बुधवार, 14 दिसंबर 2011

रट के आई हैं !



मौसम बदल रहा था ।ऐसे दिनों में प्रायः ही ज़ुकाम की शिकायत हो जाती है ।
जब क्लास   में खड़े होकर बोलना पड़ता है तो गले में एकदम सुरसुरी और अटकाव के मारे बोल निकलना मुश्किल .
'कुछ लेते क्यों नहीं' कहने की विज्ञापनी परंपरा है सो
एक मित्र ने कहा ने कहा ,' बढ़ा क्यों रही हो ?ऐसे ये ठीक होनेवाला नहीं ।अपनी तो रोज़ गले  की कवायद होती है ।  दवा ले लो ।'
 मैंने कहा ,'एलोपैथी की दवा से एकदम खुश्क हो जाता है , लगता है सब अन्दर भर गया ।'
'एलोपैथी क्यों ?इधर कॉलेज के पीछे इधर वाली गली में डॉ. रमेश बैठते हैं ।होमियोपैथी के हैंं ।
भई ,हमें तो उनकी दवा खूब सूट करती है।'

बात तुक की लगी. अगला  विषय काव्य-शास्त्र ,एकदम ठोस और भारी ! गला बीच में अड़ जाए, तो पढ़नेवालों का ध्यान  इधर- उधर भागेगा,  कानाफूसी शुरू हो जाएगी  , मुझे और ज़ोर से बोलना पड़ेगा .
और सबसे बुरी बात पिछले सारे रिफ़रेन्सेज़ उनके दिमाग़ से गोल - आगे पाठ ,पीठे सपाट !
अभी-अभी पत्रकारिता  की क्लास ले कर आई , गले -गले तक चोक हो गई.
इन्टरवल के बाद एक पीरियड फ़्री था .
चलो, ले ही ली जाय दवा .
डॉक्टर के पास कई मरीज़ बैठे थे ,कुछ  तो  अपनी छात्रायें ही ,पास पड़ता है न !
एक महिला अपनी 4-5 साल की बच्ची को लाईं थीं -नाम मेघना ,पेट साफ़ न होने की शिकायत.
बोलीं,' थोड़ी-थोड़ी सी होती है और सख़्त भी .'
 चट् से डाक्टर  बोले ,'आपने नाम भी तो  ऐसा ही रखा है .' लक्ष्य  वही  प्यारी-सी बच्ची   मेघना नामवाली -
(समझ गये होंगे आप .जैसे गाय का गोबर ,घोड़े की लीद ,  बकरी की मेंगनी)!
महिला  बेचारी चुप !पर्चा लेकर चुपचाप उठ गईं .
लड़कियाँ लिहाज़ के मारे पीछे हो गईं ,मुझे आगे कर दिया .
डॉ. के पास बैठ कर फटाफट् हाल कह सुनाया ।उन्होंने ध्यान से हमारी ओर देखा बोले ,' आप क्या रट के आई हैं ?धीरे धीरे बताइये ,फिर से ..'
मैं तो सन्न!
उफ़ , क्या करूँ इस जल्दी बोलने की आदत का !
लाख कोशिश की  कभी कंट्रोल में नहीं आई  !
हमारी छात्रायें कुछ  मुँह घुमाये थीं मुस्करा रही होंगी ,आँख उठा कर देखने की हिम्मत नहीं पड़ी .

फिर से धीरे-धीरे हाल बताया और दवा ले कर भागी .
पर वहाँ से भागने से क्या होता ,क्लास में तो वही लोग हाज़िर होंगे  अपने संगी-साथियों सहित !
बचाव कहीं नहीं - जम कर करना पड़ेगा सामना !
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