गुरुवार, 24 जनवरी 2013

हिमगिरि के ननिहाल में (उत्तरार्ध).



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लीजिये,आ गया ब्रह्मअरण्य क्षेत्र ! पाँच नदियों का संगम -कृष्णा ,कोयना ,वेण्णा ,सावित्री और गायत्री.

कृष्णा नदी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है समूचे महाराष्ट्र को यह अपनी बाहों में समेटे है .इसके जलदान से कर्नाटक और आँध्र भी तृप्त होते हैं .तीनो प्रांतों का पोषण करती हुई यह सहज भाव से कई जलधाराओं को अपने में धारण करती हुई बहती चली जाती है
काका कालेलकर ने इस धरा के परिवेश को मगन-मन वर्णित किया -
'सह्याद्रि के कांतार में, महाबलेश्वर के पास से निकलकर सातारा तक दौड़ने में कृष्णा को बहुत देर नहीं लगती, किंतु इतने में ही वेण्ण्या कृष्णा से मिलने आती है। इनके यहां के संगम के कारण ही माहुली को माहात्म्य प्राप्त हुआ है। दो बालिकाएं एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर मानी खेलने निकली हों, ऐसा यह दृश्य मेरे हृदय पर पिछले पैंतीस साल से अंकित रहा है।'
सचमुच ये दृष्य मनःपटल  अंकित हो कर बार-बार अपने लोक में खींच ले जाते हैं .

ब्रह्मपुराण में उल्लेख है कि विन्ध्य के दक्षिण में गंगा को गौतमी और उत्तर में भागीरथी कहा जाता है . गौतम ऋषि से संबंधित होने के कारण  वहाँ गोदावरी के लिये गौतमी संज्ञा का प्रयोग हुआ है.
 गोदावरी कहीं प्रकट हैं और कहीं गुप्त हैं . शंकर की जटाओं से सात धाराओं में अवतरित गंगा की महिमा गाते हुये उल्लेख है-
'सप्तगोदावरी स्नात्वा नियतो नियताशन: ।
महापुण्यमप्राप्नोति देवलोके च गच्छति ॥'
सात धाराएँ
-गौतमी, वशिष्ठा. कौशिकी, आत्रेयी, वृद्धगौतमी तुल्या ,और भारद्वाजी.

दक्षिण भारत के कई राज्यों में नवरात्र के अवसर पर गुड़ियों का दरबार लगाया जाता है। इन दिनों महिलाएं रंग-बिरंगे वस्त्रों से गुड़ियों को सजाती हैं। इस त्यौहार के शुरु होने के पीछे एक कहानी है-
महाभारत युद्ध पर जाने से पूर्व उत्तरा ने धनंजय  से 'विजित योद्धाओं के वस्त्र लाने को कहा था .जीत की खुशी में अर्जुन भूल गए।  याद आया तो उन्होंने  रथ लौटाया और जीवित जनों को सम्मोहनास्त्र से निद्रालीन कर उनके वस्त्र उतार लिये.विजय के हर्ष में राजकुमारी ने उन्हीं से अपनी गुड़ियाँ सजाईं .वही परंपरा इस रूप में विद्यमान है.
यात्रा चल रही है -
स्मृतियों की गाड़ी के पहिये भी लगातार घूम रहे हैं.
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अरे ,कितना सुन्दर, कैसा मनभावन दृष्य पीछे निकल गया.थोड़ा सावधान रही होती तो  आँखों में समा लेती .भागती हुई मनोरम झलक ही हाथ लगी .
जीवन की कितनी सुन्दर स्थितियाँ इसी तरह आईं और निकल गईं .उनका रस ग्रहण करना तो दूर ,अनुभूतियाँ भी मन में नहीं समो सकी .कितने अनुभव ऊपर से निकल गये ,अगवानी करने का अवकाश नहीं था.एक हड़बड़ी, एक अकुलाहट भरी व्यस्तता आगे खींचती रही .इन भागते दृष्यों जैसे वे पल भी मनःपटल पर खिंचे और बीत गये.
उम्र के रास्ते पर बहुत आगे निकल आने के बाद कभी-कभी पीछे छूटे हुए की  याद आती है ,और कई-कई दिनों तक आती ही चली जाती है. लंबा सफ़र जो  कब का  बीत चुका  स्मृतियों के आगार से निकल अनायास रास्ता घेर लेता है.
चैत की नवरात्रियाँ प्रारंभ हो गई हैं। अगरु -कपूर की सुगन्ध मंदिरों के आस-पास की हवाओं को गमका रही है . नारी कंठों से निस्सृत देवी-गीतों की लहरियाँ डोलने लगी हैं । नये लाल-लाल पत्तों की हथेलियों से वनस्पतियाँ ताल दे रही हैं ।पेड़ों के पुराने पत्ते  धराशायी हो रहे हैं ।ज़मीन पड़े ढेर-ढेर सूखे पत्तों में हवायें नाचती हैं - लगता है झाँझर झंकारती ठुमके दे-दे कर इठला रही हैं ।पायलें चाँदी की नहीं, ग्राम कन्यायें कीकर की कँगूरेदार सूखी फलियों को एकत्र कर ,दो-दो कँगूरों वाले टुकड़े कर लेती हैं उनके बीच में डोरी लपेट कर जो मालायें पाँवों में बाँधती हैं , चलने पर उनके भीतर के बीज ऊपर के आवरण से टकरा कर मर्मरित होने लगते हैं ।वनस्थली की हवा वही खड़खड़ाहट बजाती चली आ रही है .
वृक्ष, पुराने पर्ण त्याग नया पाने की पुलक लिए खड़े हैं .प्रकृति में एक विराट् हवन चल रहा है .हव्य-गंध दिग्-दिगंतको सुवासित करती धूमलेखाओं में विचर रही है .आद्या-शक्ति की अर्चना में सारी प्रकृति लीन है. रास्तों के किनारों पर जगह-जगह सूखे पत्तों के ढेर सुलग रहे हैं .वनस्पतियों की सोंधी गंध वातावरण में व्याप्त है .यह चैत की अपनी गंध है .धरती-माँ ,उस दिव्य ऊर्जा का अभिनन्दन कर रही है .धूप-धूम से  सुवासित पवन झोंके बेरोक-टोक विचर रहे हैं .
बीच-बीच में स्टेशनों की आवक और जन-कोलाहल-हलचल .भागा-दौड़ी .चढ़ा-उतरी .गठरी-मुठरी .सब जगह एक जैसा .
आदिकाल से  उच्चतर जीवन की  समान मान्यताएँ व्याप्त रहीं, इस कभी रहे महादेश में, जो भारतवर्ष कहलाता है. काल और स्थान के फेर से कुछ नई मान्यतायें आ जुड़ीं .उसी प्रकार दोनों सहयोगिनी भाषायें ,तमिल और संस्कृत एक दूसरी से आदान-प्रदान करती हुई भी स्थानीय और सामयिक प्रभावों को आत्मसात् करती रहीं .एक ही संस्कृति की अवधारणा इस महादेश की शिराओँ को विवध रूपों में पोषण दे रही है,जिसका निखार  इन  भाषाओँ -भूषाओँ, और जीवन-पद्धतियों में चारुता का संचार कर रहा है .
वही हिमाचल नंदिनी, उमा अपर्णा दक्षिण सागर- संगम  पर कन्या-कुमारी रूप में विराज रही हैं. दुर्दम दैत्य के पराभव का व्रत - शिव से उनके विवाह की सारी तैयारियाँ धरी की धरी रह गईं. सागर तट पर विवाह-सामग्री आज भी बिखरी पड़ी है ,दाल-चावल के दाने रेत में मिल कर उसी रंग-रूप में पथरा चुके हैं  .
इधर है तीन सागरों की तरंगों से वंदित अम्मन मंदिर जिस के पूर्वी द्वार हमेशा बंद रखे जाते हैं  इसलिये कि गिरिराज-नंदिनी के रत्नाभूषणों की द्युति को,लाइट हाउस समझ कर जलपोत किनारे करने के चक्कर में दुनिया से ही किनारा न कर जाएँ..
कन्याकुमारी -में  प्रसिद्ध तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर की भव्य प्रतिमा जिसे 5000 शिल्पकारों ने रूपायित किया .133 फुट की ऊँचाई कवि के काव्य-ग्रंथ 'तिरुवकुरल' के 133 अध्यायों की प्रतीक !
लौटती बार आदि -धरा कोआँख भर निहार प्रणाम निवेदन करते असीम नील-पारावार का लोना जल अंतर विगलित करता , नयनों में छलक उठा.
परस लिया  महीयसी- माँ का आँचल- छोर , नेहार्द्र पवन झोंकों से अभिषेक-जल छिड़क असीसती है वह, 'मैं महादेहिनी धरित्री तुम्हारी परम-जननी, उत्तर से दक्षिण तक मेरी ही यह अविकल परंपरा,  जहाँ रहो तुम्हारा कल्याण हो !'
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- प्रतिभा सक्सेना.

10 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी जानकारी देता उम्दा आलेख ,,,,
    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
    recent post: गुलामी का असर,,,

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  2. शायद आपने अपने दक्षिण भारत भ्रमण को इस खूबसूरती से ख्यालों के कैनवास पर उतारा है ! और शायद यह कसक हर उस जागरूक मुसाफिर (इंसान) के मन में रह जाती है कि जीवन की चलती गाडी से वह पीछे निकल गए ख़ूबसूरत नज़ारे को ठीक से अवलोकित नहीं कर पाया ! खैर, इसी का नाम जिन्दगी है।

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  3. जीवन में इतनी कलुषता समा गयी है कि प्रकृति का आनन्‍द लेना ही कठिन हो गया है। बहुत अच्‍छा वर्णन भी और ज्ञानप्रद भी।

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  4. गुप्त कहीं गोदावरी, कहें गौतमी-गंग |
    पञ्च नदी संगम विचित्र, ब्रह्मारण्या-अंग |
    ब्रह्मारण्या-अंग, यही तो जीवन रेखा |
    पूरा दक्षिण क्षेत्र, इन्हें श्रद्धा से देखा |
    दीदी का आलेख, अनोखी चीजें लाया |
    एक एक दृष्टांत, हमें विधिवत समझाया ||

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    1. दीदी का आलेख, अनोखी चीजें लाया |
      हिमगिरि का ननिहाल, हमें विधिवत समझाया ||

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  5. दक्षिण भारत का बहुत रमणीक चित्रण ! बधाई !

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  7. Kitne manmohak stuti-gaan se aalekh hain Pratibha jee.bhaarat kee bhoomi hai hi aisi..mann agaadh sneh se aur ''prithvi-putr'' hone ke gaurav se bhar utha.waaqayi!! aapka hriday jeewan path ke har ek mod par tham kar kitni aatmeeyta se prakriti/padarth/praaniyon ko aatmsaat karta hai..aur woh bhi atyant sookshmta ke saath.
    aapke mann kee aankhon kee jyoti kitni adbhut hai na..aur utna hi apratim hai aapki lekhni ka saundary..ek ek drishy apne samuchit prabhaav ke saath aankhon ke aage sajeev hota jaata hai...jaise abhi abhi dakshin kee yaatra se lauti houn..main aur kya kahoon.shabd hi nai soojh rahe...:(

    naman hai aapki lekhni ko..:''-)

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