रविवार, 22 मई 2011

एक थी तरु - 18. & 19 .



असित की दौरेवाली नौकरी .तरु अपना काम एकदम कैसे छोड़ दे -अभी पूरी गृहस्थी बसानी है.

हफ़्ते भर ससुराल रह कर लौ़ट आई .रश्मि से पटरी अच्छी बैठी .

नींद उचट गई है. कहाँ तो थकान के मारे आँखें झुकी जा रहीं थीं ,शाम से इच्छा हो रही थी लेट कर सो जाऊँ ,और अब खुल गई तो आ नहीं रही ।पता नहीं कितनी रात बीत गई।गहरी अँधेरी रात ,झिल्लियों की झंकार गूँज रही है ,!

असित के धीमे खर्राटों की आवाज़ रह-रह कर उठती है

कितना समय बीत गया,पर लगता है जैसे कल की ही बात हो .हम पिछली पीढी में आ गये.अब बाहर कुछ नही होता ,भीतर ही भीतर सब घटता रहता है .तरु सोचती है वह ऐसी क्यों है ?जैसे और सब रहते हैं वैसे वह क्यों नहीं रह पाती !उसे भी वैसा ही होना चाहिये पर नहीं कर पाती .कोशिश करती है तो लगता हैअपने भीतर किसी से द्रोह कर रही है .अब लगता है जिन्हें अपना समझा था ,वे अपने नहीं थे ,जिन्हें पराया समझा वे पराये नहीं थे ,सब मन का भ्रम था .कैसी अजीब स्थितियाँ रहीं उसके साथ .जो जो किया सब विपरीत होता गया .करती है कुछ सोचकर ,नतीजा कुछ और निकलता है .जब मन था तब कुछ नहीं मिला था ,और आज जब सब-कुछ मिल रहा है तो उसका भोग करनेवाला मन नहीं रहा .

घोर अशान्ति .मन पर अपना कोई बस नहीं .जैसे कोई भीतर ही भीतर दिन-रात मथता रहता हो .

असित ,तुम मेरे साथ हो,पर और भी बहुत कुछ है जो मेरे साथ है .कुछ ऐसा जिसे मै तुमसे बाँट नहीं सकती .वहाँ मैं बिल्कुल अकेली हूं.जिसके लिये शब्द नहीं हैं ,जिसकी कोई अभिव्यक्ति नहीं है ,उसे किसी से कैसे कहा जा सकता है ?

ऐसी मनस्थिति में तरु की नींद गायब हो जाती है . किसी भी वयप्राप्त पुरुष को देख पिता की आकृति नयनों में डोल जाती है . ट्रेन के सफ़र में कोई बूढ़ा भिखारी सामने आए तो तरु देखती रह जाती है . कितना बहलाती है पर मन बहलता नहीं . सारे रूप बदल जाते है .

वह साँसे लेता जर्जर शरीर था ,पिता नहीं थे .अन्तिम बार जब देखा था तब लगा था वे सब कष्टों से परे हो गये हैं .इन्जेक्शन चुभा दो उन्हें कुछ अन्तर नहीं पडता .आँखों में वहचान नहीं -सूनी रीती दृष्टि !उनसे कुछ भी कहो ,उनसे कितना भी दुर्व्यवहार करो ,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी ..अब उन्हें कुछ नहीं चाहिये,न रोटी,न चाय ,न कपडे !कपडे भी शरीर पर रहें या न रहें उन्हें कोई फर्क नहीं पडेगा .और उसके बाद सारी चीख पुकार सुन कर भी तरु अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थी

बिस्तर पर लेटे-लेटे तरु सोचती रहती है .उसने न उनकी मृत देह देखी ,न अंतिम संस्कार .उसकी चेतना उनकी मृत्यु की साक्षी नहीं बनी ,उसे बार-बार यह लगता है कि वे यहीं कहीं हैं .उनका सब सामान हटा दिया गया है पर तरु के कान उनके कदमों की आहट का आभास पा लेते हैं .उसे उनकी दृष्टि का अनुभव होता है. उसे लगता है ,वे लौट कर आयेंगे ,पूछेंगे ,"तरु ,तुमने क्या बनाया है ?"

भीतर से कोई पुकारता है--वे भूखे हैं ,थके हैं ,वे कहाँ गये ?

नहीं ,वे अब कभी नहीं आयेंगे ,कुछ नहीं कहेंगे .

करवट से लेटी तरु के बाल आँसुओँ से भीग रहे हैं.वह अपनी सिसकी को दबा लेती है ,कहीं असित न सुन ले .

पता नहीं क्यों तरु को लगता है वे अब भी कहीं हैं .और वह मन ही मन पुकारती है,"पिता जी ,ओ,पिता जी ."

हाँ ,अब पुकारती है पर तब चिल्ला-चिल्ला कर रोई नहीं थी .जड़वत् चुपचाप सब होते देखती रही थी .

फिर उनके लिये पूजा-पाठ हुआ था ,जिसमें उन्हें कोई विश्वास नहीं रहा था .तरु को याद है पहले वे पूजा करते थे.व्रत रखते थे.बाद के वर्षों में उन्होने सब छोड़ दिया था मौत की ओर वे स्वयं बढ गये थे .उनके सारे विश्वास टूट गये थे भविष्य के लिये कहीं कुछ नहीं बचा था .

कितने वर्ष बीत गये पर उनकी दृष्टि की स्मृति धुँधलाई नहीं .वे आँखें उसे लगता है उसके भीतर पैठ गई हैं ..

वह मन ही मन पछताती है .सोचती है चूक तो मुझसे हुई .अगर मै पूरी तरह तुल गई होती तो जो हो गया वह न होता .गलती मेरी थी .मुझे सब मालूम था .मैने क्यों हो जाने दिया वह सब ?लेकिन अब इस ग़लती को किसी तरह सुधारा नहीं जा सकता ,किसी तरह भी नहीं .

असित से कुछ नहीं कह सकती .भूखे भिखारी की बात भी नहीं कह पाती .कहते-कहते संयम न रख पाई तो ,आँखें भऱ आईँ तो ...वे कहेंगे ,"तुम्हे क्या करना ?दुनिया भर के लिये तुम क्यों परेशान होती हो ?"

पर तरु को लगता है जिसने दुख का अनुभव किया है वह दूसरे का दुख देख कर तटस्थ कैसे रह सकता है !पराया दुख देख कर मन अपनी उस व्यथा को फिर से जीने लगता है .

असित के फैले हुये हाथ पर तरु अपना हाथ रख देती है .उस हाथ को अपने हाथ में लेकर सहारे का अनुभव करना चाहती है.

असित गहरी नींद में हैं.वह अनुभूति किससे बाँटूं जो भारी शिलाखण्ड सी मेरे मन पर जम गई है !साक्षी हैं केवल ये एकान्त क्षण जिन्हें देखनेवाला कोई नहीं है .

तरु करवटें बदलती पड़ी है .कभी बाथरूम जाने ,कभी पानी पीने उठती है पानी पीकर गिलास नीचे रखने लगी तो हाथ से छूट खन्न से नीचे गिरा .

असित की नींद खुल गई .

"अरे ये क्या ,तुम अभी तक जाग रही हो ?"

"नींद नहीं आ रही ,कोशिश कर रही हूँ ..

असित ने घड़ी देखी -"दो बज चुके हैं ,तुम अकेली जागती पड़ी रहीं .मुझे क्यों नहीं जगा लिया ?"

"नहीं ,तुम सोओ ."

"आओ न ,मेरे पास आओ .देखो अभी नींद आ जायेगी ." हल्का -सा ना-नुकुर कर वह जा लेटी .

पौन घन्टा और बीत गया .शरीर की थकान और बढ़ गई.पर नींद फिर भी नहीं आ रही .

नींद क्या बिल्कुल नहीं आयेगी ,कैसे भी नहीं आयेगी !

***
19
आज बड़ियाँ डाली हैं तरु ने .
सुबह महरी से दाल पिसवा कर देर तक बड़ियाँ तोड़ती रही .इत्मीनान से नहायेगी ,छुट्टी है न !
असित को बड़ी की तरकारी बहुत अच्छी लगती है .आज शाम को भोजन में परोस कर ,चौंका देगी .

शाम को उठाने गई तो देखा पूरी तरह सूखी नहीं हैं .ऊँह, इतनी तो भूनते-भूनते सूख जाएँगी .
खूब रुचि से मसाला भून कर बनाईं, रंग भी खूब उतरा है .
दोंनों खाने बैठे .
'काहे की तरकारी है ?'
'खा कर देखो .'
तरु की आँखों में चमक है .उत्सुकता से असित का चेहरा देख रही है .
असित खा रहे हैँ ,मुँह कुछ बिगड़ गया है .
'क्या बात है अच्छी नहीं है ?'
'कड़ी है ,गली नहीं .और कुछ है खाने को ?'

तरु का उत्साह ठंडा पड़ गया .
उस दिन होटल में भी तो कितनी कड़ी थीं तब तो कह रहे थे रसा बड़ा ज़ायकेदार है इससे खा लूँगा.
उसनं कौर बनाया मुँह में रखीं ,होटल से तो फिर भी मुलायम हैं .

'अभी बना देती हूँ कुछ और .'
'नहीं अब रहने दो ,इसी से खा लूँगा .कितनी दाल की बना डालीं ?'
इन्हें इसी की चिन्ता है  !
'पड़ोस से ही पूछ लेतीं कैसे बनती हैं .'
'अब बस करो !कहे चले जाओगे .तुम मत खाओ .कुछ और बना देती हूँ .'
'अरे, मैंने क्या कहा? बस तारीफ़ करता रहूँ, किसा चीज़ की कमी न बताऊँ .'
'नहीं कमी ज़रूर बताओ ,नहीं तो पता कैसे लगेगा ?इतना मैं भी समझती हूँ .तुम्हें लग रहा है कितनी दाल बर्बाद हो गई .'
' मैं कुछ कहूँगा ही नहीं अब से .'
'नहीं कहे जाओ. कहने में क्या लगता है ?'
लोग सोचते हैं मायके से पूरी तरह परफ़ेक्ट हो कर आये .खुद चाहे जितने नौसिखिये हों .तरु को लग रहा था पहले का उदार व्यक्ति पति बन कर कितना छिद्रान्वेशी बन जाता है .दूसरे की भावना का ज़रा ख़याल नहीं रखता .

अगली सुबह तरु खाना परस कर रोटियाँ सेंक रही थी .
'कल की बड़ियाँ तो काफ़ी थीं .लाओ दे दो .'
' कितनी भी हों ,तुम्हें अच्छी नहीं लगीं रहने दो .'
'तो क्या फिंकेगी?शोरबा तो अच्छा था.'
'फिंकें या कुछ भी हो ,तुम चिन्ता मत करो .'
'क्यों, मैं कुछ न बोलूँ ?'
'घर की हर बात में दखल दो ,हर बात की टोह रखो तो चल चुका ?'
'चले या न चले .मैंने क्या गलत कहा ?'
'अब जो परसा है ,वही खा लो .'

असित चुप बैछा है .
तरु को गुस्सा आ रहा है .कितना कुछ भी करो ,आदमी अपनी ही अपनी सोचता है .
असित ने कुछ कहा ,उसने जवाब दिया.
 दोनों में झाँय-झाँय हो रही है ..वह उठकर खड़ा हो गया .
'तो खाने ने क्या बिगाड़ा है ,गुस्सा तो मुझ पर है ?'
'भूख नहीं है ,'बिना और कुछ बोले वह घर से निकल गया .

परसी थाली छोड़ कर चले गये अब चाय पी-पी कर रहेंगे .उसने भी खाना उठा कर रख दिया .
ऑफ़िस का समय हो रहा है ,तैयार होने लगी ,
बाहर का ताला बंद किया -अरे पैसे लेना तो भूल गई .
ताला खोला ,पैसे निकाल कर पर्स में डाले .घड़े से उँडेल कर पानी पिया .
फिर चंचल का खाने का सामान और एक कपड़ों का सेट लिया .जाते-जाते उसकी आया को देना था .
आज वहीं से पार्क में घुमाकर शाम को लायेगी ,. .
एक क्षण असित की छोड़ी ढँकी हुई थाली को देखा फिर बाहर निकल गई .
*
ऑफ़िस में फाइल खोले पेन पकड़े बैठी है.मन उमड़-घुमड़ रहा है-
असित,थाली छोड़ कर  भूखे  चले गये .बचपन से उपेक्षित रहा एक व्यक्ति अपने घर से बिना खाये निकल गया !
बचपन ?
किसने पाला असित को  ?
असित की कही बातें रह-रह कर मन में उमड़ने लगीं .
 उसने कहा था -
कैसे पले हम ?
अपने आप बड़े होते गए .कैसे बिताई थी वह नादान उम्र, जब हर बात कच्चे मन पर हथौड़े सी चोट करती थी .
सुधा जिज्जी की याद आती है ,उनके पिटने की दोनों गालों पर एक साथ चाँटे पड़ने की, मुँह हटाने पर दीवार से टकरा देने की ,,रो-रो कर सूजी हुई लाल आँखों की .दो -दो दिन भूखी रह काम करने की . .एक बार भूख सहन हुई न होगी .कुछ चुपके से खाते पकड़ लिया विमाता ने .क्या लानत-मलामत हुई थी.
कैसी-कैसी दुर्दशा की जाती थी .
फटे-पुराने कपड़े ,मार के नीले निशान हाथ-पाँवों पर .जाड़ों में ठिठुरती ,बर्तन माँजती, कपड़े धोती और खाने के लिये तरसती .
वह सब याद करते नहीं बनता .बाबू जी भी शिकायतें सुन उसी पर गुस्सा निकालते -कैसे झपटते थे.'आज तुझे मार कर ही दम लूँगा '.
.रात में असित छू-छू कर देखता था - सुधा  जिज्जी मर तो नहीं गईं .
ऊपर से माँ जी के ताने - 'तीन-तीन साँड़ों की नौकरी के सिवा तुमने मुझे दिया क्या ?पराया नरक भुगत रही हूँ .कौन जनम के पापों का फल है '.
अनजानी भयावनी परछाइयाँ घेरे हों जैसे , नींद उड़ जाती थी.
और एक दिन घर में मुर्दनी छा गई .सुधा जिज्जी कुयें में गिर गईं .ऐसी ज़िन्दगी जीना उनके बस में नहीं रहा होगा .सहन-शक्ति ने जवाब दे दिया होगा .
एकदम स्तब्ध रह गए थे श्यामा और असित.न आँखों में आँसू न मुँह पर बोल .
समय जम कर बैठ जाता था बीतता ही नहीं था- कितने दिन ,कितनी रातें!तरु मैं अब भी सोच नहीं पाता उन दिनों की दहशत !'

 .और स्तब्ध सी सुनती है तरु .
कैसा लगता रहता है ,एक भारी पत्थर सा जम कर बैठ जाता है हृदय पर.  अंतर  से आवाज़ उठती है असित, इन   दुखों की थाह नहीं ले पाती मैं -बस डूबी हुई कर  निष्चेष्ट   रह जाती हूँ .
और फिर तरु का उदास चेहरा देख असित उबारने की कोशिश करता है .
'चलो,तरु.  कुछ मत सोचो .बीत गया जो, जाने दो .'
और तब उसकी आँखों की दृष्टि  किसी तरह झेल नहीं पाती वह.

स्थितियाँ बदलती गईं धीरे-धीरे
पर असित का मन अब भी कभी-कभी वहीं भटक जाता है .
तरु जानती है .
जब माँजी रश्मि -राहुल से लाड़ लड़ातीं वह लालसा भरी आँखों से देखा करता .अपने बच्चों के खाने के समय किसी बहाने वे उन दोनों को वहाँ से हटा देतीं थीं.
बगल के कमरे में श्यामा पूछती ,'भइया, भूख लगी है?'

बहन के चेहरे की ओर देखता वह अपनी समझदारी दिखाता .कहता,'अभी नहीं .'फिर पूछता ,'दीदी ये माँजी हमसे ऐसे प्यार से क्यों नहीं बोलतीं ?'

श्यामा की आँखों में आँसू भर आते ,;भइया ,वो उनकी माँ हैं ,अपनी नहीं ,'

'अपनीवाली कहाँ है?'
'मर गईँ ',श्यामा आँसू पोंछती जाती .
असित का बाल मन हताश हो जाता .इतनी समझ थी कि मर कर कोई वापस नहीं लौटता .
'अब क्या होगा ,दीदी ?'

उसकी आँखों से आँसुओं की धार बह निकलती, 'कुछ नहीं .कभी मेरा अपना घर होगा तू नौकरी कर लेगा.फिर खूब अच्छी तरह रहेंगे ....भैया, तू मन लगा कर पढ़,जिसमें खूब पैसे कमा सके .फिर कोई कुछ नहीं कर सकेगा.'

सौतेली माँ की निगाहें बड़ी तीखी थीं .हमेशा डरे-डरे रहते .रश्मि-राहुल उसकी किताबे फाड़ देते तो न शिकायत करने की हिम्मत न दूसरी खरीदने की बात .

'क्या हुआ तरलजी ,नींद आ रही है ?'
शिखा की आवाज़ सुन कर चौंक कर सिर उठाया तरु  ने -
'नहीं सिर में दर्द है .'
बैठी है अनमनी -सी.
हाथ सिर पर रख आँखें बंद करते ही दिखता है पिताजी भूखे चले जा रहे हैं ..रास्ते में चक्कर खाकर गिर पड़े हैं .
घबरा कर आँखें खोल देती है .असित भूखे चले गए .उन्हें कुछ हो तो नहीं जायेगा !...मैं बेकार बोली ,चुप ही रह जाती ....क्या अम्माँ की तरह करने लगी हूँ ?
जी करता है सिसक-सिसक कर रोये .यह किसका दुख है- असित का या अपना ?
पता नहीं किसका, पर मन को इस तरह छा लेता है कि उबरने का कोई रास्ता नहीं मिलता !
*,
शाम को लौटी घर खुला मिला.
असित बाहरवाले कमरे में बैठे हैं उदास से .
वह चुपचाप अंदर चली गई .
खाने को आवाज़ दूँ ?
फिर अकड़ेंगे तो नहीं !

पर वे भूखे हैं .मेरे होते हुए भूखे हैं ...लेकिन कहूँ कैसे ?मेरी हेठी होगी !
हुँह, हेठी क्या होती है -यह मेरा काम है.
उसने खाना गरम किया थाली परस कर सामने रख आई .भीतर आकर खड़ी हो गई चुपचाप ,खिड़की की ओर ताक रही है .
असित उठ कर आया - 'खाना किसके लिये है ?'.
'तुम्हारे .'
'और तुम ?'
वह चुप है .
'तुम भी आओ.'

हाथ धोकर असित ने उसका हाथ पकड़ लिया ,' चलो तुम भी .'
उसे ले जा कर बैठा लिया असित ने .
तरु की आँखों से आँसू टपकने लगे हैं .
'एक तो वैसे ही बड़ी तंदुरुस्त हो .ऊपर से खाओगी नहीं औऱ घर- काम करोगी तो ...'
रुका हुआ बाँध फूट पड़ा है.

असित ने अपने पास खींच लिया ,'तरु, मेरा मिजाज़ अजीब है .मुझे कभी-कभी जाने क्या हो जाता है ...'
तुम भी एकदम झल्ला जाती हो .,मैं कोशिश करूँगा आगे से ,'आवाज़ में भीगापन उतर आया है ,'अब मैं दखल नहीं दूँगा तुम्हारे काम में .'
'कोशिश करूँगी मैं भी...'
*


***
(क्रमशः).

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर कहानी । असित जैसा जीवन साथी तो खुशनसीबों को ही मिलता है। अपने खून से रचकर , एक स्त्री वास्तव में अपने साथी को इस मामले में काफी पीछे `छोड़ देती है ।

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  2. शकुन्तला बहादुर23 मई 2011 को 10:18 am बजे

    अतीत से जुड़ा तरु का खिन्न मन माँ बनकर गौरवान्वित अनुभव करता है।प्रसव-वर्णन सजीव सा है। माँ की अभिनव अनुभूतियाँ उसके मन को वात्सल्य भाव में रंग देती हैं-पिता यहीं पीछे रह जाता है।तरु और असित का वाद-संवाद और सोच का चित्रण मनोवैज्ञानिक है।कथा का विकास प्रवाहपूर्ण और मनोरम है,जिसमें मन डूब सा जाता है।

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  3. मुग्ध हुआ, पढता जा रहा हूँ।
    तरल की मनःस्थिति का, असित से उसके संवाद का, परिस्थितियों का विवरण भीतर तक उतरता है।

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  4. अपने प्रोफेशन की वजह से या बच्चों से मुझे बहुत ज़्यादा लगाव नहीं उस वजह से.....जो भी कारण रहा हो....मगर पूरी पोस्ट में मेरे दिमाग पर प्रसव पीड़ा का जीवंत चित्रण छाया रहा..मैं तो बहुत ज्यादा प्रभावित हुई...'दत्ता' हमारी text बुक थी...उसकी कई चीज़ें अनायास ही याद आती गयीं.....वेदना के चरम को बहुत बहुत ही शानदार सांचे में ढाला है ....

    हालांकि,
    एक लड़की का ममता तक का सफ़र, एक माँ और शिशु का बंधन और मातृत्व की गरिमा प्राप्त कर लेने के बाद जीवनसाथी के लिए पत्नी के विचार.....ये तीनों बातें भी बेहद प्रभावी लगीं........कई जगह संवादों ने मन मोह लिया....
    साथ ही बार बार मन में शिद्दत से बात उभरती रही....क्या हर बात पर तरु को असित से स्वयं की तुलना करना ज़रूरी है?..हम्म संभवत: ये उसके मन की गहन चिंतन की आवाज़ बस रही होगी.... यद्यपि पोस्ट की अंतिम पंक्ति पर मैं सबसे ज़्यादा प्रसन्न हुई...पोस्ट के समापन के दौरान तरु के चिंतन मनन की गूँज हृदय तक पहुँचती है........वाक़ई.....ये ऐसा ही है..बहुत सटीक और सारगर्भित विश्लेषण है प्रतिभा जी.......काफी खूबसूरत बन पड़ा है आखिरी का हिस्सा...उन स्त्रियों के लिए तो बहुत ही सुंदर रहेगा इसको पढ़ने का अनुभव....जो मातृत्व पा चुकीं हैं...या इस दौर से गुज़र रहीं हैं....

    पराये दुःख वाली बात भी अपनी जगह सही लगी....खुद के ज़ाती ग़म को कम या ज़्यादा करने में परपीड़ा का अपना विशेष स्थान हुआ करता है.....निर्णायक होती है कभी कभार दूसरों की व्यथा....

    खैर.......

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