गुरुवार, 21 मार्च 2013

ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है!


*
उस दिन रागिनी जी से भेंट हुई बेटी के पास आई हुई थीं.पति का देहान्त हुए दस साल हो गये थे ..बच्चे अपनी नौकरियों पर पुत्री का विवाह सबसे निवृत्त ,अब तो कुछ करने को बचा भी नहीं 
 उनकी परेशानी है- बहुत ऊब लगती है .जहाँ जाओ नए सिरे से फिर अपने को ढालो ,
अकेले रह नहीं सकते हारी-बीमारी में किसे पुकारें .
 न यों चैन न वों चैन !
एक और सीनियर बैठे थे बोले,क्या करें ,सब अपने काम में व्यस्त .हम अकेले क्या करें.सब का अपना ढंग हैं .कभी-कभार लोगों से मिल जुल लें, बस इतना ही .और करने को है ही क्या?".
'तो फिर आप भी व्यस्त हो जाइये .'
'अब हम, काहे में ?'.
'अपना कोई शौक.' 
'खतम कर दिये सारे शौक अपने .घर-परिवार के पीछे .'
'नहीं,नहीं फिर से शुरू कर कर दीजिये .'
'अब क्या करना है? छोड़ दिया सो छोड़ दिया .अब तो दिन काटने हैं !"
ये कैसी ज़िद कि अब आगे कुछ नहीं करना!
ऐसे झींक-झींक कर ज़िन्दगी कटती है कहीं !
दो-तीन लोग और शामिल हो गये थे. 
चर्चा चल रही थी. अपनी खुशी ख़ुद ढूँढनी पड़ेगी उसके  लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं  ,जीवन इतना कांप्लेक्स हो गया है इतना चुनौती भरा ,ये बच्चे तो इसमें फँस गए हैं .हमारे जैसा निश्चिन्त और सुविधावाला समय इन्हें कभी कहाँ मिला .क्या करें ये लोग भी ?
'हाँ, हम तो खुद नहीं चाहते ,कि हमारे लिए अपना काम हर्ज करें .'
'तब तो और भी अच्छा क्यों किसी का आसरा ढूँढें !सच में इच्छा हो तो सब हो जाता है .'
 मैंने अक्सर देखा है रिटायर हो कर लोगों की मानसिकता बन जाती है कि  हमें कोई नहीं .समझता,हम अकेले पड़ गए .जब कि बच्चे भरसक साथ हैं सहायता को तत्पर हैं .अक्सर  खुद ही को-ऑपरेट नहीं करते, उनकी मजबूरी नहीं देखते .
कहते हैं आखिर हम क्यों ज़िन्दा हैं? 
 ज़िन्दा तो रहना ही पड़ेगा जब तक ज़िन्दगी है .दिन रात मौत-मौत पुकारते ,मनहूसियत फैलाते ,दूसरे को परेशान करते रहिए ,या मन ही मन बिसूरते रहिये. ऊपर से जीवन की अवधि कितनी बढ़ गई है, अस्सी से ऊपर तो आम बात है . बीमार पड़ो कुछ हो भी जाए तो बच्चे लग जाएंगे जी-जान से. ,मरने थोड़े ही देंगे .बचा कर ही दम लेंगे .दवाएँ और बाकी तंत्र इतना विकसित हो गया है कि हर उपचार मौजूद.
समय का पहिया घूमता रहेगा अगर कोई एक जगह खड़ा रहे ,तो कैसा लगेगा .धीरे-धीरे सब बदल रहा है .आपके समय भी नई चीज़ें आईँ थीं ,अब विकास की गति ज़रा तेज़ है,साधन भी उतने ही बढ़े हैं .
रहना ही है तो ढंग से जिया जाय .कुछ ऐसे कि मन को खुशी और संतोष मिले.
इस के लिए ज़रूरी है अपने मन का कुछ करना.
एक जन बता रहे थे,' हमारी पड़ोसन ने पैंसठ साल की उम्र में  म्यूज़िक की क्लास ज्वाइन की है .उनकी बहिन भी गाने का प्रेक्टिस करती है.'
'हिम्मत होनी चाहिए और फिर तो अपनी हॉबी शेअर करनवाले मिल जाते हैं .कंप्यूटर पर और आसानी से..'
'समान सोचवालों का ग्रुप बना लो.'
'हमेशा मिलने-बतियाने की सुविधा कहाँ?'
 उसी के लिए कंप्यूटर है .जब चाहो अपनी बात कह दो, उनकी सुन लो- सोच कर 
अचानक बोल उठी, 
'और कुछ नहीं तो आप कंप्यूटर सीख लीजिए. दुनिया भर की नई बातें ,नई खबरें ,रेसिपीज़, कुछ पढ़ने-लिखने में रुचि हो तो भी भंडार भरा है हर तरह का.  ,गाने भी  और हाँ, यू-ट्यूब पर  मनचाहे प्रोग्राम भी . अब तो तमाम ऊपरी काम भी उससे हो जाते हैं .हमारे यहाँ तो रेलवे, प्लेन आदि का रिज़र्वेशन भी उसी से होता हैं .घर बैठे .'
'हाँ, वो तो है ,पर अब हम क्या सीखें सीख चुके जो सीखना था.'
'पर इम्टी माइंड डेविल्स वर्कशाप! फ़ालतू बाते दिमाग़ में आयें ही क्यों?' अरे ,यह क्या कह गई, मैं! 
उन्हें कुछ बुरा लगा शायद ,बात को घुमाने लगी,' यह नहीं करना चाहें कोई तो कुछ ऐसा शौक पाल लें कि मन लगा रहे . वैसे दिमाग़ की तो आदत है ..'
रागिनी जी सचेत हुईं ,'
 'हाँ, दिमाग की क्या आदत है जी? 
'सारे खुराफ़ात, की जड़ है !इस उमर में तो बड़ी जल्दी जंक लगने लगती है ..साथ हाथ पाँव उसी के चेते चलते हैं फिर तो मन भी वैसा ही ढलने लगता है.'
वे कुछ सोच रहीं थीं ,वे महोदय चुप सुन रहे थे,मुँह बनाए जैसे कड़वी दवा पी ली हो . 
'ऐसे में  कितनी डल हो जाती है लाइफ, न ?'
कुछ सिर हिले.
 मन में उठ रहा था  सीखने में काहे की शरम ?कोशिश पहले.फ़ायदे बाद में पता लगेंगे .किसी पर निर्भर नहीं.पैसा खर्चना नहीं .
यहाँ तो पोता भी कंप्यूटर से चिपका रहना चाहता है,हम लोग मना करते रहते हैं . 
'कंप्यूटर के लिए औरों का मुँह देखना पड़ेगा.' 
'नहीं, नहीं , और खुश होंगे, .कहेंगे  हमारे पापा गुज़रे ज़माने के नहीं आज को टक्कर देनेवाले हैं .'
'और सीखने में कुछ नहीं माउस पकड़ना शुरू करिये, वह सब सिखा देगा .बच्चे बड़ी खुशी से गाइड करेंगे .शुरू में दो-चार दिन ताल-मेल बैठाना पड़ेगा.इतनी तो कूवत है ,दिमाग भी अभी तो,भगवान की दया से अच्छा- खासा है. बस ऐसे ही सचेत बना रहे !'
समर्थन के भाव उजागर होगए भंगिमा से .
 '...और ई-मेल करना आ जाये तो देखो क्या आनन्द आता है ,संदेशों के लेन-देन में .अब चिट्ठी-पत्री तो कोई करता नहीं ,फ़ोन पर वो बात नहीं आती जो अपने आप किसी का लिखा पढ़ने में आती है .'
वे चुप ही रहे,शायद कुछ चल रहा था अन्दर ही अन्दर .
*
रिटायरमेंट के बाद कुछ लक्षण अपने आप उभरने लगते हैं-
  एक रिक्तता-सी  मन पर , फ़ालतू हो गये का बोध मन को तिक्त करता हुआ.,, ,शिकायतें किसी-न किसी से.बार-बार दोहराना कि हमारे समय में ऐसा नहीं था,बदली हुई स्थितियों को  स्वीकारने से बचना.(ठीक तो है आपके पिताजी के समय जो जो होता था वह आपके समय में भी तो बदल गया ) , नई चीज़ों से बिदकना,अपने को बदलने को बिलकुल तैयार नहीं. ऐसे ही रहेंगे ,एकदम रिजिड,अपने को लाचार,असमर्थ अनुभव करते.कुछ जानने-सीखने की चाह ही खत्म. तटस्थ-सी.नकारात्मकता- बे-मन से जिये जा रहे हों जैसे .
प्राचीन काल में वानप्रस्थ का विधान इसीलिये किया गया होगा ,कि हमारा ज़माना गया ,तुम्हें संस्कार और शिक्षा दे दी , व्यक्तित्व विकस गया, समय आ गया अगली पीढ़ी को मान्यता देने का .जो सिखाया है उसे चरितार्थ होते देखने का ..अब भोक्ता की जगह दृष्टा बनने के दिन हैं.उस स्तर से कुछ ऊँचा जो उठ गये  .सारे अनुभव साथ हैं,कितने उदाहरण सामने से गुज़र चुके कितनी उठा-पटक के साक्षी रहे,इतना कुछ  कि मन की झोली भरी है .
अपने से आगे जाने के लिए  शिक्षा और संस्कार देकर समर्थ बनाया है, अब उस संतान को निश्चिंत मन से, भविष्य सौंप दें . महत्व छोटों को मिले कि वे बड़े हो गये . और अपने लिए कुछ ऊर्ध्व स्तरों की खोज करें जहाँ ,संतोष और शान्ति हो . सब प्रसन्न रहें .
-कोशिश करने में क्या हर्ज है !
*
20-25 दिन बाद फिर मिले थे.मेरे पास आये बोले ,' मैंने सीख लिया कंप्यूटर ...' 
बड़े उत्साह में थे बोले .'कई लोगों से  कांटेक्ट हो गया है ,अब खाली नहीं रहता .'
 .'..अरे वाह !'
 सुना है रागिनी जी भी  व्यस्त हैं -मिलूँगी जा कर उनसे . .
वे खुश थे .मुझे अच्छा  लगा .
'फिर तो आप दूसरों के लिए माडल हो गए .अब जुड़िये अपने जैसों से ,
सीनियर्स क्लब बना कर हीरो बन जाइये आप .'
उत्साहित थे वे.
ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है! 
*

बुधवार, 20 मार्च 2013

एक थी गौरैया .


*
 एक छोटी-सी गौरैया थी.उसे एक द्यूल मिला - (पता है द्यूल क्या होता है? चने की दाल का एक दाना.)
वह बड़ी खुश हुई .और उसे खाने के लिये चक्की के खूँटे पर जा कर बैठ गई .खूँटा फटा हुआ था .उसकी चोंच से द्यूल एकदम गिरा और खूँटे की दरार में जाकर फँस गया.
चिड़िया खूँटे से कहने लगी ,'मेरा द्यूल दे दो .'
खूँटा बोला 'अरे वाह, मैं क्यों दूँ ,तुम मुझ पर चढ़ कर बैठीं .तुमने गिराया .मैं काहे को दूँ ?'
चिड़िया बढ़ई के पास गई ,'बढ़ई, बढ़ई खूँटा चीर. खूँटा द्यूला दे नाहीं, मैं चब्बऊँ क्या?(चिड़िया हैं न ,ऐसे ही बोलती है ,चबाऊँ को चब्बऊं कहती है )
बढ़ई हँसने लगा ,'अरे जा ,जरा से द्यूल के पीछे मैं खूँटा चीरूँ .भाग जा यहाँ से .'
उसे बुरा लगा वह राजा के पास गई,'राजा,राजा ,बढ़ई दंड,बढ़ई खूँटा फाड़े नाहीं, खूँटा द्यूला दे नाहीं ,मैं चब्बऊँ क्या?'
राजा ने कहा ,' राज के इतने काम करने हैं और मैं बेकार में बढ़ई को दंड देने लगूँ ,
यहाँ शोर मत मचाओ ,कहीं और जाओ .'
परेशान हो कर चिड़िया रानी के पास गई ,'रानी,रानी, राजा रूठ .राज बढ़ैया डाढ़ै नाहीं  ,बढ़ई खूँटा फाड़े नाहीं,' खूँटा द्यूला दे नाहीं मैं चब्बऊँ क्या?'
'वाह री चिड़िया ,मैं क्यों  राजा से रूठूँ ,मुझे कोई और काम नहीं क्या ? '
क्या करे, बेचारी छोटी- सी गौरैया!
तब उसे चूहे की याद आई .उसके पास जाकर बोली ,'चूहे,चूहे ,रानी के कपड़े काट .रानी राजा रूठे नाहीं राज बढ़ैया डाढ़ै नाहीं  ,बढ़ई खूँटा फाड़े नाहीं,' खूँटा द्यूला दे नाहीं, मैं चब्बऊँ क्या?'
चूहे को बड़ा मज़ा आया बोला,' जरा सी गौरैया ,नन्हा सा द्यूल .बेकार सबसे कहती फिर रही है .कुछ और ढूँढ कर खा ले .'
परेशान हो गई , सोचने लगी क्या करूँ अब ?
एक हाथी उसे अपनी पीठ पर बैठने देता था .चलो उसी के पास चलें उसने सोचा .
गई . हाथी ने पूछा क्यों रोनी शकल बनाए है तू ?'
उसने वही बात बता दी, 'हाथी,हाथी ,चूहे को दबा ,चूहा कपड़े काटे नाहीं, रानी राजा रूठे नाहीं, राज बढ़ैया डाढ़ै नाहीं ,बढ़ई खूँटा फाड़े नाहीं,' खूँटा द्यूला दे नाहीं मैं चब्बऊँ क्या?'
'अरे, इतना हबड़ा मैं,बेकार में चूहे को दबा दूँ . जरा सी बात के लिये  परेशान कर दिया . किसी और से कह जा के .'
इतने में उसे तेज़ी से जाती हुई चींटी दिखी. बस, उड़ कर पहुँच गई उसके पास .
'ओ चींटी ,मेरा एक काम कर दे.' 
चींटी रुकी,' क्या?'
' ज़रा देर को हाथी की सूँड़ में घुस जा .'
'क्यों ?हाथी ने क्या बिगाड़ है तेरा?'
' वह मेरा काम नहीं कर रहा है. हाथी चूहा दाबै नाहीं ,चूहा कपड़े काटे नाहीं, रानी राजा रूठे नाहीं, राज बढ़ैया डाढ़ै नाहीं ,बढ़ई खूँटा फाड़े नाहीं, खूँटा द्यूला दे नाहीं मैं चब्बऊँ क्या?'
'नहीं ,सूँड़ के अंदर बिलकुल अच्छा नहीं लगता.गीला-गीला है वहाँ ,हवा भी नही आती.'
बड़ा गुस्सा आ रहा थी चिड़िया को, भूखी तो थी ही, 'अच्छा ,मत घुस. अभी तुझे ही खा जाती हूँ .'
वह चोंच खोल के बढ़ी.
चींटी डर गई .भाग के कहाँ जाती .चिल्ला पड़ी ,'नहीं, मुझे मत खाओ , अभी जा रही हूँ .हाथी की सूँड़ में घुसती हूँ .'
गईं दोनो हाथी के पास .
दोनों को साथ देख हाथी घबराया .उसे पता था एक बार एक हाथी की सूँड़ में चींटी घुस गई थी .उसके रेंगने से वह इतना दुखी हुआ कि सूँड़ पटक-पटक कर बेहोश हो गया था.
वह तैयार हो गया ,'अरे चींटी बहिना , मैं तो गौरैया से हँसी कर रहा था .चलो अभी चलता हूँ .कहाँ है चूहा?'
चूहे ने हाथी पर बैठी गौरैया को आते देखा. बुरी तरह डर गया 'अरे हाथी दादा, तुम आराम करो ,मैं जा रहा हूँ रानी के कपड़े काटने .'
रानी ने चूहे के साथ उसे को आते देखा .समझ गई बोली ,'नहीं चूहे मुन्ना ,इतने मँहगे कपड़े काटना मत! मैं अभी राजा से रूठती हूँ .'
इतनी देर में राजा खाना खाने अंदर आया था ,उसने देखा रानी रूठने की तैयारी कर रही है .
चिड़िया खिड़की पर बैठी थी .उसे याद आ गया .झट से रानी से बोला ,'तुम कितनी अच्छी हो ,तुम्हारी बात ज़रूर सुनूँगा .कहाँ है बढ़ई? बेचारी छोटी-सी गौरैया का काम नहीं कर रहा है ,अभी दंड देता हूँ .'
 वह दौड़ कर पहुँची बढ़ई को बुलाने .
'चलो राजा ने बुलाया है .'
'क्यों?'
 'चलो तो ,अभी पता लग जाएगा !.'
वह खूब खुश थी .बढ़ई समझ गया.
जाकर राजा से बोला ,' राजा जी, मैंने तो इस छुटकन्नी से हँसी में कहा था.ये ग़लत समझ गई .चलो गौरैया रानी ,अभी खूँटा चीर देता हूँ.
उसने उठाई कुल्हाड़ी और चल दिया गौरैया के साथ. पहुँचे खूँटे के पास . 
बुरी तरह घबरा गया खूँटा .एक दम द्यूल निकाल के सामने रख दिया .
'मैं क्या करूँगा द्यूल का मैं तो कुछ खाता नहीं .ले जा ,चिड़िया बच्ची .' 'बढ़ई बाबा,आप भी आराम कीजिये .'
गौरैया ने अपना द्यूल चोंच में रखा और फुर्र से उड़ गई. 
*(बचपन की याद)

बुधवार, 13 मार्च 2013

यादों के चिराग़ -

*
आजकल बड़ी पुरानी बातें ,लगातार याद आए जा रही हैं. मित्रों ने भी चढ़ा दिया ,'और बताओ,' कह कर .
तब की पत्रकारिता की क्या कहूँ -अब की तो लुटिया ही डुबोये दे रही है.
 बच्चों की एक पत्रिका थी 'शिशु', मुख-पृष्ठ पर लिखा होता था-
'छिछु की गाली आती है ,पूछी खींचे लाती है ,
पहले मुझको देती जा ,दूध-बताछा लेती जा !'
उस पर  बना होता था पूसी द्वारा खींची जाती 'शिशु' पत्रिकावाली गाड़ी का मन-भावन चित्र.
अब के बच्चे उन सुरुचिपूर्ण चीजों से वंचित रह गए हैं .
 उससे भी पुरानी याद -एक लोरी ,जिसे पलँग जैसे  झूले पर मेरी माँ गाकर हम दोनों (मैं और  दो साल छोटा भाई) को सुनाती थीं .मन लगा कर सुनते - सुनते हम सो जाते थे. मेरे बच्चे भी यह लोरी बड़े चाव से सुनते रहे. पर उनकी  पूछिये मत, एक सुना कर छुट्टी नहीं, जितनी याद हैं सब सुनाती जाऊँ.,हर बार पूरी होते ही अगली के लिए आँखें खोल दें - और सुनाओ .
और बच्चों के बच्चे तो काफ़ी बड़े हो कर भी कहते 'तकिया झालरदार वाली' ..  .
उस लोरी के स्वर  'शिप्रा की लहरें'(ब्लाग) सँजोये हैं
-'
 1947 से पहले ग्वालियर राज-घराने में पुत्र का जन्म हुआ था,पूरी रियासत में उत्सव मनाए गए .बधाइयाँ दी गईं .मेरी माँ ने भी लिखी थी एक कविता जो मैंने मंच पर सुना कर इनाम पाया था .कुछ पंक्तियाँ याद हैं -
'यों कि हमारी रानी ने युवराज-रत्न को जया है ,
इसीलिए द्वारे-द्वारे पर मंगल साज सजाया है .'
और भी काफ़ी था.पर उसे याद करने का मन नहीं होता ,
जब से सुभद्रा कु.चौहान की कविता में पढ़ा, 'अंगरेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी.' उस राजवंश के प्रति मन की भावना को आघात पहुँचा. तब भी विदेशी  का हित-साधन करते रहे थे अब सोनिया की कांग्रेसवाली कुर्सी का पाया बनने की होड़. जिसके पास सत्ता उसकी 'हाँ,जू' करने की आदत जाय कहाँ!
ओह, क़लम का निब तीखा हो उठता है , कागज़ न फटने लगें कहीं.

'विदेशियों से संघर्ष करते युग बीते, अब स्वतंत्रता मिल रही है' -लोगों में नया उत्साह जाग उठा था.बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँधी थीं ,अब ये होगा,वो होगा ,एक नई व्यवस्था का शुभारंभ होगा ,नए युग का आगमन !
पहला धक्का तो साथ ही लगा- विभाजन का दंश! वे स्मृतियाँ आज भी टीसती हैं.समय और सिखा गया कि जितनी बड़ी आशा बाँधो उतना ही भारी धक्का लगता है.एक झटके में जो काम लौह पुरुष, सरदार पटेल ने कर डाला ,चिकने-चुपड़े लोगअपनी रसिक मिजाज उदारता की झोंक में बंदर -बिल्ली की कथा रच गए.अपना हित प्रधान न होता तो राष्ट्र-भावना इतनी गौण न होती.
 राष्ट्र पिता की परिकल्पना भी, पहले समय की कसौटी पर कस जाने दें,  यह  उचित नहीं समझा गया.दूसरों को समिधा बना कर अपनी सिद्धि और क स्वयं त़ृप्त तथा परिपक्व हो कर ,प्राकृत वासनाओं के ऊपर होने  की महानता दर्शाने के लिए निरीह, अनुभवहीनों को माध्यम बना लेना. ऐसे  चमत्कार दिखाने से किसी का भला होता है?इन प्रयोगों में   क्या संदेश निहित है . स्वाभाविक रूप से मानव बने रहना क्या छोटी उपलब्धि है !फिर भी राष्ट्र-धर्म के प्रति निष्ठा से भर तुल गए होते तो वे जाँ-बाज़, स्वाधीन देश में शान से जीते, अपनी बात मनवाने का अचूक अस्त्र जिनके पास था वे विदेशियों को  इस अन्याय और अहिंसा से क्यों नहीं विरत कर सके.नेताजी, आज़ाद और अन्य क्रान्तिकारियों के लिये क्यों नहीं खड़े हुए ? देश पर बलिदान होनेवालों को देश के लिये जीने का अवसर मिलता, पर अपनों ने ही जो द्रोह  किये गए उनकी पोल अब खुलती जा रही है.
जिन्ना ,मुस्लिम-लीग ,गांधी ,पटेल .दंगे-फसाद क्या नहीं हुआ .
पिता जी के  मित्र ,जो लाल दाढ़ी रखते थे,जिनके घर मुन्नी आपा के पास मैं कारचोबी का (सलमे-सितारे) का काम सीखने जाती थी, वे उस कस्बे से तभी पाकिस्तान चले गए. वहाँ उन्हें अपना उज्ज्वल भविष्य दिखाई दिया होगा. उनका छोटा भाई मसूद हमारे साथ पढ़ता था .अपने को मसउद लिखता था और जैसे टेबललैम्प के सिलेन्ड्रिकल शेपवाली कत्थई टोपी लगाता था .पीछे की ओर कुछ टेढ़ी-सी ,उसमें लंबा सा फुँदना होता था जो उसके एक्शनों को साथ हिलता-झूमता रहता ,देख कर बड़ा मज़ा आता था.मुन्नी आपा को हमेशा चिढ़ाता रहता था.  कैसा जोकर था-कहता था 'लाला लाहिल्ल्ललिल्ला-मसूर की दाल में कुत्ते का पिल्ला'.और भी तमाम बातें, कोई मुल्ला-मौलवी सुन ले तो बाजा बजवा दे.

रोज़ अखबारों उन घटनाओं के विवरण छपते थे ,पाकिस्तान बनने की कहानी, हमारी आँखों देखी .एक मौसी लाहौर में थीं .उन्हें क्या-क्या झेलना पड़ा पर वे सपरिवार आ गईँ .और जाने कितने परिवार, कोई आधे-अधूरे ,लुटे-पिटे - सारी क़ीमत उन्हीं ने चुकाई थी.
कैसे थे वे दिन! अख़बारों के शब्द पढ़ने में जैसे ज़बान काँपती,कान दहकते थे. वह समय बड़ा अजीब रहा ,सुबह-शाम खबरें जैसे काटने को दौड़तीं पर बिना जाने भी किसी को चैन नहीं.
चढ़ा हुआ उत्साह उतर गया ,और स्वतंत्र-भारत से बाँधे हुए लोगों के मंसूबे ध्वस्त होते चले गए.
स्मृतियाँ भी अजीब हैं , कभी सिलसिलेवार नहीं. जब आती हैं अंधाधुंध -एक दूसरी को ठेलती, कहाँ-कहाँ से निकल आती हैं - क्रमहीन ..
 जब स्वतंत्रता प्राप्ति के जलसे चल रहे थे तो मंच पर मैं भी कुछ  बोली थी, इनाम में पुस्तकें मिली थीं ,देने वाले थे ,प्रदेश के शिक्षा मंत्री सन्नू लाल, शुद्ध भाषा भी नहीं बोल पाता जो उसे तो यह भी नहीं भान होगा कि इनमें क्या लिखा है -किसी ने खरीद कर पैकेट बना दिये होंगे ,वह खड़े हो कर पकड़ाता रहा !
हम लोगों की बचपन की बड़ी बुरी आदत थी .जब कोई अशुद्ध भाषा बोलता तो हम भाई-बहिन आँखों ही आँखों में एक दूसरे को देख कर मुस्कराते थे. तब समझते थे बड़े लोग सही ही बोलते हैं. हम आपस में  एक दूसरे के अशुद्ध शब्दों पर खूब खिंचाई करते. शुद्ध बोलने के चक्कर में मेरे विचित्र शब्दों का खूब तमाशा बना है .
हाँ, तो सन्नू लाल को देख-सुन कर बड़ी निराशा हुई थी .पता लगा पढ़े-लिखे नहीं हैं ,दलित जाति को ऊँचा उठाने के लिय इन्हें मंत्री बनाया गया है. सुधार और सुव्यवस्था के लिए कोई योग्य और समर्थ व्यक्ति नहीं जुड़ा? मखौल बना कर रख दिया शिक्षा-नीति और दलित दोनों का .अब तो  नेताओं का दिमाग़ी दिवालियापन देखने की आदत पड़ गई है.
तब लड़कियों के स्कूल बहुत कम होते थे, प्राइमरी से आगे तो केवल शहरो में ही.
 ,मैंने लड़कियों के स्कूल में, अपने जीवन में सिर्फ़ एक वर्ष पढ़ा .शेष सारा सड़कों के साथ .
शुरुआत में ही घर में पढ़ा कर सीधे छठी कक्षा में भर्ती करा दिया गया, लड़कों का स्कूल ज़िन्दाबाद! चारों ओर के गाँवों के पढ़नेवाले लड़के वहीं समाए थे .
आठवीं की परीक्षा बोर्ड की होती थी उज्जैन में सेंटर .वहीं जाकर दी .फ़र्स्ट आई थी .
हमारे घर के पास वाले घर में भोंपूवाला ग्रामाफ़ोन था ,रोज़ शाम को वही-वही गाने लगा देते थे वे लोग.उनमें से दो थे -'हमें तो शामे  ग़म में.... और ज़िंदगी चंदरोज़ है !'
इधरवाले पंडित जी की विधवा लड़की कमला ,बड़े शौक से सुनने बैठ जाती .कहती कैसी भगती के गाने हैं  'श्याम' (शामेग़म)का नाम आ गया भक्ति तो उमड़ेगी ही.और ज़िन्दगी 'चंदगोद' भी उसे पसंद था.
बहुत-कुछ याद आता है .पर सब कहना न संभव है, न उससे कोई लाभ !
यह तो अभी कुछ बरस पहले की बात है.विष्णु(मेरा भाई ) के एक मित्र लंच पर आए ,खानें में सहिजन की फलियाँ भी बनी थीं -मसालेवाली.
स्वाद लेते रहे फिर पूछ बैठे,'ये क्या भिंडी की तरकारी है?'
 विष्णु ने, मैंने कौतुक से एक दूसरे को देखा एक ही भाव-  ये क्या भिंडी भी नहीं जानते?
मैं तो किसी बहाने उठ कर रसोई में चली गई .हँसी न रुके तो और क्या करूँ !
 विष्णु की आदत थी ,कोई मेरे लिए चिट्ठी डालने को दे (पहले पोस्टकार्ड खूब चलते थे)तो उसके गलत शब्दों को अंडर-लाइन करना फिर डाक में छोड़ना.और कुछ लोग हमेशा शाम को 'श्याम' और 'हम जाऊँगी' लिखते थे .उन लाल स्याही से टीपे शब्दों पर बड़ी हँसी आती थी .मैंने कहा भी कम से कम ये चिट्ठियां तो मत रंगा करो .पर आदत कहीं छूटती है!
 पत्रों का ज़माना बीत गया, अब तो हैं बस फ़ोन और ई-मेल !
हाँ, जो कहने की इच्छा बहुत दिनों से हो रही थी वह बात तो रह ही गई -
एक बड़ा पुरानी कविता ,यह भी पता नहीं किसकी  - ख़ैबर का दर्रा! कुछ -कुछ ध्यान में हैं .पर यही पंक्तियाँ स्मृति  में कौंधती हैं -
'कड़कती बिजलियों की इस जगह छाती दहलती है,... घटा बच के निकलती है,... हवा थर्रा के चलती है.'
रचयिता और पूरी रचना यदि कोई बता सके तो बहुत आभार होगा !
कृपया अपने घर के, या जो भी उपलब्ध हों उन  वरिष्ठ-जनों से भी पता करें.यह मेरा विशेष अनुरोध !इतनी प्रभावशाली कविता विस्मृतियों में खो न जाए !
अब कोई मत कहना- और बताओ ,
अपनी गाथा गाती चली गई, बहुत हो गया!
***