शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

एक थी तरु - 1., 2., 3.

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 एक थी तरु ...
1.
प्रकृति की रचना का कितना सुन्दर दृष्य है -भाई-बहिन का जोड़ा !निर्मल हास से प्रकाशित दो अनुरूप चेहरे जिनमे कहीं कुछ आरोपित नहीं ,सहज-स्वाभाविक ।समाज ने नहीं निसर्ग ने जोडा है इन्हें।दुनिया की कुरूपताओं और विकृतियों से बेख़बर ,निश्चिन्त । माता- पिता- पुत्र,पति -पत्नी भाई-भाई सबके संबंधों पर कवियों की लेखनी चली है पर भाई-बहिन के संबंध की सहजता और सुन्दरता पर किसी कवि की उक्तियाँ याद नहीं आ रहीं तरल को ।

उस कोठी के मालिक ने पीछे की तरफ कई कोठरियाँ बनवा दी हैं ,एक मे महरी दूसरे मे माली और तीसरे मे एक रिक्शेवाला रहता है ।कोठी के मालिक और अडोस-पडोस के घरों में काम करते हैं ये लोग !नाटू रिक्शेवाला अधिकतर अकेला ही रहता है ।दिन भर रिक्शा चलाता है ,रात गये आता है तब उसकी कोठरी से खाँसने की आवाज सुनाई देती रहती है तरु को ।एकाद बार तरु को बैठा कर लाया है तब से पहचानने लगी है वह । गाँव में रह रहे अपने घर-परिवार के पास दो-तीन महीनों में चक्कर लगा आता है ।

महरी के दो बच्चे ब्रजमती और कन्हैया झिंझरीवाली ईंटों की दीवार पर चढ कर इधर ही झाँक रहे हैं ।ब्रजमती के रूखे भूरे बाल उसके साँवले-सलोने चेहरे के चारों ओर बिखरे हैं और आँखों मे काजल है-एक मे खूब गहरा ,दूसरी मे हल्का ।महरी के चारो बच्चे साँवले हैं पर सबसे अच्छी लगती है ये ब्रजमती ,खूब सुडौल नाक-नक्श और चेहरे पर भोलापन ,खूब सौम्य।तरु को देखते ही जाने क्यों काँशस हो कर झेंप जाती है और हल्के से मुस्करा देती है । पर कन्हैया उतना ही जंगली है ।चलेगा तो रास्ते के कंकडों को ठोकर मार -मार कर उछालता हुआ।साथ के लडकों से उसकी लडाई भी बहुत होती है ।अब तो किसी ठेलेवाले के साथ काम करने लगा है ,बडा चालाक हो गया है ।हमेशा कुछ-न-कुछ बोलता रहेगा । ब्रजमती तीसरे नंबर पर है ,उससे पाँच साल छोटी पर बडी शान्त। सबसे छोटी मुनिया बडी रूनी और जिद्दी है ,अक्सर ही जमीन मे लोट-लोट कर रोती रहती है ।और गोद का छोटावाला तो अभी किसी गिनती मे है ही नहीं ।

विवाह की धूमधाम ने कोठी की काया ही पलट दी है । पडोस के परिवार ने शादी के लिये उस कोठी का कुछ भाग महीने भर को किराये पर ले लिया है ।महरी यही है बिरजो की अम्माँ ।महरी की जडें भी गाँव मे ही हैं ,फसल कटने के दिनों मे महरा को छोड कर पूरा परिवार चला जाता है ।

इस कोठी की झाडियाँ रंगीन बल्बों की रोशनी मे चमक रही हैं।रंग-बिरंगी कनातें और पण्डाल ,कालीन और कुर्सियों की कतारें ,साइड मे लॉन से थोडा उधर मेजों पर खाने का प्रबंध -तीन सौ लोगों के खाने की ए-वन व्यवस्था वेज-नानवेज दोनो ।सजे सजाये बैरे ,हर मेज पर खाना गर्म रखने का पूरा इन्तजाम ।लोगों को कॉफी पहुँचाने और खाली कप बटोरने के लिये बैरे इधर उधर घूम रहे हैं ।

गेंदे और मोगरे की झालरों से मंच सजा है ,जयमाल पड चुकी है ।वधू मंच पर रखी सिंहासनाकार कुर्सी पर वर के पास बैठा दी गई है ।दोनो बहुत सज रहे हैं -सबके आकर्षण का केन्द्र।कैमरों की रोशनी बार-बार चमक उठती है ।दीवार के पार चेहरों की संख्या बढ गई है ।लोग खाने की मेजों की ओर बढ़ने लगे हैं ।मिसेज रायज़ादा ,जो मेज़बान घर की बहू हैं तरल से कह रही हैं ,'चलिये न ,खाना खा लीजिये ।"

इतने मे रायज़ादा आगे बढ आये ,' इनसे मिलिये तरल जी ,और ये हैं हमारे परम मित्र असित वर्मा ।'

दोनो के हाथ जुडते हैं ।

'आपको कहीं देखा है !'

'हाँ जरूर देखा होगा ।इसी शहर में रहती हूँ ।'तरल आगे बढ गई ।प्लेट हाथ मे उठाये किसी की पुकार सुन पीछे घूमी ,पता नहीं किसे बुलाया वह खाना परसने लगी ।

ट्रेन की घटना उसके ध्यान में फिर से आ गई ।स्लीपर मे अपनी सीट ढूँते समय अटैची किसी से टकरा गई थी । तेज सी आवाज आई -

'अभी हड्डी टूट जाती तो ..?'

'वह अचकचा कर देखने लगी ,'वेरी सॉरी !'

'हुँह, सॉरी !हमसे कुछ हो जाता तो आसमान सिर पर उठा लिया जाता ।और खुद ऐसे अंधाधुन्ध चलती हैं आगा-पीछा देखे बिना ।'

'देखिये बिगडिये मत ।ऐसा ही है आप मेरे पाँव पर अटैची पटक कर बदला ले लीजिये ,'वह रुक कर खडी हो गई ।

'जाइये,जाइये ,बस बहुत हो गया ।'

कह रहा है कहीं देखा है !देखा क्यों नहीं होगा !ट्रेन की बदमज़गी क्या इतनी जल्दी भूली जा सकती है!

'इन्तजार करेंगी तो करती ही रह जायेंगी ,आगे बढ चलिये ।'पास मे खडी एक सौम्य सी तरुणी ने तरल को आगे बढा दिया ।

'अरे असित दा ,आप यहाँ कहाँ से ?'

'सुमी तुम ?अकेली हो या वो भी हैं ?'

'आये हैं वो उधर ।'

तरु ने आगे बढ कर परसना शुरू किया ,और अपनी प्लेट लेकर साइड मे जाकर खडी हो गई ।अचानक उसकी निगाह दीवार के पार जा पडी ।एक साथ कई जोडी आँखें खाने की प्लेटों पर लगी हैं ।तरु का चम्मच पुलाव की ओर बढ रहा है ,शेरू की आँखों मे चमक आ गई है ,ब्रजमती और कन्हैया भी इधर ही देक रहे हैं । मेहमान चल फिर कर खाना खा रहे हैं बच्चों की और किसी का ध्यान नहीं है।

'अरे आप ये कोफ्ते लीजिये ,'किसी ने चमचा भर कोफ्ते उसकी प्लेट मे डाल दिये ।रसा बह-बह कह हलुये और सूखी सब्जी मे समाया जा रहा है ,घी उतराते शोरबे से सब कुछ सन गया है ।तरु को लग रहा है दीवाल पार से बच्चों की निगाहें खाने पर लगी हुई हैं ।सारी प्लेट कोफ्ते के चिकनाई भरे रसे मे डूबी है।।मुँह मे कौर रखना मुश्किल हो गया है ।

'अरे आप खाइये न।'

ढेर सा खाना सामने रखा है ,खाने की पूरी छूट है फिर बार-बार कहने की क्या जरूरत है !तरु को खीझ लग रही है पता नहीं लोग अपनी पसंद की चीजें दूसरों की प्लेटों मे क्यों भर देते हैं !

पास ही सुमी खडी है ।उसने सिर उठा कर तरु की ओर देखा ,'अपने हिसाब से अपने आप लेना अच्छा रहता है ।कोई परस न दे इसीलिये प्लेट लेकर मै दूसरी तरप खिसक गई ।"

दोनो की आँखें चार हुईं -यह कैसे मेरे मन की बात समझ गई तरल ने सोचा वह भी उसी ओर बढ गई ।

घी से तर शोरबे मे डूबी कोई चीज वह खा नहीं पायेगी ,एकाध कचौरी खाकर प्लेट को यों ही नीये रख देगी तरल ।और लोगों की प्लेटों मे भी आग्रहपूर्क जो डाला जा रहा है उसमे से भी बहुत सा वैसे ही फिंक जायेगा ,कुर्सी पर भरी प्लेटें लिये बैठे बच्चे थोडा खायेंगे और बहुत छोडेंगे ..और वे लोग दीवार के पार से देखते रहेंगे ।

'छोले मे थोडी चटनी और प्याज मिलाओ तो मजेदार लगेंगे ,दो बच्चे बातें कर रहे हैं ।दोनो उठे और अपनी-अपनी प्लेट लेकर मेज की ओर बढ गये ।दीवार के पार से आवाज आई ,'छोले हैं ,दहीबडे ,कचौडी ,पुलान...,'

'और चटनी भी ,'कन्हैया की आवाज ।

तरु को लगा उधर खडे बच्चे मुँह चला रहे हैं ।डेढ हाथ की दूरी पर दीवार के पार से शेरू ,कन्हैया ,ब्रजमती और दो और बच्चे सब देख रहे हैं ,मेज पर रखेी सामगरी ,को ,खाते हुये लोगों को ,और बर्बाद होते खाने को भी देख रहे हैं ।इस जगमगाती रोशनी मे सब साफ़ दिखायी दे रहा है ,बार-बार उनके मुँह चलने लगते हैं ।

महरी बीमार है छोटे बच्चे को लेकर कब की सो गई ।जब तरु इधर आ रही थी ,उसका छोटा बच्चा रो रहा था ब्रजमती कह रही थी ,'अम्माँ ,जे अऊर दूध माँगत है ।'

'अरे दुलाई मे दुबकाय के थपक दे ,भरक के अभै सोय जाई ।'

बडी देर तक बच्चा रिरियाता रहा था और महरी ब्रजमती को डाँट रही थी ,'धियान तो खेल मे लगा है ,नेक चुपाय नाहीं लेत है ।'



'भूखा है अम्माँ ,हमाल कपडन पे मुँह मार रहा है ।'

आग लगी है ओहिका पेट मे ।कहाँ से दूध लाई भर-भर के ?'

महरी बीमार है दूध उतरता नहीं ।बच्चा परेशान करता है तो गुस्सा उतरता है ब्रजमती पर ।

मिसेज कपूर साथ खडी महिला से कह रही हैं ,'बाबा रे बाबा ,हमारा बेटा तो मुश्किल कर देता है ।एक दिन पेपरवाला नहीं आया और ङी आसक्ड मी अ थाउजेन्ड क्वेश्चन्स ।हमें तो एक ही काफी है .वी कान्ट अफोर्ड अनदर।'

दूसरी बोली ,'बच्चे पैदा करना और पालना कोई आसान काम है ?हम तो इन दो में ही भर पाये भइया. उन्हे सम्हालते-सम्हालते रो देते हैं ।नौकर है,आया है फिर भी फुर्सत नहीं मिलती ।'

'पता नहीं लोग तीन-तीन चार-चार कैसे मैनेज कर लेते है ।'

'अरे आप ताज्जुब करेंगी ,हमारी कामवाली के छः हो चुके हैं और फिर फूली घूम रही है ,बिल्कुल तन्दुरुस्त।'

'लाइक वाइल्ड ग्रोथ ।,'मिसेज कपूर के शब्द थे ,'इन लोगों के हो भी जाते हैं पल भी जाते हैं ।नखाने को ,न पहनने को जाडे मे नंगे घूमते हैं ,फिर भी बीमार नहीं पडते ।' 'अरे कुछ पूछो मत ।हर साल एक पैदा कर के भी जस की तस धरी रहती हैं ।यहाँ तो पैदा करना मुश्किल और पालना तो और भी ..कुछ पूछो मत ।'

'यहाँ तो एक पैदा करके ही ढोलक सा पेट हो गया ,हुआ भी ऑपरेशन से ।अपनी तो अब हिम्मत नहीं ।'

मिसेज कपूर ने तीस की हो जाने के बाद शादी की है ।एक ही लडका वह भी सिजेरियन से ,बोलीं ,'हमे तो एक ही पालना मुश्किल है लोग जाने कैसे एफोर्ड कर लेते हैं ।आई वंडर ङऊ डू दे मैनेज ।'

'और बडी आसानी से इनके पैदा भी हो जाते हैं ,न तकलीफ़ ,न कोई खर्चा !बाबा रे बाबा, हमें तो देख कर ताज्जुब लगता है ।एक ही कुठरिया उसी मे बच्चे पैदा होते हैं ,,मरते हैं ,पलते हैं ।जिन्दगी के सारे काम उसी जगह मे ।ङऊ हॉरिबल!'वे सिर हिला कर काँपने का अभिनय करती हैं ।

यहाँ जितनी भी औरतें हैं उनने बच्चा पैदा करने में बडी तकलीफें उठाई हैं ।वैसे सब सुविधायें हैं उनके पास,नौकर ,वाहन ,बँगला ,फ्रिज .टीवी ।और ये महरी मालिन जो पैदा करनेऔर पालने मे माहिर हो गई हैं ,इनके अपने आप पैदा होते हैं ,बडे हो जाते हैं जैसे उन्हें किसी चीज कीअपेक्षा नहीं ।इतनी आसानी से जन्मते हैं जैसे धरती की कोख से अँकुर ।
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टिप्‍पणियां:

  1. ''और ये महरी मालिन जो पैदा करनेऔर पालने मे माहिर हो गई हैं ,इनके अपने आप पैदा होते हैं ,बडे हो जाते हैं जैसे उन्हें किसी चीज कीअपेक्षा नहीं ...''

    ..यहाँ मेहरी और मालिन जिस स्त्री समूह का प्रतिनिधित्व कर रहीं हैं ...उनकी bebasi और ''अपने आप पैदा हो जाने वाले बच्चों की संख्या'' के पीछे की वजहें एक एक कर आँखों के आगे घूम गयीं......
    वैसे यथार्थ यही है..कि ये भी चाहें तो इन कारणों को समूल नष्ट कर सकतीं हैं.....मगर...उसके लिए चाहना पड़ेगा...लीक से हटकर एक उदारहण बनना पड़ेगा... ....हम्म विषय से मैं भटक गयी...मुआफ कीजियेगा...लिखते लिखते क्रोधित हो उठी थी...:(

    'इस जगमगाती रोशनी मे सब साफ़ दिखायी दे रहा है ,बार-बार उनके मुँह चलने लगते हैं '

    'भूखा है अम्माँ ,हमाल कपडन पे मुँह मार रहा है ।'

    ...बच्चे कितनी आसानी से इतनी बड़ी समस्या कह गए ...आज ही देखा था..घर में चाउमीन न बनाकर जगह चावल तल दिए गए थे तो मौसी के एकलौते १२ साल के बेटे को बहुत गुस्सा होते हुए...और ये कहते हुए...''मम्मी आप ऐसा क्यूँ करतीं हैं....अब मैं नहीं खा सकता कुछ...'' और घंटे भर तक इस समस्या पर बहस चलती रही माँ और बेटे में।कोई भी समस्या/या दुःख बनाने से बड़ा बन जाता है....अन्यथा आप हर तरह से जी सकते हैं बिना अपेक्षाओं के।



    khair...

    ''इतनी आसानी से जन्मते हैं जैसे धरती की कोख से अँकुर''

    ये तो...एकदम सच है...सिर्फ बच्चों की बात करें तो जैसे जैसे बैंक में पैसे बढ़ते जाते हैं....इंसान उतना ही नाज़ुक होता जाता है......शायद प्रकृति भी जानती है...कि कहाँ किसके हौसले आज़माने हैं....जैसे ये बात मेडिकल साईंस भी मानती है...लड़कियां प्रकृति से ही मज़बूत होतीं हैं...जी ही जातीं हैं...जन्मदायिनी कि उपेक्षा के बाद भी....और बेटों को आप मेडिकल कॉलेज भी refer कर दें...वे आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के बावजूद अंत तक साँसों के लिए संघर्ष करते ही रहते हैं।
    बहुत देखा है के अगर आपके पास पैसा है...तो सामान्य रूप से होने वाली डिलिवरी भी आपको खटकती है..आप दस बार डॉक्टर से पूछते हैं....सब नोर्मल है ना...ऑपरेशन कि ज़रुरत तो नहीं आदि आदि।

    दूसरी बात....बहुत देर तो ख़ुशी सँभालने में ही लग गयी...:D...आपकी कहानी की नायिका का नाम तरु है...हमेशा से चाहती थी..अपना नाम भी कहीं देखूं इस तरह से...:) और उससे भी बड़ी अचरज की बात कि....उसकी भावनाएं भी एकदम मेरे जैसीं हीं हैं।

    आप सोच रहीं होंगी कि इतनी simple सी कहानी पर इतना क्यूँ लिख रही हूँ..?? :)
    अपने नाम की वजह से,रोज़मर्रा इस तरह के cases देखने और अपने पसंदीदा विषय के कारण बहुत सीधी सादी सी आपकी कहानी मेरे लिए ख़ास बन गयी थी।

    :)


    ''शुक्रिया''
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  2. इतना बारीक वर्णन!!
    कभी किसी बंगाली उपन्यास में पढ़ा था कोई ४ साल पहले।
    जैसे प्लेटें, खाने के पकवान, बच्चों की आँखें सब जीवन हो उठीं हों, दृश्य-दर-दृश्य।
    तरल, यह नाम बहुत अच्छा लगा। बहुत अलग।
    अब तरल, तरु (वैसे एक ऊपर है), असित नाम कम ही आत़े हैं सुनने में, तो बहुत भले लगे।
    ऐसे मनोभाव, ऐसा चित्रण, ऐसा साहित्यिक शिल्प नहीं मिलता पढने को आसानी से अब।
    और प्रथम अनुच्छेद के सौंदर्य के लिए विशेष आभार!

    पहले पहला अंश पढना था, अब दूसरा पढूँगा... और की प्रतीक्षा रहेगी।
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं

2 .
बाहर अथाह अंधकार ट्रेन भागी जा रही है.थ्री-टियर के इस डब्बे में सब सो गये लगते हैं .रह-रह कर उठती खर्राटों की आवाजें सन्नाटे को भंग कर देती हैं,नहीं तो वही एकरस पहियों की घड़घड़ाहट और भाप की सिसकारियाँ.
असित को नीचे की बर्थ मिली है.ठण्डी हवा के डर से मुसाफ़िरों ने सारी खिडकियों के दरवाज़े बन्द कर दिये हैं.इतने लोगों की साँसें और ताजी हवा बिल्कुल भी नहीं - उसे घुटन-सी लगने लगती है.सिगरेटों का धुआँ वातावरण मे घूम रहा है ,निकलने की राह ढूँढता-सा.
असित ने अपनीवाली खिडकी आधी खोल दी,सरसराती हुई ठण्डी हवा का झोंका भीतर घुस आया,रोंगटे खडे हो गये,उसने कंबल अच्छी तरह लपेट लिया.रात का डेढ़ बज रहा है,उसे वैसे भी नींद देर से आती है,ट्रेन मे तो ठीक से सो ही नहीं पाता
.पेड़ों के धुँधले आकार उल्टी तरफ दौडते चले जा रहे हैं.कहीं-कहीं रोशनी के बिन्दु चमक जाते हैं फिर शीघ्र ही आँखों से ओझल हो जाते हैं:रह जाता है वही अशेष अँधेरा और धुँधले आकाश में टिमटिमाते थोडे-से सितारे .
शीतान्त की सूखी,उजाड़ हवायें निर्बाध चल रही हैं -डाले़ं झकझोरती ,पत्ते गिराती ,जमीन पर पड़े सूखे पत्तों को खड़खड़ाती, बटोरती ,उडाती हुई.
ट्रेन में यों ही सफर करते अनगिनती रातें गुजर जाती हैं.कभी-कभी असित को लगता है,जैसे उसके पाँवों में सनीचर है जो कहीं टिकने नहीं देगा .यों ही चक्कर काटते सारी जिन्दगी बीत जायेगी .और ऐसा है भी कौन जो उसे रोक ले ,बाँध कर रख ले !अपनेपन की क्या परिभाषा है वह आज तक नहीं समझ पाया.परायों ने अपनापन दिया और जिन्हें दुनिया में अपना कहा जाता है,उनसे मिला सिर्फ शिकायतें,उलाहने ,नसीहतें !वे समझना नहीं चाहते सिर्फ समझाना चाहते हैं ,अपनी दृष्टि से उसे वह सब दिखाना चाहते हैं जिसे उसने खुली आँखों से देख कर अच्छी तरह समझ लिया है.उनकी बातें असित के गले नहीं उतरतीं इसलिये वह उनसे दूर भागता है ,अवकाश का कोई क्षण उनके साथ बिताना नहीं चाहता .उनके साथ बिताया गया समय उसके मन पर बोझ बन जाता है ,जो लम्बे समय तक उसे ढोना पडता है.उसने चुनी भी है यह घूमनेवाली नौकरी- एक प्रसिद्ध फर्म का मेडिकल रिप्रोजेन्टेटिव , महीने में जिसके बीस दिन टूर पर बीतते हैं.

कभी-कभी कैसी अजीब बातें करने लगते हैं घर के लोग !बडी बहिन का ब्याह हो गया,जब मिलती हैं शिकायत करने लगती हैं - "भइया तुम्हें तो किसी से लगाव नहीं ,मेरे घर से होकर निकल जाते हो!एकाध दिन रुकने का मन नहीं होता ?----हाँ,सोचते होगे भाञ्जे -भाञ्जी कुछ फर्माइश कर देंगे !"

बच्चों की फर्माइशें पूरी करने में तो आनन्द आता है पर बड़ों की दिन-रात की नसीहतें कहां तक झेले. वह सोचता है कहता कुछ नहीं .कोई भी बात होने पर सुनने को मिलता है-मामा हो और अच्छे-खासे कमाऊ !कर नहीं सकते क्या ?

फिर श्यामा की शिकायतें शुरू हो जाती हैं," मुझे तुम्हारे लिये कितना लगता है तुम समझ नहीं सकते !शुरू से कितना करती रही हूँ तुम्हारे लिये --अब तुम अच्छा- खासा कमाने लगे हो, मुझे तो बड़ी खुशी होती है !"

अच्छा-खासा कमाने वाला ! हाँ ,उनके हिसाब से तो अच्छा खासा ही है .ठाठ भी हैं.पर यह पेशे की जरूरत है . न चाहूँ तो भी मुझे ऐसा रहना पड़ेगा-अप-टू-डेट,एकदम कसा-कसाया ,चौकस.अपने फैशनेबुल होनेके बारे मे सुनकर उसे हँसी आती है मन-ही-मन,पर कुछ कहना बेकार है सो चुप लगा जाता है.

रिश्तेदार हमेशा समझाते हैं कि अब उसे क्या करना चाहिये .उनकी पसन्द की गई लडकी से शादी कर ले,दान- दहेज अच्छा मिलेगा पैसे की कमी नहीं रहेगी घर में !वे खोद-खोद कर पूछते हैं तुम्हारा खर्च क्या है?घर में कितना देते हो ,अलग एकाउन्ट खोला?

असित ऊब जाता है इस सब से.उन लोगों के पास जाने का मन नहीं होता .वैसे भी उसका रिजर्वेशन होता है -बीच  में उतरना संभव नहीं होता .सबके लिये करने की कोशिश करता है पर किसी को संतुष्ट नहीं कर पाता .कमाई का एक चौथाई रख बाकी सौतेली माँ के हाथ में पकडा देता है.उसकी अपनी जरूरतें टी.ए. वगैरा से ही पूरी हो जाती हैं.श्यामा से राखी बँधवाने जाता है,बाबूजी और राहुल की शर्ट का कपडा खरीद लाता है.घर के छोटे-मोटे काम जो उसके बस के हैं करता रहता है,छोटे भाई-बहिन की पढाई के बारे में पूछता रहता है ,,रश्मि की चुटिया पकडना भी नहीं भूलता .कहाँ कोई कमी रह जाती है?
फिर प्यार किसे कहते हैं?क्या परिभाषा है उसकी ?उसे तो लगता है दुनिया के रिश्ते बदलते रहते हैं.इन्हीं  मां के सामने पहले बडी घबराहट होती थी ,अब कुछ नहीं लगता .सगी बडी बहिन श्यामा पहले बहुत ध्यान रखती थीं,अब शायद उसका बदला पाना चाहती हैं.पिता पितृत्व को भुनाना चाहते हैं ,छोटे भाई-बहन आते ही किस गिनती में हैं?

असित को याद है बचपन में उसके भूखे रहने पर श्यामा खाना नहीं खाती थी,सौतेली मां के उकसाने पर पिता उसे पीटते थे तो रोती थी.और अब?अब सुबह चाय पीकर निकल जाता है.फिर किसी को उसकी, चिन्ता नहीं होती.सब सोच लेते हैं बाहर खा-पी लेता होगा पैसा है जेब में.हाँ खाना तो पड़ता ही है पर क्या जी भरता है उससे !
सौतेली माँ चाहती हैं वह  उनकी पसन्द की हुई लडकी से विवाह कर ले जो आयेगा उससे रश्मि का दहेज पूरा होगा .पर असित वहाँ करने को बिल्कुल तैयार नहीं.उस पर लादे गये एहसानो का ब्यौरा पहले ही वहां पहुँच चुका होगा, इसलिये वहां सहज संबंध नहीं बन पायेंगे .
माँ जो हैं सो तो हैं, पर असित को अपने पिता पर सोच लगता है .कितने क्रूर हो गए थे वे !क्या जवान पत्नी के तुष्टीकरण के लिएउससे भी अधिक निर्दय हो कर पहली के बच्चों पर अत्याचार करते थे?सुधा तो तीनों में सबसे बडी थी ,पूरा घर सम्हालती थी लेकिन कितना क्रूर व्यवहार होता था उसके साथ !.
सुधा को मारने-पीटने के बाद युवा पत्नी के साथ उनकी वे कामुक चेष्टाएँ .उन्हें दरवाज़ा बंद करने का भी होश नहीं रहता था या सौतेली माँ को इसमें अधिकसंतोष मिलता था?
उनके तलुये सहलाना उनके बालों में तेल डालना .एक अधेड़ आदमी का यह सब करना उन्हें यह भी नहीं लगता था ,बड़े-बड़े बच्चे सब देख -सुन रहे होंगे .
कहाँ भाग कर चला जाए समझ में नहीं आता था.
श्यामा और असित छोटे थे -उन्हें अक्सर ही हफ़्तों के लिए रिश्तेदारों के पास भेज दिया जाता था और सुधा उनकी चाकरी करने को रोक ली जाती थी .ज़रा सा चूकने पर दुत्कार-फटकार,मार-पीट और खाना बंद. हमेशा सहमी-सहमी सी रहती थी.इतनी दुर्बल होकर वह इतना काम कैसे कर लेती थी असित आज भी सोचता रह जाता है.

घर का माहौल जिस अजनबीपन से भरा है उसमें उसकी गृहस्थी बसे वह यह सोच नहीं पाता .

ऐसी अजीब परिस्थितियों में बचपन कटा है,इसीलिये स्वभाव भी विचित्र हो गया है .उसे लगता है वह कैसे पल गया !पला या जबरदस्ती बड़ा होता गया ?
पहले श्यामा के मन में उसके लिये ममता थी पर ममता का स्रोत भी धीरे-धीरे सूख जाता है.

कोई स्टेशन आया है ,गाडी रुक रही है .
सुबह पड़ेगा गाज़ियाबाद -शायद दो-चार दिन रुकना पड़े.फिर यात्रा,यात्रा और यात्रा .

"गरम चाय,चाए ए गरम --."
एक कुल्हड़ चाय पीने की इच्छा हो आई..

साइड की बीचवाली बर्थ से कोई उठ रहा है ,नीचे उतर कर पूछ रहा है ",मनो ,एई मनो ,चाय पियोगी ?"

"अरे बाबा ,यहाँ कहाँ मिलेगी ढंग की चाय ?"

बोलनेवाली मनो ही होगी .रजाई हिली ,,बिखरे बाल और टेढी बिन्दीवाला चेहरा बाहर निकल आया .बीच की बर्थवाले ने मनो की लटकती रजाई को सीट के ऊपर किया .

"न पियो ,मुझे तो मिट्टी के कुल्हड़वाली चाय बड़ी सोंधी लगती है."

"हाँ,उसमें घुला गुड़ और सोंधा लगेगा ."

"चलेगा ,वह भी चलेगा ."

आसित ने सिर आगे बढ़ा कर आवाज दी ,"एई, चायवाले !"

बीच की बर्थवाले ने कहा ,"भाई साहब, एक चाय इधर भी."

मनो ने रजाई मुँह तक खींच ली है.
**
3.
एक से एक अजीब लोग भरे पड़े हैं दुनियां में . और डाक्टर ! डाक्टरों की तो कौम ही निराली है !कोई दो प्राणी एक से नहीं .
असित घूमता फिरता है हाथ में बैग लटकाकर - स्मार्ट बना .और जीभ जैसे टेपरिकार्डर -हिन्दी अंग्रेजी दोनो फर्राटे से.डॉक्टरों के सामने बैठ कर टेप चल गया तो चल गया .फिर पूरा बजे बिना कैसे रुक जाए. बस चालू हो जाता है,"यह गोली है हमारी फार्मेसी की नई ईजाद !जुकाम हो ,बुखार हो सिर में दर्द हो,बदन में दर्द हो बस गुनगुने पानी से एक गोली मरीज को दें .ज्यादा सीरियस हो थोडी देर में रिपीट कर दें ,फिर देखिये दर्द छू-मन्तर !.....पन्द्रह मिनट में असर करने लगेगी ,घन्टे भर मे पूरा आराम .कोई बुरा साइड इफेक्ट नहीं ,और बच्चे तक के लिये मुफीद है . इसका फार्मूला बडी खोज-बीन के बाद हमारे केमिस्टों ने तैयार किया है .इन्टरनेशनल लेविल तक पहुँचे हुये केमिस्ट हैं हमारे ! हर स्टेज पर टेस्ट किये हैं,साल भर तक खूब आजमा चुके हैं.ये सैम्पुल !मुस्तैदी से सैम्पुल निकाल कर पकडाता हुआ कहता -ट्राई करके देखिये "

और अंग्रेजी में शुरू हो जाये तो ऐसा गोल-गोल मुँह बना चबा-चबा कर उच्चारण करेगा जैसे हिन्दी का अक्षर तक मुँह में न गया हो.कुछ डाक्टर तो सिनिक समझते हैं इन मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव्ज़ को,सोचते हैं अच्छा उल्लू फँसा न.इधर-उधर के दर्जनों टॉपिक निकाल लेंगे ,दवा पर कोई टिप्पणी नहीं .असित को पीछा छुड़ाना मुश्किल. फिर चाय का दौर चलेगा और पेमेन्ट करेगा बेवकूफ असित.

दूसरी तरह के डाक्टरों से भी पाला पडता है -हर कम्पनी की आलोचना और बुराइयाँ .हर दवा में नुक्स निकालना उनकी हॉबी हो जैसे !अरे, जब एलोपैथी में विश्वास नहीं था तो काहे पढ़ी डाक्टरी?बेकार इत्ता समय बर्बाद किया ,बाप का पैसा खर्चा सो अलग .इससे तो पान की दूकान खोल बैठते कोई साइड इफ़ेक्ट भी नहीं होता और मुफ्त में दुनिया भर की पॉलिटिक्स डिस्कस करते, चूना लगाते मौज की जिन्दगी गुज़रती !
एक तीसरी किस्म और भी है -बडे प्रेम से बात सुनते हैं और सैम्पुल लेकर रख लेते हैं फिर वह टॉपिक क्लेज.और चौथी प्रकार का डॉक्टर बड़ा दुर्लभ है -अच्छाई-बुराई पर रीजनेबल ढंग से चर्चा करते हैं, इन्टरेस्ट लेकर सीरियसली बात करते हैं -क्या फ़ार्मूला है इस पर भी विचार-विमर्ष हो जाता है.

हर जगह थोडी-बहुत दोस्ती पाल रखी है असित ने.

पर लेडी डॉक्टरों के पास बड़ा अजीब-सा माहौल!पहली बात तो अधिकतर उनके पास वही केस आते जो पुरुष डॉक्टरों को बताते संकोच लगता है और ऐसी दवाओं से वास्ता नहीं रखती गुडसन फार्मेसी .जी मिचलाने ,चक्कर आने की दवा चाहिये! एक से एक एनीमिया की पेशेन्ट,झुर्रीदीर ,धब्बेदार पेशेन्ट गर्भ धरण किये चली आरही हैं. किसी को दुई महीना चढे हैंकिसी को छठा है ,कोई एडमिट होने को तैयार.पूछो कौन सा बच्चा है तो पहलौठी से लेकर ग्यरहवाँ और चौदहवाँ तक .असित बेकार है इन मामलों में,उसकी कम्पनी को इस सब से कोई मतलब नहीं

शुरू में कई बार लेडी डॉक्टरों के पास पहुँचा पर वहां के मरीजों का हाल ही कुछ और देखा.अब तो अस्पतालों की डॉक्टरनियों के पास चला जाता है या साफ़ बचा जाता है.वे कहती हैं," हाँ ,ये दे जाइये .पर हमारे मरीज दूसरी किस्म के होते हैं."औरउसकी ओर देख कर मुस्करा देतीं .
असित बेवकूफ सा बैठा रह जाता.शुरू-शुरू मे वह आँखें झुका लेता था अब तो धृष्ट बना देखता रहता है.कभी-कभी मुस्करा भी देता है.

"फिजीशियंस सैम्पल " की मुहर लगी दवायें बाँट आता है.पर कुछ डॉक्टर तो उन्हें भी बेंच लेते हैं.मेडिकल स्टोर्स से खूब पटाये रखता है-असली खपत तो वहीं होती है.इसीलिये केमिस्टों से दोस्ती गाँठने मे विषेश रुचि लेता है.उसने सोच लिया है जहाँ अधिक सप्लाई हो वहीं के लिये फार्मेसी के थर्मामीटर और शो-पीसेज ,बाकी जगह कैलेण्टर और की-रिंग से काम चलाना है.अधिक कुछ कहनेवालों को पेन-स्टैँड और पेपर-वेट तक सीमित रखना है.खास-खास गिफ्ट्स हरेक को कैसे दी जा सकती हैं ! जहाँ माल की माँग और खपत हो वहीं दाना डालता है ,हरेक को मुँह नहीं लगाता.

सुबह से रात तक की दौड़ और थकान !मन ऊबने लगता है तब चाह होती है मनोरंजन की -ऐसा मनोरंजन जिसमे तन-मन डूब जाय और तरो-ताजा होकर बाहर निकले.

असित कोई अकेला तो है नहीं इस लाइन में ,और बहुत से हैं एक-दूसरे को समझनेवाले ,कम्पनी देनेवाले.

अच्छी कमाई ,ठाठ का रहन-सहन, सारी टीमटाम है. लड़कीवाले दौड रहे हैं.हाँ कहने भर की देर है.लडकियों की तो भरमार है इस देश में,साथ में अच्छा-खासा दहेज भी !माँगने जरूरत नहीं अपने आप देंगे वे.जितेन्द्र का विवाह तय हो गया है.दोनों कई बार साथ घूमते देखे गये हैं.सुहास चन्द्रा को भी घेरा जा रहा है.

"क्या बतायें यार घर पे सब लोग पीछे पडे हैं ,हाँ कहना ही पडा .बडी स्मार्ट और ब्यूटिफुल है .सारी गृहस्थी मिलेगी साथ में."

"अच्छा है ," असित प्रत्युत्तर में कहता है,फँसना तो हई फिर अच्छी तरह देख कर फँसो.अपने यहाँ तो घरवालों को लगता हैकि मैनें भी कहीं चक्कर चला रखा है.,इसीलिये तैयार नहीं होता ."

"तो चला लो चक्कर.कमी क्या है?---या मोटा आसामी ढूँढ रहे हो?"

असित मुस्करा देता है.

''अभी जल्दी क्या है,चार-पाँच साल तो यों ही निकल सकते हैं:और फिर अभी तो लोग लिफ्ट देते हैं फिर घास भी नहीं डालेंगे."

"लिफ्ट देनेवाले बहुत मिलेंगे,खुद में दम होना चाहिये .फर्म पैसा दे रही है,काम ले रही है.डट कर काम करो ,जम कर इनज्वाय करो.क्यों असित ,क्या खयाल है ?"चन्द्रा ने आँख मारी .

"दुरुस्त है. ये डिमाण्ड -सप्लाईवाली बात ठीक है .टेम्परेरी तौर पर सब चलता जाता है . पर मुझे लगता है जब तक किसी के बारे में कुछ पता न हो कैसे जिन्दगी भर के लिये  बँध जाया जाय .अनजानी लडकी के साथ शरीर के संबंध जोड़ना कैसा अजीब लगता होगा !"

ठहाका मार कर हँसे वे लोग.

" जैसे कभी जोड़ा नहीं होगा किसी से !अरे ऐसे जोड़ा वैसे जोड़ा बात एक ही है.आदमी को हर जरूरत पूरी करनी है.क्यों होटलों-रेस्तराओं में क्या-कुछ नहीं होता ?"

एक और आवाज उठी,"अरे ,पहचानी से जोड़ लो.पहले संबंध जोड़ लो फिर शादी कर लो."

"जिस-जिस से जोड़ें सब से कैसे की जा सकती है?"जितेन्द्र की आवाज थी.

फिर हँसी का एक दौर.

"बत्तमीजी मत करो,अभी मैं सीरियस नहीं हूँ.गृहस्थी चलाना मेरे बस का नहीं है .पाँव में चक्कर है,जिन्दगी भर घूमना पडेगा .किसे-किसे गले से बाँध लूं?"
''गले से बाँधो ,ये किसने कहा   .......?'',
सम्मिलित हँसी से काफी-हाउस गूँज उठा.कुछ लोग चौंक कर देखने लगे ,

"सुहास चन्द्रा की एक यहाँ भी है,आज उसने कमरा रिजर्व कराया है.चाहो तो असित तुम भी शेअर कर लो."

"सुहास को ही मुबारक हो!"


***
(क्रमशः)

4 टिप्‍पणियां:

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  2. ''ऐसी अजीब परिस्थितियों में बचपन कटा है,इसीलिये स्वभाव भी विचित्र हो गया है ''

    बहुत अच्छी तरह समझ सकती हूँ ये पंक्तियाँ.......:)..परिस्थितयां बहुत अहम् भूमिका अदा करती हैं एक व्यक्तित्व को बनाने में......

    असित से साक्षात्कार अच्छा लगा........MR's की दुनिया से भी वाक़िफ हूँ...आपकी पोस्ट पढ़कर एक सवाल मन में तैर रहा है......क्या हमेशा ही इंसान को किसी अपने की ज़रुरत होती है.....?? अभी हाल ही में मैंने इसका जवाब 'ना' में ढूँढा है....इसलिए पूछ रही हूँ..:)

    ..हम्म वैसे...जवाब मेरे पास ही है...मेरी ''ना'' का आधार दूसरों की सच्ची सेवा थी...एक तरह का सहारा ही हुआ खुद के लिए.....तथाकथित 'अपनों' का समानार्थी...

    ''फिर प्यार किसे कहते हैं?क्या परिभाषा है उसकी ?उसे तो लगता है दुनिया के रिश्ते बदलते रहते हैं''
    ..सही है.....रिश्ते बदलते रहते हैं......सब कोई सब कुछ कर सकते हैं......सौतेली माँ अतीव प्रेम दे सकती है......जन्मदायिनी बच्चे को मार सकती है.....वगैरह वगैरह !!

    डॉक्टरों की जो किस्मे बतायीं गयीं......वो ज़रा अच्छी नहीं लगीं..:)..हालाँकि अपनी जगह सही हैं...मगर बस सुनने में पसंद नहीं आयीं.......निर्भर करता है....आप किस समय डॉक्टर से मिल रहे हैं.....मरीजों की चिंता....व्यस्त दिन...और सबसे ऊपर..डॉक्टर भी एक इंसान हैं...वो भी अपने स्तर पर सांसारिक परेशानियों और तनावों से जूझतें हैं......:) वैसे आजकल लोग इतने व्यस्त हैं पैसे कमाने में.....कोई कहाँ MR संग बातें करेगा..ज़माना बहुत बदल गया है प्रतिभा जी...आप तो बेहतर समझती होंगी..:)
    'मेरी माँ भी डॉक्टर ही हैं...एक दफे एक MR को बुरे से डांट बैठीं..व भी एकदम सन्न रह गया.....मैं अंदर से सुन रही थी...बड़ा दुःख हुआ...माँ को कहा ...वो बोलीं...बेटा ३०० मरीज़ वहां OPD में बैठें हैं.....मैंने उनको बोला संक्षेप में बता दीजिये...मगर वो पूरी drug एक्सप्लेन करने लगे...शाम के ५ बजें हैं..खाना तक नहीं खाया...सो गुस्सा आ गया था..' तो यूँ भी हो जाता है कभी...मगर यही सोचती रही मैं...कि जाने वो MR की मानसिक स्थिति क्या रही होगी...आजकल यूँ भी कोई खुश तो है नहीं...अपनी अपनी सबको तकलीफें हैं ..:( आपकी ये पोस्ट पढके..असित की जिंदगी जानकर वो पुरानी छोटी सी खरोंच फिर दुखने लगी...... :(
    (क्षमाप्रार्थी...अपनी छुटकू सी व्यथा यहाँ लिखने के लिए..)

    खैर......
    ''और अंग्रेजी में शुरू हो जाये तो ऐसा गोल-गोल मुँह बना चबा-चबा कर उच्चारण करेगा जैसे हिन्दी का अक्षर तक मुँह में न गया हो.''

    बड़ा अच्छी पंक्ति है ये वाली...:) वाक़ई ऐसा ही होता है......

    agli kisht aayegi agar to इंतज़ार रहेगा...जल्दी पोस्ट कीजियेगा...:)

    chaliye shubh raatri...waise ye main apne liye kehti hoon...:)...aapka din shubh rahe..:)

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  3. तरल के बाद असित से परिचय हुआ। पहले के अनुच्छेदों में कुछ कुछ अपने आप को ढूंढता हूँ। हम सब भी तो किन्ही तरल में, असित में स्वयं को देखते/पाते हैं। ऊहापोह, असित के मनोभाव, बदलते सम्बन्ध/प्राथमिकतायें और डॉक्टरों की पड़ताल एक बाहरी दृष्टी से। रोचक है इतना विस्तृत/जीवंत पढना।

    मैं जरा पीछे-पीछे चल रहा हूँ, आशा है आप क्षमा करेंगी। हालांकि यह मेरे लिए अच्छा ही है, प्रतीक्षा नहीं करनी होती।

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