समाप्त हो जाते हैं ,रह जाता है केवल रिक्त मन !
 जीवन का मध्यान्तर हो गया है ,आरोपण हट गये हैं.तरु रह गई है यहाँ अकेली -पहचान रहित .
बैक को पीछे झुका कर सिर टिका दिया  उसने .
.शिथिल हो कर यों बैठना भला लग रहा है अंदर हलकी रोशनियाँ रह गई  हैं केवल .
.थकी हुई आँखें मुँद गई हैं .
पता नहीं कितनी देर .
अचानक कान में आवाज आई -'अब परेशान मत होन तरु,रोना मत !मैं नया जन्म ले रहा हूँ ,बिलकुल सोच मत करना .'
लगा किसी ने सिर हाथ पेरा है हल्के से.
'अरे ,पिताजी !'
चौंककर आँखें खोल दीं उसने.
सजग हो कर चारों ओर देखा .सब अनजान यात्री .
हाथ सिर पर गया बैक का कवर सिर पर आ गया था, हटा दिया .
नहीं, यहाँ किसी ने कुछ नहीं कहा .
झपकी लग गई होगी .
पर कैसा विचित्र अनुभव !
फिर वहीं के बारे मे सोचने लगी है तरु .
 वहाँ  जीवन दूसरी तरह का होगा .
 असित और चंचल के लिये टूटता व्याकुल मन अब थिरा आया है .
 प्लेन की खिड़की से धरती की इमारतें घरौंदों सी दिखाई दे रही हैं और लोगों के चलते-फिरते नन्हे आकार -जैसे गुड्डे-गुड़ियों का खेल चल रहा हो .
और ऊपर से घेरे है आकाश का अन्तहीन विस्तार !
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- प्रतिभा सक्सेना.


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मंगलवार, 20 सितंबर 2011

एक थी तरु - 34. & 35.


34.
कभा-कभी जब कुछ करने को नहीं होता मन जाने किन पुरानी गलियों में भटक जाता है .एक से एक बेमेल स्मृतियाँ ,कोई तुक नहीं जिनकी आज के जीवन से ,अनायास जाग उठती हैं .
एक हरषू था .आज सड़क पर  जाते एक लड़के को  देख कर लगा वही जा रहा है .नहीं वह कहाँ .दस साल पहले की बात है अब कहाँ वह नितांत अनुभवहीन ,दुनिया भर की उत्सुकता आँखों में समेटे  लजाता-सा युवक .
समय के साथ अधेड़ तो हो  गया होगा ही और परिस्थितियाँ ऐसी कि और दस साल बड़ा लगता हो तो ताज्जुब नहीं .,
वही हरषू जिसने अपनी चाची से कहा था ,'चाची ,ये तरु बी.ए. का फ़ारम भऱ रही है ...ये पढ़ेगी  इम्तहान में बैठेगी ..'
उसकी आँखों में ईर्ष्या की कौंध देखी थी तरु ने  .
वह लड़का था . उसे लगता होगा ज़रूरत उसे अधिक है पढ़ने की ,बढ़ने की आगे का रास्ता बनाने की और तरु तो लड़की है शादी हो जायेगी क्या करेगी डिग्री का ?
.पर उसे कोई सुविधा नहीं मिली आगे पढ़ना एक सपना बन कर रह गया .चाचा इतना खर्चा क्यों करेंगे उस पर .दसवीं पास कर रह जायेगा .
हाँ ,मैं लड़की हूँ .
- पर मैं ..मैं..नहीं पढ़ती तो ?
कैसा होता जीवन .बिलकुल परवश.कुछ नहीं कर पाती ..कहीं ब्याह दी जाती -घुट जाती बिलकुल .कुंठित ,वर्जित ,विवश ,
जैसे अम्माँ !कितनी बेबस थीं वे !बेबस कोई  होता नहीं बना दिया जाता है -शुरू से ,कि  स्वतंत्र व्यक्तित्व विकस ही न पाये ,जैसा चलाया जाय बस उतना ही.सारी ऊर्जा घुट-घुट कर नकारात्मक हो जाय चाहे .हताशा का ओर-छोर नहीं ,उबरने का कहीं  रास्ता नहीं .
दोष उन स्त्रियों का नहीं जिनकी क्षमताओं को नकार दिया सबने ,अपने ही खाँचों  में फ़िट करने के लिये  .बस गृहस्थी की गाड़ी घसीटते उसी लीक पर चलना है तुम्हें .ऊपर से अपेक्षा कि सहज-समान्य बनी रहो. जिनके लिये सारे रास्ते बंद हो .,कैसा लगता होगा उन्हें ? .अम्माँ  की तरह !
अम्माँ की यादें ऐसी मनस्थिति के साथ लगी चली आती हैं.
उनकी की मृत्यु से कुछ सप्ताह पहले तरु भाई के घर गई थी .उसे लग रहा था भाभी पर बहुत बोझ पड़ गया है ,कुछ सहायता पहुँचा सके और अम्माँ के साथ कुछ दिन बिता ले .
उस दिन कामवाली नहीं आई थी .झाडू-पोंछा ,चौका-बर्तन सब पड़ा हुआ था .रीना वैसे ही व्यस्त है ,चलो मैं ही करवा दूँ - सोचा तरु ने और लग गई .
चौके में झाडू लगाते समय पटे के नीचे ढँका कुकर का पुराना एल्यूमीनियम का डिब्बा झाडू के धक्के से बाहर खिसक आया .
'अरे, ये कल सुबहवाले कढ़ी-चावल यहाँ किसने मिला कर रखे हैं ?कुत्ते  को डालने के लिये दिये रखे होंगे' ,तरु ने सोच लिया .उसने डब्बा वहीं खिसका दिया .
 बाद में जब  नहाकर निकली तो  देखा अम्माँ घिसटती हुई चौके में पहुँच गई हैं और और पटे के नीचे  से वे बासे कढ़ी-चावल निकाल कर वहीं जमीन पर बैठ कर खाने लगी हैं.
 'अरे अम्माँ ,ये क्या खा रही हो ?'
 'अमाया ऐ---बअ जाआ ऐ ,वो अहीं अक ऐती हैं ---.'
 अम्माँ अब रुक-रुक कर ऐसे ही बोल पाती हैं .सुबह से उनने कुछ खाया नहीं था .
 पूछने पर रीना ने कहा था ये कुछ समझती नहीं ,इन्हें कैसे खिलाना- रखना है मुझे पता है .नहीं तो पेट भराब हो जाये तो कौन समेटता फिरेगा !
 स्तब्ध तरु देख रही है ,जिसे देख कर ही खाने की इच्छा खत्म हो जाये ,कितनी भूख के बाद वह गले से उतरता होगा !
कितना तरसी होंगी ये ,कैसे गु़ज़रे होंगे इनके दिन .कितनी शौकीन थीं स्वादिष्ट चीजें बनाने की - खाने और खिलाने की!
 शाम को तरु ने अपनी लाई मिठाई में से दो पीस फ्रिज में से निकाले और लाकर अम्माँ को पकड़ा दिये .
रीनी ने खाते देख लिया ,बोली ,'दीदी, हमारा इतना बस नहीं कि इतना सब इन्हें खिलायें .बेकार आदतें बिगा़ड रही हो .'
 क्या कमी है इस घर में ?क्या नहीं बनता यहाँ ?पर हाँ ,घर तुम्हारा है मैं कौन होती हूँ किसी से कुछ कहने- करनेवाली !
 यहाँ तो शुरू से ही यह चल रहा है .कभी कोई बात होने पर रीना फट् से कहती है ,'इनने हमें क्या दिया ?'
ठीक है ,इस दुनिया में अपनापन ,लिहाज ,संबंध सब खोखले शब्द हैं।पहले इस हाथ से ले ले तब उसी हिसाब से उस हाथ से दे .
यहाँ किसी से कुछ कहना बेकार है ,तरु जानती है नहीं तो बहुत कुछ सुनने को मिल जायेगा .शादी के पहले इन के पति ने जो कमाई की थी उसे किस-किस पर कितना खर्च किया, इन्हें तो इसका भी हिसाब रखना है और जितना हो सके उसे बराबर कर लेना है .
उस दिन सबके साथ खाने बैठ कर  तरु उन कौरों को कड़वे घूँटों की तरह हलक से उतारती रही।

  फिर उनकी मृत्यु की सूचना आई थी .
चलो, अच्छा हुआ मुक्ति पा गईं वे .यहीं के यहीं प्रायश्चित हो गया .
ओ माँ ,चलते समय कोई भी बोझ तुम्हारी छाती पर नहीं रहा होगा ! सब धुल-पुँछ गया .कोई पछतावा लेकर नहीं गई होगी तुम !
विश्राम करना ,निश्चिन्त होकर माँ ,और निर्मल स्वच्छ मन लेकर फिर आना तुम !
जाने कितनी विवशताओँ से कुण्ठित अपनी जो ममता अपनी संतान को नहीं दे पाईं, फिर आकर स्नेह से सींच देना ।औरों का मैं नहीं जानती लेकिन मेरा तृषित मन तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा .तुम्हारे अन्तर्मन में भी कुछ खटक रह गई होगी- अपने बच्चों पर अपना ममत्व लुटाये बिना तुम भी कहाँ चैन पाओगी !
हमने जाने में - अनजाने ,गुस्से में या  रिक्त मन  में घुमड़ती असंतोष की अभिव्यक्ति के कारण ,जो अनुचित किया हो उसे भी क्षमा कर देना माँ ,,सोच लेना कि इतनी बुद्धि हममें विकसित नहीं हो पाई थी !
मन ही मन कहती है तरल - इस नाम और रूप की मूल निर्मिति तुम्हारी है .जीवन के प्रति जो दृष्टि विकसी है इसके मूल में भी कहीं तुम हो ! आज मैं जो हूँ तुम्हारी देन है .तुमसे भिन्न कर इसे देखना संभव नहीं .

 और मन की उद्विग्नता जब असहनीय हो उठती है तब अपने भीतर किसी को पुकारती है तरु ,कहती है -ओ मेरे अंतर्यामी ,जीवन का जो ज़हर मेरे हिस्से में आया है उसे पचाने की सामर्थ्य देना !तुमने जो दिया, मुझे स्वीकार , पर उसे अंत तक निभा सकूँ ऐसी  क्षमता भी तुम्हीं  प्रदान करते रहना !
*
विपिन की खोज-ख़बर लेती रहती है तरल .

उसके माता- पिता रिटायर हो गये, अपने गाँव में रहने चले गये हैं वे लोग.
इलाज  चल रहा है  . बिलकुल नॉर्मल नहीं हो पाया अभी तक .दाहिने हाथ की  सूजन बड़ी मुश्किल से कम हुई है ,अब भी किसी  मौसम में दर्द होने लगता है .सूजन भी बढ़ जाती है और  उठा नहीं पाता हाथ.कभी-कभी एकदम उत्तेजित हो जाता है . यहाँ के  वातावरण से दूर रहना ही उसके हित में है .
नहीं ,तरु नहीं जा सकती उसे देखने .
नहीं तो फिर वही सब घिर आयेगा उस पर ,उत्तेजना नुक्सानदेह हो जायेगी .कहीं फिर दिमाग़ पर वही सब चढ़ गया या अवसाद में लौट गया तो !
 नहीं   .चिट्ठी-पत्री करने की भी ज़रूरत नहीं ,असित का कहना है जिस स्थिति से निकालना है उससे बच कर रहना ही ठीक होगा .लिखने- पढ़ने से तो वही सब फिर उभर आयेगा .दिमाग़ पर और ज़ोर पड़ेगा .नहीं ,उसे वहीं रहने दो ,यहाँ क्या बचा है उसके लिये !इसी में उसका भला है .
 हाँ ,इसी में उसका भला है !
34.
दिन बड़े खाली-खाली से हो गये हैं  -बड़े उचाट से !
लगता है करने को कुछ नहीं ,एक बँधा हुआ  ढर्रा चलता जा रहा है .समय बीतता चला जा रहा  है.  .
चंचल एम.ए. में आ गई है.असित ने बड़े-बड़े मंसूबे पाल रखे हैं - मेरी बेटी ये बनेगी ,वो बनेगी .
तरु को हँसी आती है .पहले यह भी तो देख लो बेटी का झुकाव किस ओर है .
असित का कहना है अभी शादी की क्या जल्दी है ,उसे कुछ बन लेने दो
.तरु कुछ और सोच रही है .लड़की अपना केरियर बनाना चाहे तो इन्तज़ार किया जाय नहीं तो सही उम्र पर विवाह ठीक.जीवन के उल्लास और उमंगें उम्र के बढ़ने साथ ,  कभी-कभी दूध में उफान की तरह बैठने लगती हैं .सही उम्र से उसका मतलब है बीस से तेईस तक-लडकियों के मामले में .लव मैरिज पर उसका विश्वास नहीं.खास कर नई उम्र की लडकियाँ .जो दुनियादारी के अनुभव से बिल्कुल कोरी हों,इस मामले मे भावुकता  या कोरे आदर्शवाद से भर निर्णय ले लेती हैं फिर उम्र भर पछताती हैं .
 "आज की दुनिया बड़ी खराब है ." वह असित से कहती है ,"फिर हमारे सामने ही ,चंचल भी सेटल हो जाय तो निश्चिन्ती हो ."
 अन्दर वाले कमरे में चंचल  पढ रही है,बाहरवाले में असित और तरु हैं.उनकी बातों के कुछ अंश उसके कान तक आ जाते हैं .
असित ने आवाज देकर इनलैंड लाने को कहा .
'अच्छा तो कहीं चिट्ठी लिखी जा रही है '! कौतूहल से ,कुछ देर वहीं खडी रही .फिर लौट गई .

 चंचल की कुछ साथिनें ब्याह गईं ,कुछ  विभिन्न प्रतियोगिताओं की तैयारी, और कुछ निरुद्देश्य पढ़ रही हैं.
विवाह की बात उसके मन मे पुलक भर देती है .घर में अब यह चर्चा  होने लगी है .
 कान लगा कर बाहर की बातें सुनने की कोशिश करती है .एकाध शब्द के अलावा कोई कुछ बोल ही नहीं रहा .
वैसे तो पापा बार-बार मम्मी से  पूछते हैं 'क्या लिखें ?'और मम्मी बताती हैं. दोनों सलाह -मशविरा करते हैं  .आज इतने चुप कैसे हैं ?
उसे ताज्जुब हो रहा है .....हो सकता है मन्नो मौसी को लिख रहे हों. उनकी तबीयत खराब थी ,आपरेशन होना है .वे चाहती है हिन्दुस्तान से कोई कुछ महीनों के लिये उनके पास चला जाय .हाँ, मम्मी जा सकती हैं .पर वहाँ का इन्लैंड थोड़े ही लिखा जायेगा .
 उँह ,उसने सोचा अभी लिख कर रख देंगे तब देख लूँगी .चिट्ठी के मामले में पापा बडे आलसी हैं,एक तो उनकी चिट्ठी एक बार में पूरी होती नहीं और फिर दो-तीन दिन से पहले डाक में नहीं जाती .
 फिर भी उसका मन नहीं माना ,तो किताब उठाने बहाने फिर वहाँ जा घुसी .रैक पर किताबें खड़बड़ करती रही -शायद कुछ शब्दों को पकड़ कर मतलब समझ में आ जाय .
 कोई कुछ नहीं बोल रहा .किताबें उठाने में भला कतनी देर लगाई जा सकती है !फिर अन्दर आ गई पर उसके कान उधर ही लगे हैं .
 असित की आवाज  ,"देखो ठीक है ."
 "हाँ और क्या ?" कुछ देर में मम्मी की आवाज .
 अजीब बात है .घूमकर आये दोनों जने और चिट्ठी लिखने बैठ गये .ऐसी क्या जरूरी थी .वैसे तो मम्मी दस बार रटती हैं तब दो-चार दिन टाल-मटोल कर लिखते हैं
.---ऊँह होगा ,मुझे क्या ?
 पर किसी तरह चैन नहीं पड़ रहा , अन्दर सुगबुगाहट हो रही है  - लिखा किसे है ?क्या लिखा है ?कुछ मुझसे संबंधित है ?--कहाँ के लिये हो सकती है ?वह लाख सिर मारती है ,कुछ समझ नहीं आता .न बेकार कमरे में जाना ठीक लग रहा है ,न कुछ पूछना -चंचल परेशान है .
 एक बार सोचा पापा को आवाज़ देकर कहे बंबई चिट्ठी लिख रहे हों तो मैं भी लिखूँगी जीजा जी को .मन्नो मौसी की बेटी आज कल वहीं है न .पर कहने की हिम्मत नहीं पडी .डर लगा मम्मी टोक देंगी ,"पढ़ रही हो या इधर  ध्यान लगाये हो /"
 चंचल फिर पानी पीने निकली .असित अब चिट्ठी मोड़ रहे हैं .
 "पता तो लिखो तरु ने कहा ."
 हाँ ,वहीं  जा रही है -चंचल समझ गई .
 फिर तरु की आवाज आई ,"पीछे अपना पता भी पूरा लिख दो ."
 "रहने दो ,वे गेस करें ."
 अब रहा नहीं गया चंचल से. बाहरवाले कमरे में फिर आ गई ,"पापा ,कहाँ चिट्ठी लिखी ?"
बढ़ कर चिट्ठी उठा ली उसने  ,"अच्छा ,जीजा जी को लिखी है !लाइये हम अपना नाम लिख दें पीछे ."
 "नहीं,नहीं ,तुम अलग लिखना ." असित ने फौरन टोका .उन्होंने पीछे अपना पता भी लिख दिया ..
 तरु अखबार की गड्डी लिये ,किसी खास तारीख का ढूँढ रही है .असित बाथरूम चले गये .चंचल ने धीरे से चिट्ठी उठा ली और दूसरे कमरे में घुस गई .
 चलो... मोड़ी है अभी ,चिपकाई नहीं है !
क्या करे ?कमरा बन्द कर ले ?पर इस समय कमरा बन्द करने की क्या तुक ?मम्मी समझ गईं तो ! रक्खी रहने दो यहीं ,रात में अभी काफ़ी देर जग कर पढ़ाई करनी है,मौका लग ही जायेगा .
  'अरे, जब लिख ही ली है तो डाल क्यों नहीं आते. सुबह निकल जायेगी  ? " तरु की आवाज आई.
 असित चिट्ठी ढूँढ रहे हैं
 "अभी तो यहीं रखी थी ,कहाँ गई ?"
 तरु झुक कर पीछे दीवाल की तरफ़ झाँकती है ,मेज पर रखी किताबें ,पत्रिकायें पलटती है ..
 "तरु ,तुमने उठाई ?"
 "नहीं ,मैंने नहीं उठाई .तुम पता लिख रहे थे तभी से मै तो अखबारों में वह तुलसी के उपयोग वाला लेख खोज रही हूँ .पता नहीं किस दिनके पेपर में था .पिछले हफ्ते आया था शायद .."
 इधर -उधर ढूँढ- खखोर मच रही है. फिर असित ने आवाज लगाई ,"चंचल ,तुमने चिट्ठी उठाई ?"
 चंचल धक् से रह गई .-अब क्या करे ?
 वह फौरन चली आई .
 "नहीं ,हमने नहीं उठाई ."
 "तुम मालिनी की चिट्ठी के धोखे में तो नहीं ले गईं ?"
 मालिनी उसकी फ्रेंड का नाम है .
 "मालिनी की तो ये पड़ी है ."तरु ने एक इन्लैंड उठाकर आगे रख दिया .
 "हमने उठाई ही नहीं,हम क्या करते उस का ?"
 "फिर गई कहाँ ?"
 फिर सब ढूँढा गया.अखबार हटा कर दीवान पर पड़ी चादर फटकारी गई .
 "यहाँ से कहां जायेगी ?तुम्हीं कहीं रख कर भूल गये हो."

 "मैं तो सिर्फ़ बाथरूम गया था.वहाँ क्यों ले जाता?"
 'मैंने तो छुई भी नहीं.'-तरल का तर्क.
 मेज़ की बिताबें फिर  उल्टी-पल्टी गईं,अखबार झाड़-झाड़ कर देखे गये.फिर तरु उठ कर अन्दर के कमरे  में गई.
वहाँ अल्मारी मे रखी मिल गई चिट्ठी.
 "क्यों,चंचल,तुमने ले जा कर रखी?"
 हड़बड़ा गई वह ,"हमने नहीं रखी ,मम्मी,"

 "तो और किसने रक्खी? मैं तो यहाँ से उठ कर कहीं गई नहीं.पापा बाथरूम गये थे , बस ."
 "हमें नहीं पता ."
 चंचल को देख कर असित मुस्करा रहे हैं.
 'तुम्हीं ने रखी होगी चिट्ठी के तो पाँव लग नहीं गये कि उठ कर चली जाती ."
 खिसियाहट के मारे वह रुआँसी हो आई ,"हमने नहीं रखी .हम क्यों रखते ?"
 "तुम यहाँ से कुछ सामान ले गईं थीं ?"
 "हाँ ,सामान तो ठिकाने से रख दिया था ."
 "अच्छा " तरु ने कहा ,उसकी हँसी स्पष्ट नहीं है ,."और सब सामान पड़ा रह गया ,ये मालिनी की चिट्ठी , ग्रीटिंग कार्ड ,गिलास ,चम्मच ,हेल्मेट , रूमाल और तुम सिर्फ़ चिट्ठी ठिकाने से रख आईं ?"
 "वाह क्या बात है !"
 असित हो-हो करके हँस पडे .
 "बेकार में ही --"खिसियाई चंचल कमरे से बाहर निकल गई
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35.
 गीता में जिसे ' जल मे कमल पत्र - वत् ' कहा गया है ,वह स्थिति क्या ऐसी ही होती होगी जैसी आज मेरे मन की हो गई है !
तरु सोचती है,जिसे सुख कहते हैं वह सब कुछ है मेरे पास ,पर मन उसमें डूबता नहीं .कुछ पाकर  खुशी से नाच नहीं अठता .सबसे अलग-थलग रह जाता है . क्या यही कहलाती है निर्लिप्त मनस्थिति ?
अरे नहीं , कैसे हो सकती है मेरी वह स्थिति ?वह तो वैराग्य से उत्पन्न ,निस्पृहता से पुष्ट परम शान्तिमय स्थिति है ,जहाँ सांसारिकता की ओर प्रवृत्ति ही नहीं होती .और मेरा घोर सांसारिक, माया -मोह से आच्छन्न मन ! जिससे मेरा कोई मतलब नहीं ,उससे भी कहीं न कहीं से जुड़ जाती हूँ !
 लेकिन फिर भी ,हमेशा नहीं ,पर कभी-कभी लगता है ये सारे सुख,ये सारे दुख निरर्थक हैं .इनकी भोक्ता होकर भी मैं इनसे अलग रह जाती हूँ ,असंपृक्त!.
वहाँ जहाँ मैं हूँ सिर्फ़ ,और कुछ नहीं  .सबसे अलग, निर्लिप्त .सुख- नहीं ,दुख नहीं ,राग नहीं ,द्वेष नहीं ,अपना नहीं, पराया नहीं .कैसी विलक्षण है वह अनुभूति जिसे व्यक्त नहीं कर पाती .वहाँ ये चीज़ें बहुत छोटी ,बहुत सतही रह जाती हैं.कैसी है वह अनुभूति जहाँ मै भोक्ता होकर भी साक्षी रह जाती हूँ .निन्दा-स्तुति ,उचित-अनुचित,पाप-पुण्य की सीमायें कहीं पीछे रह जाती हैं और मैं सबसे तटस्थ !
वह क्या है जो मुझे सबसे दूर कर देता है ?कोई प्रश्न जहाँ नहीं ,ऐसी स्थिति में मन कभी-कभी कैसे पहुँच जाता है !बस यही बोध शेष रहता है कि जो करना है वह करना है,उससे कहीं निस्तार नहीं .
- मन की जड़ता है क्या, या रिक्तता का बोध?
 पर अकेली कहाँ हूँ मैं ?हर जगह सब से जुड़ी. हुई .हर्ष -शोक ,हानि-लाभ सभी कुछ तो औरों से जुड़ा  है .फिर मेरा अपना है क्या ?

 गीली घास पर नंगे पाँव कब से चले जा  रही है .
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विपिन के जाने के बाद तरु की अन्यमनस्कता और बढ़ गई है .
 उम्र का कितना रास्ता पार कर आई केशों मे झलकती सफ़ेदी और आँखों से बारीक चीजों का न दिखाई देना. चश्मा जरूरी होता जा रहा है .
 पर क्या उम्र को सिर्फ वर्षों से ही मापा जा सकता है अनुभवों से नहीं ?
 अपने विगत पर विचार करती है तो लगता है यह जीवन निष्फलताओं का दस्तावेज़ है .जो करना चाहा कभी न हो सका .संभव है इसीलिये इतनी रिक्तता भर गई है .
 वह मन ही मन कहती है ,'मैं तुम्हारी आभारी हूँ असित ,कि तुमने मुझे प्यार किया ,मेरा साथ दिया ,कितनी बार ,'कैसे तर हैं  तुम्हारे बाल,जिस करवट लेटती हो उधर के !कितना पसीना ..इतनी गर्मी तो नहीं है,'  कहते हुये,नीम अँधेरे में अपने से सटा कर 'तुमने मेरे आँसुओँ का गीलापन पोंछा है.

पर मैं तुम्हारे साथ अभिन्न कहाँ हो सकी . मुझे क्षमा करना .मैं निरुपाय हूँ .मैंने जो किया उसका परिणाम मुझे ही भोगना है .उसके बिना मेरा निस्तार नहीं .वहाँ मैं बिल्कुल अकेली हूँ .तुम भी मेरे साथ नहीं  .मैं विवश हूँ इन विषमताओँ को झेलने के लिये .जिस अन्याय में मेरा साझा है उसका दण्ड मुझे ही भोगना है -अकेले ,तुमसे अलग . अपने ही ताप से दग्ध  .मेरी समझ में नहीं आता ,मुझसे जो हुआ ,उसका निराकरण किस प्रकार करूँ !
 मैं क्या थी ,क्या हूँ,और क्या हो जाऊँगी .मुझे खुद पता नहीं .जीवन की कटुताओँ का तीखापन जिसमें समा गया है,वह तरु . .,कितने-कितने अभिशाप जिसके पल्ले में बँधे हैं वह तरु ,सब कुछ पाकर भी जो  मन से वंचित रह गई है .निरर्थक  जीवन जीनेवाली तरु !

कभी-कभी कितनी ऊब लगती है.इच्छा होती है चली जाय कहीं जहाँ यहाँ का कोई न हो .न विपिन न असित, न नाते-रिश्ते ,और कोई स्मृति नहीं .कोरा हो जाय मन बिलकुल - कुछ दिनों को ही सही!
..कहीं अजाने देश की धरती पर ,अनजाने लोगों के बीच जहाँ न कोई अपना हो ,न पराया .एक नई यात्रा की शुरुआत करने .
पर वहाँ भी आज तक के जीवन को नकारा जा सकेगा क्या ?आज तक के संबंधों की अब तक की स्थितियों की जो परिणतियाँ , और  परिष्कृतियाँ  मेरे निजत्व में समाहित हो गई है ,उनसे छुटकारा हो सकेगा क्या ?

 तरु को लगता है वह बहुत थक गई है, अब रुक कर आराम करना चाहती है .
 कैसी विडंबना है ,वह जो जानती है उसे सिर्फ वही जानती है ,दूसरा कोई नहीं ,जान सकता भी नहीं .
        और लोग भी कैसी-कैसी धारणायें बना लेते  हैं .पर किसी का क्या दोष !    जल की सतह पर जो होता है वही तो दिखाई देता है सबको . डूबनेवाला ही जानता है अस्लियत तो.

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 असित के दोस्त उससे कहते हैं ,"यार ,तुम लकी हो ."
घर -बाहर हर जगह निभाव कर लेती है ,तमाम बातों में दखल दे लेती है .उनकी समस्याओं को सुन कर सहानुभूति-सुझाव भी .लोगों को लगता है बौद्धिकता में उनसे  पीछे नहीं है .सिर्फ़ घर की औरत न होकर उसके सिवा भी बहुत कुछ है.

उनकी पत्नियां समझती हैं कि उसने जीवन मे बहुत सफलतायें पाईँ हैं.सफलता के भी सबके अपने-अपने माप-दण्ड.कोई किसी को नहीं समझ सकता.हँसी आती है कभी-कभी. .
"देखो ,तरु दीदी कैसे करती हैं." "तरु भाभी आप ग्रेट हैं ." " भई , हम आपकी तरह नहीं कर पाते "  ईर्ष्या की पात्र तरु !
 वह सुनती है और चुप रहती है .मन ही मन कहती है 'मेरी तरह कोई न हो इस दुनिया में .इतना अशान्त और उद्विग्न मन लेकर किसी को न जीना  पड़े !'
 इस प्रशंसा की ,असित जैसा पति और भरे-पुरे घर की स्वामिनी होने की सार्थकता उसके लिये क्या है ?और जिसे लोग उसकी कुशलता और सफलता रहते है ,उसे कहाँ तक लादे रहे - जब मन कहीं टिकता नहीं ,कुछ स्वीकारता नहीं,निर्लिप्त भटकता है ?
अब सहन शक्ति जवाब देने लगी है ,वह इस ज़िद्दी मन से भी छुटकारा पाना चाहती है,जो स्थितियों से पटरी बैठा लेना नहीं जानता ,जो किसी प्रकार चैन लेने नहीं देता .इस दारुण मन्थन से,चेतनायें श्रमित और,लड़ने की सामर्थ्य क्षीण हो चली है .मन ही मन कहती है ,'असित ,तुमसे जुड कर मैंने इस ज़िन्दगी को जिया कहाँ, बेगार सी टाली है .
यह उद्विग्नता और अशान्ति जब असह्य हो उठती है,तनी हुई शिरायें जब चटक कर टूट जाना चाहती हैं,तब उसके भीतर कोई जागता है ..उसे साधनेवाला ,चरम निराशा से उबारनेवाला .उन विषम क्षणों में संतप्त मन को चेताता है ,पूछता है ,'बस ,इतने में घबरा गईं?इसी बल-बूते पर संसार की अथाह वेदना को मापने का दम भरा था ?"
'नहीं मुझे कोई शिकायत नहीं  ,' वह अपने आप से कहती है , 'दुख तो मैने स्वयं माँगे थे ,और जैसा मेरा स्वभाव है शान्ति मुझे मिलेगी नहीं ,'

और मन की विश्रान्ति कुछ शान्त होने  होने लगती है .

तरु जब चलती है तो एक खूब चमकीला तारा उसके साथ-साथ चलता है .उसकी दृष्टि आकाश की ओर उठी .आज वह सितारा कहाँ चला गया ?वह सारे आकाश में खोजती है .घने पेडों की आड मे कभी-कभी वह छिप जाता है ,परउसकी झिलमिलाहट हिलते पत्तों की सँध से झलक ही जाती है .आज कोहरा है ,या इतनी देर हो गई है कि वह सितारा डूब गया है .
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(क्रमशः)