गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

कृष्ण-सखी - 4.


4.

यहीं से विषम जीवन को झेलने की शक्ति मिलती है .

वनवास काल में कृष्ण के साथ उन्मुक्त व्यवहार - कोई रोक-टोक नहीं .जब पाँच-पाँच पति सिर झुकाये बैठे रहे थे और एक पर-पुरुष ने लाज बचाई ! संसार की दृष्टि में वह पर पुरुष होगा पर मेरे लिये वह इन पतियों से अधिक विश्वस्त है , मान्य है .
मान्य तो पहले भी था,अब अनन्य हो गया. किसी पति का कोई दखल नहीं वहाँ .जहाँ कृष्ण हैं वहाँ कोई संशय, कोई भ्रम नहीं .

अनमनी बैठी है पांचाली ,अपने ही सोच में मग्न .

'जीवन की स्वाभाविकता बनी रहे .' यही तो कहा था उसने

'और त्याग ?व्यर्थ में उसे ओढ़ने की जरूरत क्या है ?जीवन मिला है ग्रहण करने के लिये ,जो मिला है स्वीकार करो .भागो मत ,त्यागो मत.मत करो स्वयं को वंचित- प्रवंचित !

'पांचाली , मीत हो तुम मेरी !स्त्री-पुरुष की मैत्री दोनों को उठाती है . इन्द्रियातीत भावना अंतरतम की गहराइयों तक उतरती हुई आत्मा का उन्नयन करती है .तम्हारा हृदय जब मुझे पुकारता है ,जब भी सचमुच तुम्हें जरूरत होती है मैं दौड़ा चला आता हूँ .'

मन की द्विविधा मुख पर आ गई थी

'सामान्य नारी का जीवन कहाँ रह गया मेरा?.. लगता है मेरी बारी आते ही... जैसे सब कुछ बदल जाता है.सबकी एकदम अलग प्रत्याशाएँ ..मुझी से .. जो आदर्श घुट्टी में पिलाए गए हैं उन्हें उतार फेंकना भी क्या इतना आसान है?'

'समझती क्यों नहीं कृष्णे . तुम्हें चुना है नियति ने कुछ विशेष होने के लिए .'

'नहीं, प्रश्न निष्ठा का है '

'उसके होने न होने का प्रश्न ही कहाँ ?जो तुम पर लाद दिया गया है निभा रही हो . अपने सुख के लिये तुमने कुछ नहीं किया ,फिर यह कुंठा क्यों ?सबसे विवाह तुमने स्वेच्छा से नहीं किया .सोचने का ढंग बदलो ,ये सब बनाई हुई रीतियाँ हैं .'

'पर सबको बराबर हिस्सा ,सब से एक सा व्यवहार, एक-सा समर्पण ..कैसे..कैसे ? 'जैसे आत्मालाप कर रही हो -

'कुन्ती बुआ के मन की बात थी -उनके पुत्र इस विषम काल में बिखर न जायँ . वही तो कर रही हो तुम. साधे हो सबको .

अन्याय किसी पर न हो, इस किसी में तुम भी सम्मिलित हो .सहज होकर वही करो मन जिसकी गवाही दे . पांचाली, पाँचो तो उँगलियाँ भी बराबर नहीं होतीं !
.समझती क्यों नहीं तुम उनकी विवशता!,तुम्हारी बुद्धि कहां सो जाती है ?..

जानता हूँ यह अपराध- बोध क्यों - मन का विशेष अनुराग अर्जुन के लिये न ?

द्रौपदी चुप.

'स्वयंवरा थीं .उसे वरा था तुमने .बीच में कोई नहीं था . किसी के साथ अन्याय नहीं था ,.शंकित मत होओ .अगर पुरुष में छूत नहीं तो नारी में भी नहीं'.

'तुम कैसे निभा पाते हो इतना और फिर भी निश्चिन्त?'

.'आदर्श इतने भारी क्यों बना ले सखी,कि वे जीवन पर लदे रहें !व्यावहारिक जीवन में न्यायसंगत , और स्वयं संतोष देनेवाला व्यवहार उचित नहीं क्या?'

'पर मैं कितनी विभाजित हूँ किससे आशा करूँ ?सब एक दूसरे से बँधे हुये ,एक दूसरे का मुख देखते हुए।एकान्त भाव से न मैं किसी की पत्नी बन सकी न कोई मेरा पति --कहां है मेरी संपूर्णता .'

कृष्ण ने हाथ पकड़ लिया है,' गंभीरता से मत लो सखी !खेल समझ कर खेलो ,स्वयं को सहज रख कर कर जितना कर सको .आरोपित वस्तुएँ ऊपर -ऊपर से ही बीत जाएँ .विचार की प्रखरता दुख का कारण क्यों बने ?'

'और जब मुझ पर आरोप लगेंगे ?'

'कौन लगाएगा ?किसी ने तुम्हारे आरोपों का निराकरण किया?
यह जीवन के दाँव हैं सबके अपने .हर कोई खेल रहा है यहाँ .चालें चली जा रही हैं सब खत्म हो जायेगा खेल के साथ.'

द्रौपदी सोचती रह जाती है

कैसे समाधान करें कृष्ण !

 '....जो जैसा है वैसा ही रहने दो ,अपने पूर्वाग्रह मत थोपो. सत्य को जीना जीवन है . हम यहाँ सत्य को बदलने नहीं उसकी वास्तविकता के बीच अपने व्यवहार को माँजने आये हैं ,जिस भी रूप में वह सामने आता है जियो सबसे तटस्थ ,अपने अनुसार .
सौंप दो अपने को इन लहरों में ,बहे जाओ .सहज रूप से. क्योंकि इससे बचने का कोई उपाय नहीं .कहीं निस्तार नहीं .विराट् चेतना के अंश रूप में इस दृष्य-जगत की साक्षी बनती चलो .फिर कोई कर्म तुम्हें नहीं व्यापेगा .'

उसाँस भरी पाँचाली ने - कितना कठिन है निभाना !

कैसी -कैसी बातें कितना तटस्थ हो कर कह जाता है यह .और मैं लाचार सुनती हूँ .कोई उत्तर नहीं होता मेरे पास . लगने लगता है मैं स्वयं को भी उतना नहीं जानती जितना यह जानता है .मैं उससे हार जाती हूँ .

कैसा है यह मेरा मीत !
अंतर तक पढ़ लेता है .मेरा कुछ छिपा नहीं रहता उससे .
मुझे ही मेरे सामने खड़ा कर देता है ,मेरा सच उद्घाटित हो जाता है उसके आगे, नकार नहीं पाती मैं .उसके आगे मैं अपने सहज रूप में रह जाती हूँ - आडंबर-आवरण रहित.जैसे दर्पण में अपने आप को देख लिया हो .
भरी सभा में मेरी नग्नता पर आवरण डालनेवाला वही तो था .मेरी लाज का रखवाला वही तो था ,मेरा सखा ,मेरा मित्र !
क्यों याद आता है वही बार-बार - मैं उस दारुण क्षण को भूल जाना चाहती हूँ !
खो देना चाहती हूँ अपने आप को किसी बीहड़ में जहां स्वयं अपनी सुध न बचे .
बस तुम्हें याद कर आश्वस्ति मिलती है.
मीत मेरे , मैं स्वयं नहीं समझ पाती तुम्हें ,कैसे कलाधर हो- चंद्रमा की सारी कलाएं एक पंक्ति में खड़ी हो जाएँ तो भी तुमसे उन्नीस ही रहेंगी !
*
(क्रमशः)



7 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल सही कहा। समझ तो कई बार शायद पहले भी आ जाता है मगर हम अपनी कामनाओं के चलते शायद उसे अन्सुना कर देते हैं द्रोपदी की तरह। कहानी के भावनात्मक पहलूयों को शायद पहली बार किसी ने अन्दर तक छूआ है। धन्यवाद।

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  2. कमाल की कल्पना शक्ति और शब्द सामर्थ्य पायी है आपने ! शुभकामनायें आपको!

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  3. कृपया शीर्षक को ठीक करें ....

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  4. शकुन्तला बहादुर19 फ़रवरी 2011 को 11:26 pm बजे

    पांचाली और कृष्ण के वाद-संवादों ने अत्यन्त मनोवैज्ञानिकता से
    मन के सूक्ष्मातिसूक्ष्म मनोभावों को उकेरा है,जो शंकाओं का समाधान तो करते ही हैं,जिज्ञासाओं को भी शान्त करते हैं।
    प्रतिभा जी की अद्भुत कल्पना-शक्ति,अर्थ-वैचित्र्य और भाव-गांभीर्य
    पाठक के मन को इस तरह भावविभोर कर देता है कि वह देर तक
    उसी में डूबा रह जाता है।तदर्थ आभार!!

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  5. 'कैसी -कैसी बातें कितना तटस्थ हो कर कह जाता है यह .और मैं लाचार सुनती हूँ .कोई उत्तर नहीं होता मेरे पास . लगने लगता है मैं स्वयं को भी उतना नहीं जानती जितना यह जानता है .मैं उससे हार जाती हूँ .'

    कितना अजीब है ना प्रतिभा जी....श्रीकृष्ण के सम्मुख होते हुए भी द्रौपदी का अंतर्द्वंद जारी ही है....उनके इतने समझाने पर भी उसे शांति नहीं.....आपकी पोस्ट पढने के बाद यही सोच रहीं हूँ......द्रौपदी के जीवन से बड़े बड़े संकट और मन के अंतर्द्वंद आम इंसान भी झेलते ही होंगे.....बिना किसी कृष्ण के......हाँ उनके नाम के सहारे ज़रूर चलते हैं मगर फिर भी.....जब द्रौपदी के रु-ब-रु होते हुए भी कृष्ण को इतना सारा कहना पड़ रहा है.....तो क्या वे इंसान द्रौपदी से भी ज़्यादा हिम्मतवाले कहलाये जायेंगे..?? बहुत असमंजस वाली मन:स्थिति हो रही है....:( शायद फिर से ये पोस्ट पढ़ना पड़ेगा किसी और मूड में.....अभी तो मन कहीं और ही भटक गया...:)

    बहुत आभार...आपके अनुभव से बहुत सीखने को मिलता है...लेखन के लिए भी पर उससे कहीं ज़्यादा मनन और चिंतन के बाद मेरे हाथ जो आपके अनुभव और ज्ञान की एक दो बूँदें आतीं हैं....वही पूँजी है अपनी तो .. :)

    (विशेष आभार कर्ण वाले हिस्से के लिए.....कर्ण के लिए जी बहुत जलता आया है हमेशा से..आपके आज के मतलब इस पोस्ट के शब्दों ने जैसे उस पर सर्द फाहे रख दिए....)

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  6. सखाभाव से की गई वार्ता, क्या कुछ, संभवतः सबकुछ सामने ले आती है।
    मित्रों के मध्य रखे गए कटु सत्य भी विश्लेषण लगते हैं, आक्षेप नहीं।
    कृष्ण-कृष्णा के मध्य की वार्ता, पांचाली का अंतर्द्वंद आपके कुशल शब्दों में जानना अच्छा लगा।

    और जो बात द्रौपदी से न कह सके कृष्ण, उस पर, उस स्थिति पर व्यवहारित कुशलता पर, मूक हूँ, प्रसन्न हूँ।
    केशव, कर्ण के बारे में बिना पूर्वाग्रह के क्या सोचते आए हैं, इसको सूक्ष्मता से वर्णित करने के लिए आभार व्यक्त करना चाहूँगा।

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  7. महाभारत बीतने के बाद समझा था कृष्णा ने कि उसके वरण का पहला अधिकार कर्ण को था ,कुन्ती पुत्र के रूप में भी और स्वयंवर के प्रतिभागी के रूप में भी .दोनों बार वही छला गया .निरंतर अपमान के दंश उसे प्रतिशोधी बना गये .

    कितना अस्थिर कर जाता है कर्ण का उल्लेख !

    मन को समझता है केवल यह सखा .

    कितना विस्तार है आपकी सोच में ...कृष्ण और द्रौपदी संवाद बहुत तुष्ट कर रहा है ..आभार

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