शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

कृष्ण-सखी - 15 & 16.


15.
 दोनों मित्रों में कैसा  विचित्र -सा साम्य  ! लगता है  , एक ही तत्व के दो रूप अपने-अपने परिवेश में आमने-सामने आ गये हों . फिर भी संबंध का सही स्वरूप समझ में नहीं आता ,केवल बंधु नहीं ,केवल मित्र नहीं और भी जाने क्या-क्या  !
उलझन में पड़ जाती है पाँचाली .
ऊँह ,जाने दो यह पहेली कभी सुलझेगी नहीं , मुझे क्या ..दोनों मेरे अपने हैं.
पहले जब उसे जाना नहीं था ,सुनती रहती थी उसके विषय में .औत्सुक्य जागता था  .कैसा होगा वह जिसकी इतनी चर्चा ,इतनी कहानियाँ ,विस्मय-जनक वृत्तान्त - जिनका कोई ओर-छोर नहीं .और फिर भेंट हुई थी कृष्ण से  .लगा नहीं कि पहली बार मिल रही हूँ .और न जाने कैसे इतना गहन मैत्री संबंध जुड़ गया .
और यह गोकुल का कान्हा  तटस्थ मुद्रा में कितना-क्या कह जाता है  ! यही है वह रसिया   ,जिसने सारी ब्रज भूमि में रस- धार बहाकर जन-मन सिक्त कर दिया . सबको हँसाता रहा ,खेल खिलाता, लीलाएँ दिखाता रहा - और फिर भी इतना अनासक्त !
सोच कर मन जाने कैसा हो उठता है .
नारीत्व का सम्मान और नारी के  प्रति सहज मानवीय संवेदनापूर्ण उसकी भावनायें पांचाली को अभिभूत कर देती है - कभी किसी ने इस दृष्टि से देखा था क्या ?
कैसी विराट् सहानुभूति !नहीं ,केवल नारियों के लिये नहीं -प्राणिमात्र के प्रति .ब्रज-भूमि के वन-कुंज ,यमुना तट और करील के वन तक जिसके नेह-भाव  से चेतन हो उठे हों ,वह किसी जीव के प्रति  उदासीन कैसे हो सकता है !
उसी ने   कहा था  -
'सहज जीवन के  आनन्द का भोग उसके लिये वर्जित कर दिया कि एक बार यह लगने के बाद सारे ऊपरी स्वाद फीके लगने लगते  हैं.
'और भी तो ,' पांचाली ने कहा था , '' जकड़ दी गई है शृंखलाओं में .रीति-नीति- धर्म के नाम पर ,आदर्शों की घुट्टी भी सिर्फ़ नारी के लिये,. व्यक्ति कहाँ रही वह, अपने के उपयोग की वस्तु  बना कर  ,पुरुष ने अपने लिए सारे रास्ते खुले रखे .'
वह हँसा ,'इसीलिये कि वह संसार में उलझी रहे और पुरुष  मुक्ति का स्वाद ले सके . सारे नियम , विधान  ,मर्यादायें,उत्तरदायित्व  उस  पर लाद कर वह निश्चिंत हो गया कि चलो दुनिया के सारे काम चलते रहेंगे . और मैं मुक्त रहूँगा.'
'उस पर भी अगर उसके कुंठित होते जा रहे जीवन में विकृतियाँ पलने लगें तो दोषी भी वही ! '
'वह सुख अधूरा है जिसे पुरुष सिर्फ़ अपने लिये चाहता है  ,' कृष्ण ने कहा था ,'और अधूरा सुख कभी संतुष्टि नहीं देता .
वह प्रकृति रूपा है ,रचयित्री है.परम समर्थ - वे जानते हैं  और  इसीलिए उसे लाचार कर देना चाहते हैं .पर अपने अहंकार  में उसे पराभूत करने का  प्रयास आगत पीढ़ियों को कुसंभावनाओं का ग्रास ही बना देता है  .'
'... तो और यहाँ हो क्या रहा है ? विसंगतियों की परंपरा चली आ रही है! वृद्ध राजा की कामना जागी  धीवर-पुत्री के लिए .  पिता ने अपनी पुत्री का हित देखा - सौदा ही तो रहा.फिर अंबा अंबिका अंबालिका ! काशिराजकी कन्यायें !....भाइयों में साहस होता तो स्वयं जीत कर लाते ,अपनी शक्ति और साहस से उन्हें आश्वस्त करते हुये ,सम्मान के पात्र बन कर  ब्याहते .विजयी की भार्या बनने की जगह ,लाचारों को सौंप दी गईँ  ।यह कैसा स्वयंवर ?
और फिर आगे  अरुचिपूर्ण  नियोग के लिये विवश किया जाना ।कठपुतलियों की तरह डोर खींची जाती रही  .
कैसी -कैसी स्थितियाँ और उनके विचित्र परिणाम ..आगे क्या होगा .कौन जाने ...'
'उसकी तो  भूमिका  बन चुकी , सखी.'
'काहे की ?'
' भावी अनिष्ट की . देखो न ,ये जो कुछ हो  रहा है अनर्थ का बीजारोपण हो रहा है .अब जो होना है सामने दिखाई देने लगा है .कैसी विकृत पीढ़ी   - यही पिछली वाली .कैसी अस्वाभाविकताएं  -विकृत दाम्पत्य ,उदासीन माता-पिता की संस्कारहीन  संतानें, समाज पर बोझ बनी-सी ....'
कुछ रुका रहा ,सोचता-सा  फिर बोला -
'वास्तविकता यह है कि जहाँ नारी सतेज है वहां संतान समर्थ ,जहाँ विवश निरीह है वहाँ संततियाँ कैसी  हैं -उदाहरण सामने है .'
'ये दो पीढ़ियाँ ,' कृष्णा सोच रही है ,' चित्रांगद,विचित्रवीर्य फिर आगे धृतराष्ट्र ,पांडु  और अब ये  सारे लोग...'
तब तक कृष्ण बोल उठे, ' ऊपर से भले लगे कि शक्ति ,-सामर्थ्य, प्रभाव सब पा लिया . लेकिन ऐसा है नहीं . विषमतायें विकृत करती चलती है . अन्याय आगे चल कर ब्याज समेत अपना सारा मूल वसूल लेता है. '
' हाँ ,वासुदेव.अनर्थ की पहुँच कहाँ-कहाँ तक है ?अपने केन्द्र को घेरने के बाद वह पूरे  घेरे को अपनी समेट में ले लेता है ,'
आगत की आशंकाओं को किनारे कर देना चाहती है ,वह.
उद्विग्न कर देने वाली  स्मृतियों को दूर धकेल देना चाहती है  पांचाली .
 बाहर उपवन से कुछ आवाज़ें आ  रही हैं .भीम , नकुल-सहदेव का   संवाद चल रहा है ..किसी बात पर हँस रहे हैं वे लोग .
नहीं , कहीं नहीं जायेगी ,अभी किसी से कुछ कहने-सुनने की इच्छा नहीं .
बस वातायन से बाहर वृक्षों का हिलना देख रही है .
*
16
कहाँ से कहाँ  खींच ले जाता है यायावर मन !
भावन करना चाहती है कोई रमणीय प्रसंग जो अंतर को   स्निग्ध कर दे  , और पहुँच गई अनर्थों  की जड़ तक  !
हाँ ,रास महोत्सव -एक अनोखी घटना !
विस्मय होता है द्रौपदी को ! कितनी आसानी से उन गोप रमणियों को  सीमित घेरों से बाहर निकाल लाया यह नटनागर. ग्राम्य भूमि के विस्तृत प्रांगण में रस की अनुभूति देना कोई सरल काम था क्या ?
 पर उससे भी अधिक उसके पीछे माधव का चिन्तन पांचाली को अभिभूत कर देता है .
अब तक किस ने सामाजिक आयोजनों  की इतनी समग्रभावेन चिन्ता की थी ?सबके कल्याण और सु-संतोष का विधान करने का किसी को भान भी हुआ था?
जो चलता आया है उससे परे कुछ करने का प्रयास , सीमित घेरों में रहने वाले लोग कहाँ कर पाते ?
 पूरे विस्तार में जाना चाहती है वह . इस  सारे आयोजन  की पृष्ठभूमि समझने की उत्सुकता जाग उठी है.
अपनी बात  कृष्ण से कहे बिना चैन कहाँ था -
' ये क्यों नहीं सोचता कोई कि स्त्री के भी मन है ,बुद्धि है. स्थूल-चेता नहीं वह, सूक्ष्म स्तरों तक संचरण करने में समर्थ है. '
       'इसीलिये तो ,अन्न और प्राण की सीमा से निकाल कर आनन्द के स्तर तक पहुँचाना चाहता हूँ ।मनो-मुक्ति देना चाहता हूँ कि नारी मर्यादाओं में बँधी ,विधि- निषेधों में सिमटी ,परमुखापेक्षी होकर  पुरुष के हास-विलास का साधन मात्र न रह जाए  .वह कर्त्री है ,सर्जक है, भोगकर्त्री भी .'
उसने जो कहा था उसकी अनुगूँज बार-बार उठती है  कृष्णा के अंतर्मन  में -
'जीवन व्यवहार का पर्याय है ।पुरुष के सुख और हित के लिये नारी की  आत्मा का हनन क्यों ?उसके जीवन में भी उल्लास और उजास भरना चाहता हूँ ।जिसे सदियों से जकड़ कर रखा गया है कुण्ठित कर डाला गया है ।सहज मानवीय संवेदनायें दबा कर इतना भार लाद दिया कि अपने लिये विचार करने की न सामर्थ्य बची न अवकाश ।आनन्द जीवन का भोग्य है ।उन्मुक्त भाव से जीवन का रस उसके लिये वर्जित क्यों ?ललित कलायें मन का उन्नयन करती हैं सरसता का संचार करती हैं ,वह जीवनांश उत्सव बन जाता है ।नारी उनमें डूब कर आनन्दित हो तो दोष काहे का  ?
कोरे ऊँचे आदर्शों को लाद देने से काम नहीं चलता ।अगर उनसे जीवन असंतुलित होता है तो वे व्यर्थ हैं।व्यवहार की श्रेष्ठता, समाज में संतुलन और जीवन में संगति लाने के लिये है ..'
मुख से चाहे न बोले चाहे ,पाँचाली का मन बराबर  हुँकारा दे रहा है .
'  स्त्री के  लिये भावना का मार्ग सहज-गम्य है।मैं उस प्रकृति -रूपा  को  बाँधना नहीं मुक्त करना चाहता हूँ  .'
कल्पना में उभरने लगते हैं वे दृष्य  साथ में  कृष्ण के स्वरों की पीयूष-वर्षा -
' मैं मनोमुक्ति देने  आया हूँ .इस शरद्पूर्णिमा की ज्योत्स्ना में ,स्त्री -पुरुष का भेद भूल ,मुक्त- मना महारास के परमानन्द में डूब जाओ .संपूर्ण मनश्चेतना इस रस में  लीन हो  ,अपनी लघुता से मुक्त हो लें सब - चाहे सीमित अवधि के  ही लिये.'
'हाँ ,तुम्हारा प्रयोजन  जान रही हूँ ..'
' हाँ ,मैं उसी का आयोजन करता हूँ सखी .वही  कला कि जीवन का विष रस में परिणर्तित हो जाये ,जड़-चेतन में चिदानन्द की  व्याप्ति संभव हो .'
आत्म-विस्मृता पांचाली सुनती रहती है चुपचाप.
 ' मैं  जीवन को सुन्दर बनाना चाहता हूँ. कि भूमा की आनन्दिनी वृत्ति सब में चरितार्थ हो .'
 'नारी-पुरुष का आकर्षण प्रकृति का सनातन नियम है .बचेगा कोई कैसे .वह प्रकृति है .उससे भाग कर -पुरुष कहाँ रहेगा !
उसी वृत्ति का परिष्करण कर वासना से ऊपर भावना में परिणत करना चाहता हूँ  .
  अमित विस्तार पाती अंतश्चेतना का संस्कार करता यह महोत्सव ऐन्द्रिय वासना से निरा अछूता है
'आत्मा में आनन्द का झरना फूट पड़ता है. सारे इन्द्रिय-बोधों को आत्मसात् करती वह सौंन्दर्य  चेतना ,समय-खंड से असीम में खींच ले जाती है -कितना मनोरम रूप .मन सीमित नहीं रहता ,सामने जो है वह भी दृष्टि में नहीं आता,सुनाई नहीं देता .एक विरा़ट़् अनाम अनुभूति अपने में डुबा लेती है .
' मैं यह  सब ,उनसे भी बाँटना चाहता हूँ जो सरलमना हैं ,सहज-विश्वासी भी और  जीवन के आनन्दमय रूप से  वंचित रही है ,कि ,मत घुसी रहो दीवारों के भीतर ,
बाहर आओ प्रकृति के रम्य प्राँगण में , आनन्द -विभोर हो मन असीम में विस्तार पा ले .'
 हाँ ,उसने कहा था ,'आयें सब साथ-साथ इस रम्य-लोक में . सौंदर्य मन का उन्नयन करता है.प्रकृति के  परिवेश में ,सब-कुछ भूल कर उन्मुक्त रास रचा लें .कितना आनन्द कि तृप्त हो जाए तन-मन . ऐसे में पाप तो छू भी नहीं पाता .सब-कुछ आनन्दमय, रमणीय,पावन!'
कल्पना करती है  दिव्यता में  डूबी उस मुक्त -बेला की जहाँ देश-काल व्यक्ति का विलय हो गया होगा .व्याप्ति की असीमता में सब ने सब का अनुभव किया होगा .सब में बसा वही कृष्ण-मन , लगा  जैसे इस विराट् क्रीड़ा में वही सहचर बना है ,प्रत्येक का .सब को उसके साथ का अनुभव हो रहा है .वह एक साथ  सब के साथ है , सब  के साथ !
हाँ,हाँ यही तो हुआ था .
और अभिभूत करे दे रहे हैं उसके  शब्द -
' देखो न कृष्णे ,इस महारास का प्रत्येक भागी मेरा ही रूप है. रस का भोग ,जीवन के हर  मीठे-तीते रस का भोग मैंने किया है .नहीं किया होता तो सबसे भिन्न हो जाता !मैं अपने हृदय में सबको अनुभव कर सका हूँ ।ये गोप भिन्न नहीं हैं ,मेरा आत्म-भाव सब में स्थापित हो गया है ,ये सब मेरे साथ हैं हूँ .देखोगी तो समझ जाओगी सखी ,अपने में पा लोगी मुझे.इस महारास का भोग मैं शत-शत देहों से कर रहा हूँ .इन ग्वालों में, मैं ही विद्यमान हूँ -सहस्र सहस्र रूपों में--.इस विराट् चेतना के आनन्द का अनुभव ये सब कर रहे हैं , वही  मैं अपने में कर रहा हूँ .'
पाँचाली  विभोर  ! '
'चित् प्रकृति का यह रूप ,मानवी प्रकृति से समन्वित हो !पुलकित  मन-प्राण जुड़ाते रहें  .रुक्ष-विषण्ण जीवन को रस के ये कण सहनीय बना दें .'
 दोनों चुप .
अनायास पांचाली की विनोद-वृत्ति जाग उठी -
'अरे वाह , तुम तो बड़े भारी चिन्तक निकले गोपीवल्लभ !मैं तो नट-नागर ही समझे थी . तुम क्या-क्या हो मैं तो समझ नहीं पाती.'
'बस-बस ,खींचने पर तुल गईँ .' कृष्ण ने हाथ हिला कर निषेध करते हुये कहना जारी रखा ,
'एक साधारण गोप बालक ,वन-वन घूमता गोचारण करता बड़ा हुआ ,जान लिये भागता रहा इधर से उधर ,और अब पांचाली, तुम भी हँसी उड़ाने पर तुल गईँ !'
'गुरु संदीपनि के आश्रम से लोगों को भरमाने शिक्षा भी ले कर आये हो क्या ?सारी दुनिया को बहका लोगे ,पर मैं नहीं तुम्हारे झाँसे में आनेवाली .'
मोहक हँसी से व्याप्त हो गया मोहन का आनन .
' मैं तो मनमाना बोल जाता हूँ  पर तुम कब बहकी हो पाँचाली ? '
मनमाना ?द्रौपदी के मन में उठा ,ऐसे निचिंत भाव से सब कुछ कह जाते हो जैसे काल की गति  को अपने संकेतों पर साधे बैठे हो !
पर चुप रह गई वह .
'जीवन में इतनी उठ-पटक रही सखी,निरंतर  चलता  मंथन  . घूर्णित - विचारों के निहित  तत्व  अपने  आप  तल में ,जमते चले गये .'
'समझ रही हूँ मीत, सब समझ रही हूँ .'
'हाँ ,तुम्हीं समझोगी !तुम भी तो.. पांचाली, तुम भी ..तभी तुमसे  सब  कुछ कह बैठता हूँ  .'
बार-बार ध्यान में आता है कैसी-कैसी बाधायें पार कर इस मनोभूमि तक पहुँचा होगा यह विलक्षण पुरुष !
मन ही मन कहती है , तुम नहीं होते मेरे साथ, तो मैं  कितनी एकाकी, कितनी लाचार होती !और  कितनी असहाय !जीवन को सहन करने की शक्ति तुम्हीं से पाती हूँ गोविन्द ,तुम क्या हो मैं समझ नहीं पाती,सिर्फ़ सोचती रह जाती हूँ ।
(क्रमशः)

बुधवार, 23 नवंबर 2011


 ये बच्चे भी न !
*
 तब मेरी पुत्री का परिवार बरौनी - बिहार में था.
उन दिनों  लीचियों की बहार थी .
मेरी नातिन ,चन्दना , होगी 4-5 वर्ष की ,हम लोग लीची छील कर खाते तो अलग जा  बैठती .बड़ी अजीब दृष्टि से देखती रहती -जैसे उसे बड़ी वितृष्णा हो रही हो .
उसे बहला-फुसला कर अपने पास बुलाया और लीची का स्वाद ले सके इसलिये उसके लिए छीलने लगी ,उसने बड़ी ज़ोर से झिटका बोली,' नहीं खाना.'
 'क्यों खा कर तो देखो कितनी अच्छी है .'
वह मुँह बना कर बोली ,ऊँ.. नईँ ..चाचरोच(काक्रोच)'  .
लीची की गुठली को  वह काक्रोच समझ रही थी ,
समझाना-बुझाना सब बे-कार .
  उसके मन में जम कर बैठ गया था कि लीची के अंदर  काक्रोच घुसा है - छूना तो दूर पास तक नहीं आता थी वह.
अब तो खैर, बड़ी हो गई है ,
और इसी लड़की ने एक दिन चींटियाँ चबाईं ,फिर रोई-पछताई  .
हुआ यह कि उसने अपनी टॉफ़ियाँ  अल्मारी में रख दी थीं  ,.दो-तीन दिन बाद अल्मारी खोली तो टाफ़ी दिखाई दीं .उसने झट से निकाली और रैपर हटा कर मुँह में रख ली .
टाफ़ी ,चबाई उसने और स्वाद लेने लगी ,पर मुँह बिगाड़ कर ,थू-थू करने लगी .
ध्यान दिया तो उसके हाथ पर  नन्हीं-नन्हीं चींटियाँ रेंग रहीं   थीं ,
.  मुँह से निकली टाफ़ी में चींटियाँ चिपकी थीं- मरी-अधमरी.
अल्मारी देखी  टाफ़ियों के रैपर के अंदर  नीचे से  खोखला कर   मार चींटियां चिपकीं थीं ,झुंड की झुंड.
 चन्दना के मुँह - ज़ुबान पर भी .जल्दी-जल्दी साफ़ किया कुल्ला कराया पर जीभ पर का चींटियों का स्वाद ! वह रगड़-रगड़ कर पोंछती रही . कुल्ला करती रही .
इस टाफ़ीवाली बात से एक लालीपाप की याद आ गई .
मेरा पोता 6-7 वर्ष का .स्कूल से आया तो एक लॉलीपॉप लेकर चाटता हुआ .
घर पर टॉयलेट जाना था उसे . अब  समस्या यह कि लॉलीपॉप कहाँ रखे जहाँ बिलकुल निरापद  रहे.,किसकी सुरक्षा में दे जो उसे हाथ में पकड़े रहे ,मौका पाते ही चाटना न शुरू कर दे .
अपने से कुछ बड़ी बहिन को पकड़ाने का तो सवाल ही नहीं उठता .
.इस समय उसे मैं -बड़ी माँ, ही अपेक्षाकृत ईमानदार दिखाई दीं .
मेरे पास आकर बोला ,'मैं अभी आता हूं .ये पकड़ लीजिये .
मैंने पकड़ लिया .वह चल दिया .फिर मुड़ कर देखा उसकी दृष्टि में साफ़ संशय था .
मुझे हँसी आ गई .
अब तो उसका शक पक्का हो गया ..
चलते-चलते पीछे लौटा, बोला ,'अभी आता हूँ  पकड़े रहिये बड़ी मां,बट टोन्ट लिक इट.'
बड़ी जल्दी में था शायद एकदम दौड़ कर टॉयलेट में घुस गया .
*

सोमवार, 21 नवंबर 2011


ये धरती -
*
(बाल-दिवस पर मन में आया कि हमें बच्चों के लिये भी कुछ लिखना चाहिये .कोशिश की है एक कहानी लिखने की -जैसी भी बन पड़ी प्रस्तुत है- )
'माँ ,देखो ,ये कबूतर इस पानी में घुस कर पंख फड़फड़ा रहा है- सारा पानी उछाल-उछाल कर चारों तरफ़ पर कीचड़ कर दिया '
'रोज़ भगाती हूँ,और जब देखो तब चले आते हैं ..'
'और ये चिड़ियाँ तोता गिलहरी मौका लगते ही फल और डालें कुतरती रहती हैं .'
'अब जाल लगवा देंगे चारों ओर ..' मम्मी ने कहा.
मुकुल बड़ा-सा बाँस लेकर सारे पक्षियों और गिलहरी को दूर तक खदेड़ने लगा.
 रात उसे सपना आया -कि चिड़ियाँ तोता ,गौरैया ,,गिलहरी  कबूतर खरगोश आदि बहुत से लोग .आये हैं .कह रहे हैं ,हमें तुमसे बात करनी है.
सपने में मुकुल ने सोचा 'अरे ,इन सब को भी बोलना आता है ..' उसे याद आगया तोता तो हमारी बोली अच्छी तरह बोल लेता है .'
वह बाहर निकल आया
'आओ बैठो .'
वे रंग-बिरंगे नन्हें -प्यारे लोग उसके आस-पास बैठ गये .मुकुल के मन में खुशी की लहरें उठने लगीं .
'क्या हुआ ?'
'तोता आगे आया बोला ,'आप लोग क्या चाहते हैं .हम पशु-पक्षी यहाँ नहीं रहें ? .'
'नहीं क्यों , रहो न .हमने कब मना किया आराम से रहो ,बस हमारी जगह पर गड़बड़ मत करो .'

 आपकी जगह कौन सी  ?
'यही जहाँ हम रहते हैं .,  पाँच साल में हमने इसे कितना अच्छा कर लिया पर तुम लोग समझते नहीं ..'     '
' ,'हाँ ,पाँच साल से आप लोग यहाँ आ गये .पहले हज़ारों सालों से ,हम सब यहाँ रहते थे ,धीरे-धीरे आप लोगों ने ने हमें भगा कर सब अपने कब्ज़ें में कर लिया . खुली जगह थी खूब पेड़ थे दूर-दूर तक खुला आसमान था, धूप-हवा-पानी किसी चीज़ की कमी नहीं थी .लेकिन ये सारी जगह आपकी कैसे हो गई .?.'
'पापा ने ये बड़ी-सी कोठी बनवाई है न अपने रहने के लिये .'
' और हम सब को उजाड़ दिया .हम लोग लड़ नहीं सकते और आदमी लोग हमेशा मनमानी करते हैं.'
,'पेड़ कटवा दिये..हमारे घोसले तोड़-फोड़ दिये अंडे-बच्चे निकाल फेंके .न हमारे रहने को जगह न खाने को फल कहाँ जाये हम '
हम तो आपसे कुछ नहीं लेते .न हमें कपड़े चाहियें ,न बड़े-बड़े घर ,और सामान तो बिलकुल नहीं .
और यह सब तो ईश्वर का दिया हुआ है सब जीवों के  लिये .आप लोगों छीन लिया,सब-कुछ बिगाड़ दिया   सबके  हिस्से का अपने लिये समेट लिया ....'
'कैसे ?'
.,देखो न ,सब जगह दीवारें खिंच गई ,ये लो सुनो .ये छोटी-सी गौरैया क्या कह रही है..'
वह आगे फुदक आई ,'हमने तो घरों के मोखों में घोंसला बनाना शुरू कर दिया था.तुम्हारे आँगन में खेलना हमें बड़ा अच्छा लगता था .पर तुम लोगों ने हर जगह जाली और तार लगा दिेये .
'अम्माँ कहती हैं तुम लोग खूब कूड़ा और तिनके फैलाती हो ..'
मुकुल को ध्यान आया अभी कुछ दिन पहले अम्माँ सफ़ाई कर रहीं थी ,झाड़ू के धक्के से  बराम्दे की साइड से एक तिनकों का घोंसला नीचे आ गिरा .दो बिलकुल नन्हें बच्चे ज़मीन पर पड़े चीं-चीं कर रो रहे थे ,दो अंडे टूटे पड़े थे उनका पीली पदार्थ ज़मीन बिखरा पड़ा था. .'
' अपने घर तो बढ़ाते जा रहे हो और हमारा छोटा-सा घोंसला ,जरा सी जगह में उसे नहीं रहने दिया..हमारे अंडे-बच्चे मर जाते हैं हमें भी दुख होता है ..'
मुकुल सिर झुकाये सुन रहा था .समझ नहीं पा रहा था क्या उत्तर दे .
गिलहरी बोल पड़ी,'
तुम-लोग घऱ बनाते हो तो कितना सामान पड़ा रहता  है ,और कितनी  गंदगी फैलाते हो तुम लोग हर जगह थूकना ,कूड़ा फैलाना और भी जाने-क्या-क्या..   ,'
नन्हा खरगोश अब चुप न रह सका ,'भगवान ने इन्हे सब के साथ मिल कर रहने की अक्ल क्यों नहीं दी अरे ये आदमी लोग बड़े स्वार्थी हैं.. .बड़े लालची हैं.'
'हम लोग तो ज़रा सी जगह में गुज़र कर लेते थे .तुम लोग चार-जनों के लिये कितनी-भी जगह घेर लो मन नहीं भरता .हमारे लिय न नदी का पानी पीने लायक रहा .सब गंदगी बहा-बहा कर खराब कर दिया हवा में तमाम धुआँ औऱ अजीब सी महकें ,सांस लेते नहीं बनता-कभी-कभी तो ..'
कौवे का कहना था   'ये धरती माता का दुलार सब प्राणियों के लिये है हमारे न होने पर इनका जीवन भी  कितना कठिन हो जायेगा ये नहीं जानते ये लोग .!
मुकुल को याद आया कि पशु- पक्षी इस धऱती के लिये बहुत उपयोगी हैं ,और पेड़-पौधों के बिना दुनिया उजाड़ हो जायेगी ..'.
इतने में उसकी नींद खुल गई .

सपना उसके ध्यान में था. .कभी पढ़ा हुआ एक  कथन उसके मन में कौंध गया -' यह धरती  एक कुटुंब है जिसमें सभी जीव-धारी एक दूसरे पर निर्भर हैं .'.
उसने सोचा कुछ -न कुछ करना ज़रूर पड़ेगा जिससे कि यहाँ सबका जीवन सुखी हो सके .

*.

बुधवार, 16 नवंबर 2011

काल-मृत्यु .


*
अभी तक  सुना करती था कि अमुक , उपायों से  अमुक रसायनो से या  अमुक (अष्टांग योग आदि की) साधना से -आयु बढ़ जाती है .मुझे आश्चर्य होता था कि संसार में जीव अपनी निश्चित आयु लेकर आता है ,गिनी हुई सांसें ,निश्चित अवधि .फिर इन उपायों से क्या विधि के विधान में व्यवधान आ जायेगा !
पर अब जाना कि मृत्यु दो प्रकार की होती है .काल-मृत्यु और अकाल मृत्यु .अकाल-मृत्यु रोग,से विष से या अन्य अनगिनती प्रकार से हो सकती है . बताये गये  सब उपाय शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और रखने के लिये हैं - अकाल मृत्यु से बचने का हर संभव ,सावधान प्रयत्न !
और काल-मृत्यु जन्म के साथ जुड़ा एक सत्य - सृष्टि का अनिवार्य नियम .
काल मृत्यु हमारे यहाँ ग्राह्य है , पूजनीय है (कालमृत्यू च सम्पूज्यो सर्वारिष्ट प्रशान्तये ').उसके प्रति भय या तुच्छ-भाव रख कर  भागने और  बचने का कोई लाख प्रयत्न करे, सब बेकार .यह विधान उन मनीषियों ने इसीलिये किया  होगा कि ऐसी मानसिकता का निर्माण हो और  जीवन का मान और गौरव इसी में कि  सहज-स्वाभाविक धर्म समझ कर इसे शिरोधार्य कर सकें .इसीलिये वैभव,शक्ति या विद्या-कला की साधना में भी यह भान भूले नहीं .और सचमुच शक्ति-त्रय में से किसी की भी (शक्ति ,लक्ष्मी और सरस्वती ) साधना में काल-मृत्त्यु का स्मरण विहित है (दुर्गासप्तशती में )- क्यों कि काल-मृत्यु देह का धर्म है .
 उद्देश्य यही होगा कि साधना के क्रम में और सफल होने पर भी व्यक्ति को अपनी असलियत का भान रहे ,और  व्यर्थ के अहंकारजन्य अरिष्टों का शमन होता रहे
ऊपरी उपाय ग्रहणीय हैं स्वस्थ और मुदित रहने के लिये .जीवन की क्वालिटी बढाने के लिये  .

इस पर सुधी-जनों के मत जानने की उत्सुकता रहेगी .
*

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

कृष्ण-सखी 13. & 14.


13.
कृष्ण पक्ष की अष्टमी .वातायन से आती चाँदनी अपनी श्यामता  एवं उजास भरी  कूचियाँ फेर स्वप्नलोक का निर्माण कर रही है .
समय का अविराम चक्र अपनी गति से घूम रहा है .पांचाली के दांपत्य में चार वर्ष बाद अर्जुन के आगमन  का क्रम .
अभी चल रही है उनकी दीर्घ अनुपस्थिति..पर किसी का साहस नहीं होता कि द्रौपदी का एकान्त भंग करे . बस एक कृष्ण हैं ,जिनका उस रिक्त वर्ष में प्रायः ही आगमन चलता है .और तब भाइयों के वार्तालाप से निवृत्त हो कर वे ,और दैनिक-चर्या संपन्न कर द्रौपदी  कक्ष के आगे दोनो अपनी पीठिका और चौकी पर आ बैठते हैं .
रात बीतती रहती है , उपवन के वृक्ष हवा में झूमते-हिलते हैं ,आकाश में तारों की महफ़िल ,जहाँ अक्सर चंद्रमा भी अपने समय-सुविधानुसार उपस्थित  हो जाता है .
कृष्ण से  संवाद बिना बहुत दिन होने पर विचित्र सी व्याकुलता घेर लेती है.
तब उस अकेले कक्ष में मन में छाई  रिक्तता को पूरने जाने कहाँ-कहाँ की स्मृतियाँ, ,भूले-बिसरे प्रसंग बाढ़ की तरह उमड़ते चले आते हैं ,जिनमें कहीं कोई तारतम्य नहीं . और भूल-भुलैया बनी -सी विगत की गलियों में भटकी फिरती है पांचाली . .
.जीवन के सामान्य क्रिया-कलापों के बीच  उन्हीं  बातों का बार-बार साक्षात्कार करते कहाँ -कहाँ के विचारों में डूबने लगता है पार्थ विरहित, अकेला मन !
ढमाढम् .ढमाढम्..दूर कहीं से ढोल-चंग बजने की आवाज़ें आ रही थीं उस शाम  .बीच-बीच में उत्तेजित आनन्द से उन्मत्त स्वर लहरी.
वनवासियों का कोई उत्सव है .सारी रात नाच-गाना .पुरुष-नारी दोनों अपनी  विशेष-भूषाओं में सजे ,मद पी कर मत्त .
कितना सहज जीवन है इन धरती -पुत्रों का, न कोई कुंठा न व्यर्थ की चिन्ता .वजर्नायें नहीं, सहज आडंबरहीन जीवन .
 'आदिवासी कितना उन्मुक्त जीवन जीते हैं ,'द्रौपदी ने कहा था.
'हाँ ,देखो न ,सीधा-सरल जीवन  ,उत्सवों का आयोजन. खुल कर नाचते -गाते प्रसन्न रहते हैं ,अंतर का राग व्यक्त होना चाहता है प्रकृति के परिवेश में उसी की अभिव्यक्ति है यह .दबाओ तो विकार बन  जायेगा . एक राह मिल जाए जहाँ  द्विधा रहित हो कर ,अभिव्यक्ति की छूट पा सकें .अंतर में कुंठा पनप नहीं पाये सब-कुछ सरल और सुगम .कितने सहज संबंध इनके और कितनी सरलता से जुड़ जाते हैं .'
कृष्णा का ध्यान कहीं और पहुँच गया -
 कोई ज्योत्स्ना-स्नात राका रही होगी जब  गोपेश ने यमुना तट पर रास का आयोजन किया होगा.
मन में शंका उठी थी कृष्ण के महारास पर.
उस दिन पूछ बैठी थी वह,' और तुम्हारा महारास - वह नृत्य-गान का उन्मुक्त आनन्दोत्सव ! मर्यादित  नागर-समाज में उच्छृंखल व्यवहार  की छूट लेना तो नहीं .. ?'
'उच्छृंखल नहीं सहज और स्वस्थ बना रहा हूँ समाज को .जहाँ एक को सारी छूट और दूसरे को सारे बंधन वह समाज स्वस्थ हो ही नहीं सकता . समाज के सभी लोग भाग लें. नर-नारी दोनों.निर्मल आनन्द.नृत्य और गान खुले परिवेश में ,और कृष्णे ,दुरुपयोग तो किसी भी वस्तु का किया जा सकता है .उसके पीछे सुन्दर संभावनाओं की खोज क्यों पीछे रह जाय ?'
 'समाज के नियमों से तटस्थ रह ,इतना उन्मुक्त आचरण  कैसे कर लेते हो तुम ?इतनी नारियों को सम भाव से आत्मीय कैसे बना पाते हो ?और सहज इतने कि किसी को आपत्ति का कोई कारण दिखाई नहीं देता ?'
' आपत्ति क्यों ?सहज-स्वाभाविक व्यवहार, कोई दुराव-छिपाव नहीं .'
कितना चंचल है मन . थिर रहता नहीं .पल में कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है.
वह उत्सव की बेला बिला गई ,सामने आ गई. जीवन की प्रस्तावना-कथा .विविध संदर्भ जाग गए ,सखा के साथ बीते किसी काल-खंड की  स्मृतियों में पहुँच गई.
 वही शब्द कानों में गूँजने लगे -
.'उन ब्रज वनिताओं ने अपने नेह-पारावार में मुझे आकंठ स्नान करा मेरे तन-मन को निर्मल कर दिया.  उनके गुणों से कितना अभिभूत हूँ . और इतना कृतघ्न नहीं  ,कि अपने अहं की तुष्टि के लिए  उनमें  कमियाँ ढूँढ-ढूँढ कर ढिंढोरा पीटता रहूँ  , नारी जाति के लिए   कृतज्ञता कैसे व्यक्त करूँ ? यह जीवन जिनकी देन है ,उन्हें जीवन के संतापों से किंचित भी मुक्ति दिला सकूँ  . खोलना चाहता हूँ ये बेड़ियां, कि वे खुल कर साँस  ले सकें .इसीलिए ये गान ,नृत्य ,रास, फाग ,झूला-हिंडोला कि जीवन में रस का संचार हो .आनन्द जो तिरोहित रह जाता है  उसका आस्वाद ले सकें ..'
विस्मय होता है पाँचाली को . समझ नहीं पाती नहीं कब क्या करेगा !
'नारी के प्रति तुम्हारी दृष्टि कितनी संतुलित है ,कितनी मानवीय !'
' मेरा इस प्रकार यहाँ होना , मेरा जीवित बच जाना ,उन्हीं के कारण संभव हुआ  .
 जो आज हूँ, उनकी ही देन ,एक ने वर्षों कष्ट और ,दारुण मनोव्यथाएँ  झेलते हुए मुझे जन्म दिया ,दूसरी ने अपनी सद्यजात-कन्या  दे कर मेरे जीवन  की कीमत चुकाईमेरे शैशव को अमृत-पयपान काराया ,वात्सल्य से सींचा,निश्छल स्नेह से मेरा जीवन सँवारा . ब्रजनारियाँ मेरी बाल-सुलभ मनमानी ,मेरे सारे उपद्रव सहज-विनोद भाव से सहन करती रहीं . सच्चा आनन्द तो उन्हीं ब्रज की गलियों में पाया मैंने ,उस गोचारण के  सहभोज जितना रस मुझे कहीं नहीं मिला वैसे सरलमना संगी फिर मेरे जीवन में  कभी नहीं आये .और सिर्फ़ तब नहीं ,आगे का सारा जीवन भी तो ..यह जीवन क्या मेरा रह गया . उन सब का अधिकार इस पर मुझसे  कहीं अधिक है .'
अपनी अभिन्न सखी से सामने अपना मन खोल देता है यह पुरुष जिसे लोग असाधारण ,अलौकिक समझते हैं .
 'मित्र हो तुम मेरी ,तुमसे क्या छिपाना .'
 कभी  बोलते-बोलते रुक जाता है  .लगता है जैसे कंठ भऱा आ रहा हो .
मुख बोले या न बोले पांचाली से कुछ गोपन नहीं रहता.
सहसा वह कह उठती है , ' यह तुम कह रहे हो वासुदेव ?'
'बस एक तुम .तुम्ही से कह पाता हूँ...'
उसकी एकान्त मनोव्यथा की साक्षी है केवल पांचाली .उसी के सामने खुल पाता है वह ,
'हाँ पांचाली ,मैं .हँसता रहता हूं ,इसका यह अर्थ तो नहीं ,कि अंतर में दुखन नहीं मेरे. ..इन परिस्थितियों में कोई होता ,...'
 'जनार्दन ,तुम्हें समझ रही हूँ !'
'सब ने क्लेश ही तो पाया ,किसे कुछ दे पाया मैं .किसे सुख मिला मुझसे ,बस अशान्ति ही तो ..'
नयनों में कैसी निर्लेपता छाई जा रही है .जैसे कहीं बहुत दूरियां माप रहे हों .  ऐसे विषम क्षणों मे पाँचाली को अपना दुख बहुत छोटा लगने लगता है .
 क्यों कहती है ,क्यों पूछती है इतना सब ?
देखती चले चुपचाप ,क्यों हर बात जानना चाहती है !मन ही मन स्वयं को  धिक्कारती है - क्यों जगा देती है इस आनन्दी प्रतीत होनेवाले पुरुष के मन की सोयी व्यथायें ?
 मुझे तो हमेशा कठिनाइयों से उबारा है इस प्राणसखा ने .
आश्वस्ति हेतु कुछ कहना चाहती है .पर क्या ? कहने को है ही क्या  !
और वह चुप सुनती रहती है .
'तुम सोच मत करो सखी  ,ये तो देह धरे के दंड हैं . शरीर ही काला नहीं जीवन-कथा के सारे अध्याय उसी रंग से रचे गये .जन्म से अब तक जिसके साथ रहा अशान्ति के सिवा उसे क्या भेंट दे सका .माता-पिता कभी चैन से रह सके.. .दोनों माता-पिता ?
 केवल उनका नहीं संपूर्ण नारी जाति का वह ऋण नहीं चुका सकता जिसने किसी न किसी रूप में मुझे जीवन भर सहेजा .उसे पराभूत होते देखना मुझे सह्य नहीं .
चिर-ऋणी हूँ मैं उसका . किसी का सहारा बन सकूँ किसी को प्रसन्नता दे सकूँ....'
सिर झुकाये सुन रही है द्रौपदी.
 'मैं भूल नहीं पाता अपनी भगिनी को ,जिसने मेरी जीवन-रक्षा हेतु  कंस का आघात झेला ,उस  शक्ति स्वरूपा का अपरिमित ऋण है मुझ पर ..'
'क्या वे .. उनका वध कर दिया कंस ने ?'
'बस यही संतोष है .मुझे जीवन देनेवाली वह शक्ति-रूपा मेरी भगिनी जीवित है .'
'अच्छा ! मैंने भी सुना था नंदबाबा  और यशोमति-माँ  के एक पुत्री जन्मी थी ..जो..कंस के हत्थे चढ़ गई? '
'उस समय यही प्रचारित किया गया था .कहीं कंस को भनक लग जाती तो रक्षण देने वालों का भी जीना मुश्किल  हो जाता.,देवकी- माँ  के अन्य शिशुओँ ,मेरे उन सहोदर भाइयों की भाँति कंस उसे मार नहीं पाया था .जब वह उसे घुमा कर पटकना चाहता था अचानक वह उसके हाथ से फिसल गई .उसने समझा कहीं जा कर गिरी होगी . बच कहाँ सकती है .
सात शिशुओं को पटक कर मार देने वाले नृशंस हत्यारा !
 कंस की दासियाँ भी उससे खिन्न थीं .और ऊपर से  कन्या का वध ,जघन्य पाप  ! नहीं ,अब हम नहीं होने देंगे यह अत्याचार .तय कर लिया था उन  ने . उनके मन में विश्वास जमा था कि आठवीं बार यह हत्यारा सफल नहीं होगा .यह संतान नहीं मर सकती ,कभी नहीं मर सकती.
आधी रात कन्या का आगमन - सूचना दी गई थी कंस को.
' ठठा कर हँसा था वह.सोते से उठकर चला आया .एकदम कोमल अवश कन्या का वध उसके लिये कौन कठिन काम ,
सद्यजात थी. वैसे ही रहने दिया परिचारिकाओं ने .गर्भ का तरल  यथावत् शरीर से लिपटा रहा. फिसलन भरा आर्द्र तन ,ऊपर से  तैल आलेप दिया उन लोगों ने .
उतावली में उसने ने उठा कर जैसे ही झटके से घुमाना चाहा  हाथ से एकदम फिसल गई .हड़बड़ाहट में अवधान रहित और भौंचक हुये कंस के सामने कई दासियाँ दौड़ आईं ,'अरे, कितनी त्वरा से ...एकदम दृष्टि से ओझल! किधर चली गई वह ...'कहते हुये दासियों ने उसका ध्यान बटा कर छिटकते शिशु को अति लाघव से झेल लिया,झुक कर चारों ओर खोजने के मिस हाथों-हाथ  गायब कर दिया .  .
'अरे ,कितना वेग आपके करों में महाराज.एकदम से कौंधी और ओझल !  दृष्टि विफल हो गई कुछ नहीं  दिखा किधर ,कैसे ? हम सब तो हत्बुद्ध रह गये  .'
भरमा गया कंस और बालिका को चुपके से विंध्याचल पहुँचा दिया गया. वही गोप-बालिका है विंध्यवासिनी !
( 'नंद गोप गृहे जाता,यशोदा गर्भ संभवा ,ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी .' -दुर्गासप्तशती)
वह जीवित है ,विद्यमान है , हमारे साथ है!
दोनों के प्रमुदित नयन मिले ,एक दूसरे के परितोष में मग्न , परम आश्वस्ति से आपूर्ण .
कोई कुछ बोल नहीं रहा .
 कैसी  अनिर्वच स्वस्ति के क्षण !
14.
'राधा का साथ ? एक बार ब्रजभूमि से निकला फिर वहाँ का सब कुछ स्वप्न बन कर रह गया, '
माधव ने कहा था.
'फिर कभी नहीं मिले तुम ?'
' हाँ ,मिला था  एक बार. प्रभास-तीर्थ में- बस एक बार !'
द्रौपदी सुनती रही ,मन की आँखों से देखती रही .
 सूर्यग्रहण ! प्रभास तीर्थ पर मेला लगा है .
कृष्ण आये हैं परिवार और  रुक्मिणी के साथ.उधर ब्रजभूमि से गोपों की टोली आई है .नन्द-यशोदा से वसुदेव-देवकी मिले . कितने कृतज्ञ .
रुक्मिणी ने बंकिम हास्य के साथ कृष्ण से  पूछा था ,'बरसाना की राधा के विषय में बहुत सुना है.  कहाँ है तुम्हारी वह बालापन जोरी,मुझे भी दर्शन करा दो .'
विचित्र सा उल्लास कृष्ण के मुख पर छाया था .
ब्रज-मंडल से आई टोली की युवतियों की ओर इशारा करते हैं
' वह ठाड़ी तहँ जुवति वृन्द मँह नीलवसन तन गोरी .'
(- सूरदास)
नीलांबरी राधा ! इस दुनिया की नहीं लग रही थी ,लगता था किसी दिव्यलोक से उतर कर आई है .,कृष्ण के नयन अपार अनुराग से भरे .उन्होंने अपने आप को पहले ही तैयार कर रखा था , जानते थे राधा आयेगी .
 रुक्मिणी देखती रही नयनो में ईर्ष्या कौंधी .
द्रौपदी  को ज्ञात था, कृष्ण ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था -राधा से मेरा दैहिक संबंध कभी नहीं रहा .मन की अंतरंगता थी ,परम मित्र के समान .उसने मुझसे कभी कुछ नहीं चाहा-बस देती रही ,अपार विश्वास और अपरिमित अनुराग . जैसी तब थी बल्कुल वैसी की वैसी है राधा !
भावनामय जीवन कभी जरा-जर्जर नहीं होता क्य़ा !युग-पर- युग ऊपर से निकलते चले जायें उसका राग मंद नहीं होता, उसकी ताज़गी कभी कम नहीं होती ?
 - और कैसे मिलीं राधा और रुक्मिणी - 'बहुत दिनन की बिछुरी जैसे एक बाप की बेटी'(सूर)
रुक्मिणी महलों में निमंत्रित कर लाई थी उस सरल हृदया को.
आतिथ्य के प्रति अति सजग  हो ,कृष्ण से पूछ-पूछ कर राधा की रुचियाँ जानी .
 भवन में उस कक्ष की सज्जा स्वयं कृष्ण ने करवाई . राधा के प्रिय पुष्प ,मोरपंख और बाँसुरी,जो बिदा के समय उसी ने  कनु को भेंट की थी, सजा कर रखे .कमल पँखुरियों से सज्जित कर अपने सामने उसकी शैया सज्जित करवाई. ,क्या पहनेगी ,क्या खायेगी ,कहाँ सोयेगी उसके एक-एक पल का विवरण उनके पास था .
कक्ष के वातायन से मनोहर उपवन की शोभा , कदंब और तमाल के वृक्ष ,ऋतु-पुष्पों सहित  तुलसी-मंजरियों  की गंध समेटे पवन के झोंके ,और चंद्र-ज्योत्स्ना का अबाध आगमन .
 कक्ष में मणि-रत्नों के नहीं , बस माटी का स्नेह-दीप .
निद्रा से पूर्व , भरका हुआ गौ-दुग्ध भिजवाना उसे -  स्वर्ण -रजत के नहीं ,काँसे के पात्र में ,
और सुनो रानी,हीरे-मोती पाटंबर सब उसके लिये व्यर्थ हैं - देना ही चाहो तो नीलांबर-पीतांबर और वनमाला ही अर्पित करना.
पटरानी का मुख देख कर बोले थे -बस एक ही दिन का आतिथ्य तो उसका  ,सारा वैभव -विलास और अधिकार तुम्हारा !
स्वयं रहे सारी व्यवस्थाओं में व्यस्त.
 राधा के आगमन के उपलक्ष्य में पुर की नवीन साज-सज्जा  करवाई गई ,अपनी बालसखी को रथ पर बैठा कर पुर का भ्रमण जो करवाना था .
   पर सौतिया डाह तो सगी बहनों में भी द्वेष भर देता है .
अपने कनु को देख मुस्कराई राधा .बोली कुछ नहीं .
कृष्ण के साथ द्वारका -भ्रमण कर लौटी थी ,उसके बाद भोजन किया माखन -मिश्री ,फल प्रिय थे उसे .
शैया पर विराजीं ,रुक्मिणी स्वयं दुग्ध का पात्र लेकर पहुँचीं ,'लो बहिन ,स्वामी को अब तक स्मरण है कि रात्रि शयन से पूर्व तुम दुग्धपान करती हो. कहीं चूक न हो जाये - उन का विशेष आग्रह है .'
 मन- मोहन के ध्यान में लीन राधा ने कृतज्ञ हो ,  मंद  स्मित पूर्वक  , रुक्मिणी के हाथ से  पात्र ले लिया .
रुक्मिणी खड़ी रहीं .
पास रखी वेदिका पर रखने का उपक्रम करते देख बोल पड़ी , 'विश्रान्त लग रही हो  ,बाल सखा के साथ नगर-भ्रमण करते थक गई होगी!.. कहीं ऐसा न हो दुग्ध धरा रह जाय और तुम निद्रालीन हो जाओ .नहीं, मैं यहीं खड़ी हूँ ,पात्र ले कर ही जाऊँगी .'
'कितना कष्ट कर रही हो मेरे लिये ,' उपकृत थी  राधा शैया पर स्थान बनाते हुये बोली ,'बैठो बहिन .'
' नहीं अब चलूँगी ,स्वामी की सेवा करनी है .तुम शयन करो .'
अनुरोध का मान रखा राधा ने  झटपट दूध पी लिया .
*
 रात में रुक्मिणी ने पाया कृष्ण के चरणों में छाले पड़े है .
'क्या बिना उपानह पैदल पुरी घुमाते रहे उन्हें जो चरणों में ये छाले डाल लाये ?' वाणी में किंचित तीक्ष्णता थी .
पत्नी की मुख- मुद्रा देखते रहे कुछ पल  ,उनके मन में क्या चल रहा है , वह नहीं अनुमान पाई .
'तुमने राधा को इतना गर्म दूध पिला दिया ?'
सारे किये- धरे पर पानी फिर गया हो जैसे - रुक्मिणी एकदम हतप्रभ .
कृष्ण ने द्रौपदी से कहा था ,''सखी ,वह ताप ,'मेरे हृदय को अब तक दग्ध कर रहा है. '
पर तब रुक्मिणी से कहा था ,',उसे इतना गर्म दुग्ध क्यों पिलाया तुमने ?
पत्नी ने सफ़ाई दी ,'मेरी ऐसी कोई योजना नहीं थी .गर्म दूध दिया था इसलिये कि वह खोई सी रहती हैं ,विलंब से पियेंगी तो भी ठंडा नहीं होगा .इतनी बेखबर रहती हैं मुझे पता नहीं था .'
फिर कुछ नहीं कहा था कृष्ण ने .
उस रात वे सोये कहाँ ?
जाने कब की सेंती धरी बाँसुरी निकाल लाये  .और कुंज- भवन में चले गये.
रह-रह कर सारी रात बजती रही बाँसुरी - धीमे-धीमे स्वर ,
कैसा आकुल राग?
राधा सो रही है .कितनी आश्वस्त, कैसी  गहन शान्ति के ज्वार में डूबी.
ऐसी विश्राम भरी निद्रा कभी आई थी क्या? बीच में आई किंचित् सजगता, आभास देती है कान्हा का, यहीं- कहीं  आस-पास है वह  .विलक्षण तृप्ति से भरा  मन  .बाँसुरी की आकुल तान ,थपक  बन बन , फिर-फिर  तन्द्रा में खींच ले जाती है .
वातायन से आती शुभ्र चन्द्र-रश्मियाँ  उस मीलित पलकों वाले निद्रित मुख का प्रक्षालन करती बही चली आ रही हैं .कक्ष में सब-कुछ अपार्थिव  हो उठा है .
उसी मनोभाव  में आत्मविस्मृता  पांचाली जाने कब निद्रा-लीन हो गई .
(क्रमशः)


बुधवार, 2 नवंबर 2011

कृष्ण-सखी - 11.& 12.


11
एक उन्हीं का तो सहारा है द्रौपदी को.
क्या कुछ घटना क्रम है ,कैसे अपने व्यक्तित्व को निरंतर माँज रहे हैं ,रगड़-रगड़ कर और और परिष्कृत कर रहे हैं .अर्जुन का कब, कहाँ, क्या, सब जानना होता है कृष्णा को .
और साथ में चलती हैं दुनिया भर की चर्चायें .
स्थान होता है कृष्णा के कक्ष के आगे का भाग ,उसका प्रिय स्थान . चौकी पर गोविन्द और पीठिका पर पांचाली .सामने वाटिका है - ऋतु के पुष्प-पत्रों से सुसज्जित.
वृक्षों से झरते हवा के झोंके ,पुष्प-गंध लिये चले आते हैं .
आकाश मेघाच्छन्न हो तो मयूरों का नर्तन ,और एक बार तो एक मोर-पंख पांचाली के पास आकर गिरा .
अर्जुन के विस्तृत समाचार लेकर जब कृष्ण  का आगमन होता है ,चारों भाई परम उत्सुक हो उठते हैं- चेहरे पर आई प्रसन्नता छिपाये नहीं छिपती ..बहुत सत्कार करते हुये घेर लेते हैं उन्हें .
तुरंत पुकार होती है ,' पाँचाली कहाँ हो  ,देखो तो कौन अतिथि आये हैं !'
अर्जुन की नई उपलब्धियाँ सुनते भाइयों की छाती फूल उठती है.'अब दुर्योधन और शकुनि की चालें कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगी .हम समर्थ हो गये हैं कोई भिड़ने की हिम्मत नहीं करेगा. अनेकों स्थानों , तीर्थों का भ्रमण किया कितनों से मैत्री जुड़ी,कितनों से संबंध .वहाँ सुदूर पूर्वी प्रदेशों की नारियाँ जिनके नेत्र-नासिका आदि मुखावयव बिलकुल भिन्न .वहाँ के सौन्दर्य के प्रतिमान भिन्न हैं .
द्रौपदी जानती है किरात परिवार की - मुँदी-मुँदी आँखें.ऐसी एक सपत्नी मिली है - चित्रांगदा.कभी न कभी तो आयेगी .
शूल -सा चुभा हृदय में .
पर ठीक तो है .मैं भी तो जीवन को भोग रही हूँ और वह इस लंबी अवधि में बिलकुल वंचित रहेगा क्या ? कुछ तो राग-रंग तो जीवन में चाहिये ही .
एक दम ध्यान आया ,एक युठिष्ठिर और एक अर्जुन ! कितनी भिन्नता है दोनों में .और हो भी क्यों न - वे धर्म राज - कभी विचलित होते नहीं देखा ,न कभी उद्विग्न ,कुछ होता रहे उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता . शान्त- संयत, परम नीति परायण, सत्यवादी - सोचते-सोचते कुछ अटकती है और बहुत से धीरोदात्त होने के गुण . हाँ , यह तो सभी  मानते हैं .
और धनंजय ? इन्द्र का अंश -स्वच्छंदता स्वभावगत . सौंदर्य का भोगी और रसज्ञ - धीर-ललित! पर भाई के सामने सदा मर्यादित .यह भी जानती है वह कि भीम में थोड़ा औद्धत्य है ,वेग-आवेग से युक्त .वायु की संतान जो हैं . शेष दोनों अपने ढंग के , छोटे पड़ जाते हैं. सारे भाई कितने भिन्न .फिर भी सदा एक साथ !
सब के साथ संयत बनी ,सारा कुछ सुनती रहती है .

'अब तुम भी विश्राम करो ,बंधु ' कह कर बड़े भैया उठ जाते हैं,

भोजन के पश्चात लेटने का उनका नियम है .और भाई भी धीरे-धीरे उठ लेते हैं
इसी क्षण की प्रतीक्षा रहती है उसे ,पूरा अवकाश होता है मीत से मनमानी बातें करने का . सखा से पूछने में काहे का संकोच .कृष्ण समझते हैं उसकी व्याकुलता , द्रौपदी छोटी-से छोटी बात जान लेना चाहती है !
मणिपुर की राजकन्या चित्रांगदा के रूप पर मुग्ध अर्जुन ने चित्रवाहन से अपनी कामना प्रकट की .पिता ने अपनी शर्त सामने रख दी -हमारे कुल में एक ही संतान जन्म लेती है .चित्रा यहीं रहेगी ,और उसकी संतान भी ननिहाल में .
चलो यह भी ठीक -याज्ञसेनी ने सोचा .
धनंजय ने कहा है ,'अश्वमेध के अवसर पर आने के लिये .'
' हाँ ,उचित है .'
कर्ण का उल्लेख हमेशा टालने का यत्न करती ,पर कभी -कभी उन चर्चाओँ में  वह साक्षात् खड़ा हो जाता- पांचाली में  कुछ नये संताप जगाता हुआ.
ऐसे ही एक वार्तालाप में कृष्ण ने कहा था-
जब किसी की वास्तविकता नहीं जानते हम तो आक्षेप करने का क्या औचित्य ? उसका व्यक्तित्व क्या उसकी कुलीनता  का आभास नहीं देता .अपने जन्म का प्रमाण  कोई कहाँ से लाएगा ? एक शृगाल के कुल में क्या सिंह पैदा हो सकता है !'
और  कहा था ,'हाँ, मैं भी कहीं जन्मा कहीं पला ,मेरे माता-पिता का पता न होता तो और  मेरे साथ भी यही सब होता ...!.. .
'तुम अग्नि संभवा हो पर प्रखरता में वह तुमसे कम नहीं.कोई कमी ,कोई तुच्छता कभी दिखी क्या उसमें ? मुझे तो लगता है इन राज-पुरुषों से अधिक संभ्रान्त है वह .'
कृष्णा बड़ी उलझन में पड़ जाती है .अब यह सब कह रहे हैं पर उस दिन क्या हो गया था ?
इतनी विशेषतायें गिना रहे है ,कभी किसी कमी की चर्चा नहीं की .फिर क्यों ....वह पूछना ,चाहती है -उस दिन क्यों इसी मुख पर असंतोष की रेखायें उभर आईँ थीं .मेरी दृष्टि ने प्रत्युत्तर में अनुकूलता क्यों नहीं पाई थी ?.
' मैं तो दोनों में से किसी को नहीं जानती थी गोविन्द , ' उस दिन कह ही डाला कृष्णा ने
 'कितनी बातें सुनी थीं कर्ण के विषय में,अज्ञात कुल-शील ,दुर्योधन का कृपा पात्र ,सारथी की आजीविका ...और अर्जुन,सव्यसाची , इन्द्र का अंश ,कृष्ण का बंधु,अद्वितीय धनुर्धर ,और भी जाने-क्या-क्या जिसकी गौरव-गाथा गाते पिता थकते नहीं थे .'
' कृपा पात्र? कर्ण ?दुर्योधन का ! कर्ण के,ऐसे अप्रतिम योद्धा के ,परम वीर के  संरक्षण में आ गया वह... अरे निश्चिंत हो गया वह .अर्जुन की टक्कर का और कौन था यहाँ ?'
'इतनी प्रशंसा करते हो उसकी और तब तुम्ही अनुकूल नहीं थे .जब कर्ण  मत्स्य-बेध हेतु शर-संधान हेतु तत्पर हो गये . तुम्हारी दृष्टि क्यों मुझे बरज गई थी ?
कृष्ण मौन रहे .द्विधा में रहे कुछ समय.
फिर बोले- ,'हाँ  ..तुम्हारे जन्म का जो निमित्त था वह तो पूरा होना था पांचाली .
सारे सरंजाम इसलिये रचे गये थे कि महाराज द्रुपद को अर्जुन  ही अपने जामाता के रूप में स्वीकार था .उनका सारा आयोजन इसीलिये था .ये कर्ण जाने कहाँ से आ गया तब कौन जानता था किसी को अनुमान भी नहीं था कि वह बीच में कूद पड़ेगा .'
' ..और मैंने क्या सोचा ..क्यों नहीं चाहा कि वह जीत ले शर्त . वह भी सुन लो .दुर्योधन ने आगे बढ़ कर  कर्ण को अपनाया अपने समान स्तर पर ला कर उसे अपना मित्र बनाया .जिस भी कारण से हो लेकिन उसे पद और प्रतिष्ठा देने वाला वही था .कर्ण क्या  कभी यह भूल सकता था ?
'उसके बिना क्या था कर्ण ?किसने मान्यता दी थी उसे ?किसने उसकी क्षमताओं को पहचाना ? बस एक दुर्योधन ने  .वैसे भी कर्ण स्वार्थी नहीं ,अपना सब कुछ देकर उऋण होने का प्रयत्न करनेवाला .जिसने मान-सम्मान दिया ,पहचान दी उस मित्र के लिये वह कुछ भी करने से चूकेगा नहीं .उसी मित्र के मन में तुम्हारे प्रति लालसा जान कर वह तुम्हें स्वयं स्वीकारता क्या ?नहीं . वह तुरंत उस की कामना पूरी करता .और यह मैं नहीं चाहता था कृष्णा ,कि तुम उस कुटिल-मति की सहधर्मिणी बनो '

' लेकिन तुम इस प्रकार उसे अपमानित कर निकालोगी यह भी नहीं सोचा था .बाद मे  घटना- चक्र ने जो मोड़ लिया उसकी कोई संभावना  मुझे नहीं थी .तुम्हारे मन में उसके प्रति इतनी विरक्ति ,इतनी वितृष्णा कहाँ से आ गई ,याज्ञसेनी ,जब तुम  उसे जानती तक नहीं थीं ?
वैसे जानती तो तुम  पार्थ को भी नहीं थीं .'
एक उसाँस ली द्रौपदी ने ,' हमेशा दाँव पर लगा रहा यह जीवन !पिता , सासु-माँ ,और पति भी . सब अपना-अपना सोचते रहे .मेरे लिये कभी किसी ने नहीं सोचा..कैसी दुरभिसंधियों से घिरी रही !
कभी-कभी लगता है सब शामिल हैं उसमें .एक साथ ये पांचो   -इनका भ्रातृत्व का रिश्ता सबसे ऊपर है - मैं सब के लिये गौण रह गई हूँ  ...समझ नहीं पाती  किसका आसरा करूँ   ...'
'ऐसा न कहो सखी ,स्थितियाँ ही ऐसी विषम हैं. कोई करे तो क्या करे ?..पर मैं  हूँ न ,   वन में हो चाहे पुर में . देखो ,स्मरण करते ही दौड़ा चला आता हूँ .
'बस एक तुम ही तो ..यहीं  कुछ चैन पाता है मन .
.मेरा सहारा बस तुम हो गोविन्द !'
*
11.
'उलूपी -ऐरावत वंश के कौरव्य नाग की कन्या.. .'
चारों भाई कृष्ण को घेर कर बैठे  हैं .पांचाली आ चुकी है. खिड़की के पास  चौकी पर उसका निश्चित स्थान है
'उनका निवास तो पाताल में था,' नकुल बीच में बोल उठे .
सहदेव के नयनों में भी प्रश्न की झलक.
' धरती पर आना-जाना लगा ही रहता है .और धनंजय ही कहाँ एक जगह टिकनेवाले .उलूपी एकाकिनी थी .' कृष्ण ने समाधान किया.
'एकाकिनी ?'
'हाँ ,पारस्परिक शत्रुता में गरुड़ ने उसके पति को अपना ग्रास बना लिया था.'
सब सुन रहे हैं ,
'हाँ , यौवन-संपन्ना अकाल वैधव्य-प्राप्त उलूपी,.. पर अब नहीं. अब वह है धनंजय की सौभाग्यवती पत्नी . '
 सब चौंक गये .एकदम चुप्पी छा गई .
मौन भंग किया भीम ने -
'..तो क्या हुआ ? भइया कृष्ण  ने भी तो जानते-बूझते उन सोलह सहस्त्र अभागिनियों को सौभागिनी बनाया ..कौन सा दोष था उनका ?'
'अपने हित में नहीं.. ,' कृष्ण का स्वर था ' कितना अन्याय हुआ था उनके साथ .वे सोलह सहस्र निरपराध अपहृतायें सामाजिक बहिष्कार का जो दुसह दुख भोगतीं और जीवन भर वंचनायें सहतीं ,उनका संताप आने वाले युगों को  विकृत कर देता.कितने युग अभिशप्त  हो जाते कौन जाने...'
 द्रौपदी सुन रही है चुपचाप
' बहुत समर्थ नारी है उलूपी  .अपनी साधना से संजीवनी मणि प्राप्त करनेवाली  !'
किसी को कुछ कहना नहीं ,सब सुन रहे हैं   ,वासुदेव के स्वर गूँज रहे हैं  ,
'....इधऱ .आप लोगों को व्यापक समर्थन और सहायता चाहिये . हर संभव  प्रयत्न कर रहे हैं धनंजय..इस संबंध से उन्हें जलचरों के स्वामी होने का वरदान मिला है .कितनी सामर्थ्य बढ़ा रहे हैं अपनी !'
'उचित किया अर्जुन ने ,' युधिष्ठिर बोले थे -'अकेले रह कर कौन ,क्या कर सकता है ?'
','कितने अलग-थलग पड़ गये थे हम लोग .अब देखो न उधर मणिपुर तक हमारे संबंधी और इधर यह नागवंश भी हमारे साथ हुआ .दूरदर्शी है हमारा भाई .' युधिष्ठिर संतुष्ट हैं .
द्रौपदी की ओर देखा है कृष्ण ने -
'सारे विवाह ,विवाह कहाँ ?एक समझौता बन जाते हैं .राजाओं के साथ तो और भी .समर्थन जुटाना है ,शक्ति बढ़ानी है .जिससे अवसर आने पर सहायता के लिये बहुत से  हाथ  आगे बढ़ आयें .
भाइयों के  मुख पर आश्वस्ति के भाव हैं.
तभी परिचारिका ने प्रवेश कर भोजन हेतु कक्ष में   पधारने का निवेदन किया.
द्रौपदी उठ खड़ी हुई , 'तनिक .उधर की व्यवस्था देख लूँ .'
कृष्ण  समझ रहे हैं सखी की मनस्थिति .
*
12.
'क्यों सखी, तुम्हारे तो तीन ही सपत्नियाँ हैं ,वे भी साथ नहीं रहतीं -शासन  तो तुम्हारा चलता है सब पर , पार्थ के तो और चार सहपति ..'
'बस चुप करो ,वे सहपति नहीं भाई हैं सब .जब भाई साथ होते हैं तो पत्नी किसी की नहीं  ,सब छुट्टे .'फिर कुछ रुक कर पांचाली ने जोड़ दिया, 'बँधी रहती है बस पांचाली , .बिना भेद-भाव ,सबकी परिचर्या का व्रत धारे  .'
'धीर धरो याज्ञसेनी, जीवन की परिस्थितियों पर हमेशा हमारा बस नहीं रहता...आगे के लिये सोच-समझ कर व्यवस्था करना ही दूरदर्शिता कहलाती है .'
वह चुप रही .वासुदेव ही कहते रहे -
'यहाँ  तुम्हारी राह में  कोई नहीं ,न ही  कोई उस पद की दावेदार .और लाभ सारे अपने .उन दूरस्थ सपत्नियों के पुत्र हैं.उन सब का होना पार्थ के लिये कल्याणकारी होगा. हम सब के लिये भी . सहायता के लिये तुरंत दौड़े आयेंगे .कौन जानता है आगे किस स्थिति से सामना करना पड़े ..'
द्रौपदी जानती है .चित्रांगदा का पुत्र वभ्रुवाहन - भाइयों को उत्सुकता थी कब देखने को मिलेगा .
पर उसके लिये मणिपुर नरेश की शर्त थी- उनके परिवार में एक ही संतान होती है , अतः पुत्री और उसकी संतान वहीं  रहेगी, वहीं पलेगी ,.विशेष अवसरों पर आना-जाना बस .और उलूपी का इरावान - वह तो छोटा है अभी .
कृष्ण की बात कितनी सटीक है समझ रही है वह.
 सुभद्रा का ,अभिमन्यु का कितना बड़ा सहारा है हम सबको?
 सुभद्रा  नहीं होती तो ?बचपन से उन्हीं के यहाँ पले हैं द्रौपदी के पाँचो पुत्र .
इतनी सुख-सुविधायें ,इतना अपनत्व ,ननिहाल का मान-सम्मान मिल पाता क्या ?
बहुत ठीक किया था वासुदेव ने.
दुर्योधन अपने वाग्जाल ,और धूर्तता से ,भोले बलदाऊ को  बहका कर अपने अनुकूल बना लेता है ,और वे उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ कर पांडवों पर ही क्यों ,कृष्ण से भी कुपित हो जाते हैं .उन्हें साधना तो  बहुत ज़रूरी था .
सुभद्रा के उपयुक्त वर थे अर्जुन ,नहीं तो दाऊ कहीं दुर्योधन की चाल में आकर बहिन को ग़लत हाथों में सौंप देते तो ?.समझ रहे होंगे कृष्ण .तभी सुभद्रा-हरण की योजना बना दी .अब लाड़ली बहिन के पति से कहाँ तक विरोध  कर पायेंगे दाऊ!
वाह रे, कृष्ण क्या एक ही वार से दो निशाने साध लिये .
और सुभद्रा -सरल,स्नेहमयी ,गोपकन्या ,कृष्ण की भगिनी .द्रौपदी के आड़े कहीं नहीं आती .साथ में रहती भी कितना कम है ,प्रायः ही मायके जाती-आती हुई ..
कहता तो ठीक है, विवाह भी आवश्यकता बन जाता है ,और कितनी समस्यायओं का समाधान भी .केवल भोग की इच्छा वहाँ नहीं रहती  .
और ये मोहन सारा कुछ  ऐसी आसानी से कह जाता है .
ऊपर-ऊपर से लगता है बेकार में बोल रहा है पर वाणी प्रतिफलित हो जाती है इसकी.जाने कौन सी बात कहाँ जाकर यथार्थ में परिणत हो जाये !
पर कभी-कभी  खीझ जाती है द्रौपदी -
अरे ,ये बचपन से ऐसा है - टेढ़ा ! कब क्या करेगा कोई ठिकाना नहीं !
सोचती ही रह जाती है - भवितव्य इसे व्याप जाता है या इसके मुँह से जो निकल गया वह सच हो जाता है -
लगता है छलिया ,पर इसका कोई काम निरर्थक हुआ है कभी क्या !
*
(क्रमशः)