शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

सागर-संगम - 4.


लोकमन  - काल की धारा बहती रही .जीवन का क्रम आगे  बढ़ता रहा.
सूत्र - आर्यों ने जो वर्ण व्यवस्था समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिये बनाई थी उसमें पारस्परिक भेद-भाव ,और ऊँच-नीच की भावना नहीं थी,पर बाद में उसका रूप विकृत होता गया -यह मैंने पढ़ा है पर .....
नटी -कवि ने यह अध्याय भी रचा होगा ,है न कवि ?
सूत्र -क्यों, मित्र लोकमन ?
लोकमन - (मुस्कराता है ) धारा बहती जाये ...
धीरे-धीरे जटिल हो चली उनकी वर्ण-व्यवस्था ,
चल निकलीं जातियाँ और फिर बढ़ने लगी विविधता .
ब्राह्मण-जन विद्वान तपी थे ,इसीलिये सम्मानित ,
शस्त्र धार कर रक्षण करते क्षत्रिय शासनकर्ता.
बढ़ा राजमद क्षत्रिय में तो ब्राह्मण भी अकुलाये. धारा बहती जाए ..

ऋषिपुत्रों का हत्याप्रकरण आज याद कर लो तुम ,
परशुराम का महाभयंकर नाद याद कर लो तुम .
माँ इक्कीस बार जब छाती पीट-पीट रोई थी -
क्षत्रिय कुल का तब नृशंस संहार याद कर लो तुम .
किन्तु राम ने सोच समझ कर अपनी नीति बनाई
विप्र पूज्य हैं उनका मान न घटने पाये भाई .

दृष्य - [राम और लक्ष्मण ]
लक्षमण -हाथों में शस्त्र लिये मुनियों का वेश धरे ,
 वे कौन आ रहे हैं भ्राता अति दंभ भरे ?
राम -वे परशुराम हैं लक्ष्मण ,महा प्रतापी मुनि .
 अति क्रोधी हैं ,विनयी हो इन्हें प्रणाम करो .

[परशुराम का रक्तरंजित परशु लिये प्रवेश ,दोनों प्रणाम करते हैं ,वे स्वस्ति का हाथ दिखाते हैं पर मुखमुद्रा कठोर रहती है ]
इक्कीस बार क्षत्रियकुल को संहारा है ,,
स्वर्गस्थ पिता ,देखो प्रतिशोध लिया मैंने
इनके शोणित से तर्पण किया तुम्हारा है .
[शिव का टूटा हुआ धनु देख कर ..]
मेरे आराध्य शंभु का धनु किसने तोड़ा ?
राम -[विनय पूर्वक ]वह एक चुनौती थी, मैंने स्वीकारी थी ,
मुनि, धनुष-यज्ञ की शर्त यही, लाचारी थी .
परशु -रे मूर्ख ,शौर्य की गाथा मेरी भूल गया ?तेरा साहस मेरे गुरु का अपमान करे !
इक्कीस बार चुनचुन संहार किया जिनका ,
वे कायर क्षत्रिय फिर इतना अभिमान करें ?
लक्ष्मण   -हाँ ,हमें याद है .वही शूरता की गाथा 
अपनी जननी का शीष स्वयं जिनने काटा ?
परशु -पापी लक्ष्मण ,यह परशु अभी भी प्यासा है ,
दशरथ के कुल का अभी नाश हो जाता है .
छिप गया तुम्हारा गुरु वह विश्वामित्र कहाँ ,
पाखण्डी क्षत्रिय हो, ब्राह्मण कहलाता है .
लक्ष्मण - अपने को तो देखिये ज़रा ,[राम आँखें दिखाते हैं ],ब्राह्मण होकर भी क्षत्रिय  का बाना धारे .
 अपना बखान हर जगह करें ,हर जगह युद्ध को ललकारें .
परशु -ओ, राम रोक ले भाई को ,
 या इसे काल का ग्रास अभी बनना होगा .
राम -[लक्ष्मण से] तुम शान्त रहो ,
निन्दा करने से पूर्व स्वयं देखें भृगुवर ,
विद्या में ,तप में ,धैर्य ,क्षमा ,निस्पृहता में ,
कल्याण विश्व का करने को  हर पल तत्पर ,
गुण से ही मानव को पहचाना जाता है .
हो शान्त-चित्त आप ही विचार करें मुनिवर .
परशु -हे राम बंधु पर तेरा  आग उगलता है ,
उसका उद्धतपन  देख हृदय यह जलता है .
राम -उसको प्रणाम का मिला नहीं समुचित उत्तर ,
आते ही आते हम पर बरस पड़े मुनिवर ,
शस्त्रों से सज्जित देख और भ्रम हुआ उसे ,
बालक है ,अनुभवहीन, क्षमा कीजे भृगुवर .
 भूसुर हैं आप और हम भू के मनुज मात्र ,
इसलिये हमें कर लीजे अपना कृपापात्र .
परशु -हूँ .शिष्टता तुम्हारी ,मुझे प्रभावित करती है .
राम - ब्रह्मण -क्षत्रिय संघर्ष न हो ,सुविचार करें ,
 हम दोनों ही मिट जायेंगे .इसलिये ,पूज्यवर ,नीति सहित व्यवहार करें .
[परशुराम सोचते रहते हैं ]
नत-मस्तक हैं मुनिवर आशीष दीजिये अब ,हम आज्ञाकारी होंगे अति कृतज्ञ होंगे .
परशु -[कुछ क्षण रुक कर ]तू बहुत कुशल है राम ,विवेकी नीतिवान ,
मर्यादाओं का पालक हो आयुष्यमान !
हो राग-द्वेष से वीतराग मैं वन जाऊँ
धरती का भार उतार हाथ ले धनुष-बाण .
[परशु फेंक कर जाते हैं, दृष्य समाप्त होता है .]
 सूत्र - कैसा भयंकर ! ब्राह्मण और क्षत्रियों की भयानक शत्रुता .इक्कीस बार भीषण नरसंहार .राम ने विवेक से काम न लिया होता तो न जाने क्या होता .
नटी -और उन्होंने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्वीकार कर ली .उनके निर्देशन में चलने को धर्म मान लिया
 सूत्र -हाँ ,मैंने पढ़ा है.इसके बाद नियमों के जटिल बन्धनों में समाज को जकड़ दिया गया .जन्म से मृत्यु तक कोई न कोई संस्कार .जो जरा हट कर चले, पापी कहलाये और प्रायश्चित के लिये तैयार रहे .
लोक - मार्ग रुद्ध कर दिया बुद्धि का, बाधित कर चिन्तन को ,
अहंकार से भरे मानते भू- देवता स्वयं को ,
पाप ,नरक का भय दिखला कर कुण्ठित कर डाला मन ,
विधि-निषेध के जटिल बंधनों में जकड़ा जीवन को .
सूत्र -  बदलते परिवेश में , उपयोगिता खोती व्यवस्थाएँ  भी रूढ़ होती गईँ , 
लोक . वह संक्रमण का काल था .अनेक संस्कृतियों की टकराहट .  सच है कि दूसरे को नीचा दिखा कर कोई बड़ा नहीं हो जाता .
सूत्र. - ऊँच-नीच की यह भावना समाज का ताना - बाना ढीला करने लगी ,स्त्रियों का गौरव नष्ट हुआ वे भोग्या मात्र रह गईं  .उच्च नैतिक आदर्शों का ह्रास होनो लगा .
  ,भोग-विलास की प्रधानता और उच्चादर्शों का हनन हो  और मानव चरित्र  का पतन परिणाम सामाजिक विग्रह 
नटी - हाँ कवि ,रामायण काल में नारी की अस्मिता क्षीण हो गई थी, मन और आत्मा का नहीं ,  दैहिक शुद्धता  का महत्व  रह गया था .
लोक - नर-नारी की समानता के सारे मान बदलते गए. महाभारतकाल तक वह हरण  और सेवन की वस्तु रह गई.वर्णाश्रम धर्म के दिन बीते .वृद्धावस्था में भी अबाध भोग लालसा वंश-बेलियों को डसने लगी , रोगी, निर्वीर्य संतानें  और अपंग उत्तराधिकारी  जो राज्याधिकार पाकर अपनी प्रतिद्वंद्विता में महाभारत का आवाहन कर बैठीं .महा भयंकर युद्ध जि सने देश के शक्ति-शौर्य और सुख-समृद्धि को निगल डाला परिणाम  बाहरी लोगों को यहाँ घुस-घुस कर आँखें दिखाने  की हिम्मत होने लगी . 
पर एक उपलब्धि उस युग की रही श्रीकृष्ण  का गीता-दर्शन और न दैन्यं न पलायनं का उद्घोष .
सूत्रधार  - वह विनाशकारी महासमर जिसने विध्वंस मचा कर इस वसुंधरा की ऊर्जा और पोषण-क्षमता को भी दग्ध कर दिया . इसी दूषण का परिणाम रहा सदानीरा सरस्वती का लोप . एक भरी-पुरी सभ्यता की जीवनी शक्ति को ग्रहण लग गया  ..
कैसा रहा होगा वह युग -वह राजा ,वह राज सभा जिसमें कुलवधू  का वस्त्रहरण .. ,भ्रूण -हत्या ...

 नटी -  नहीं-नहीं रहने दो ( हाथ हिला कर बरजते हुए ), कवि नहीं .वे दारुण दृष्य मंचित न हों अब . बस हमें तो  उस प्रेमावतार के दर्शन करा दीजिये . हमारे विषण्ण होते मानस को किंचित आश्वस्ति मिले .

( एक सांस भर कर सूत्रधार  सिर झुका लेता है . लोकमन, मौन पृष्ठभूमि पर दृष्टि लगाए  है.  धीरे प्रकाश बढ़ता है और बाँसुरी की मधुर धुन )
*
(क्रमशः)

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

सागर-संगम -3.

*
 दृष्य  - 3
सूत्र - कितनी उन्नत सभ्यता ,कैसा आनन्दमय जीवन और अब केवल खँडहर बचे .
लोक -कोई बड़ी भौतिक आपदा .इसके विनाश का कारण बन गई .
नटी - शताब्दियाँ लग जाती हैं जिसे सँजोने में, काल का कोप अचानक ही लील जाता है.
कवि - यह जीवन एक अविराम क्रम है .
(दो क्षण चुप्पी)
नटी -कवि,आपने देव संस्कृति की बात कही थी ,यह संस्कृत जिसे हम देव वाणी  कहते हैं क्या उन्हीं से मिली है .
सूत्र - वेदों की भाषा छंदस् रही थी ,बोलने के क्रम में वह जब अनेर रूपों में विकसित होने लगी तब  अनुशासन में रखने को  पाणिनि ने व्याकरणिक नियमों से उसका संस्कार किया और  वह संस्कृत कहलाई .
नटी -मेरा मतलब नाम से नहीं भाषा के उद्गम से है .विकसित हो रही सभ्यताओं  के उस चरण में ,इतनी पूर्ण और वैज्ञानिक भाषा व्यवहार में आए.और उसके नियम-व्याकरण बाद में बने आश्चर्य है .मुझे लगता है  देवजाति के विनाश में उनकी परंपरागत भाषा किसी तरह बच गई .
सूत्र - हाँ ,आश्चर्य मुझे भी होता है . वेदों को भी तो अपौरुषेय माना गया है  पहले यह श्रुति परंपरा में सुरक्षित रहे  .लेखन बाद में प्रारंभ हुआ .  
नटी -  देव-संस्कृति की अवशिष्ट सामग्री में जो बचा वह वंशधर ने पाया .(लोकमन सुन-सुन कर मौन मुस्करा रहा है ),कवि, तुम हँसे जाओगे या कुछ कहोगे भी ..
लोक - तुम्हारी जिज्ञासा की छूत मुझे भी लग गई, नटी .उन मनु-पुत्रों ने जो पाया ,एक पीढ़ी दूसरी की स्मृति में डालती गई ,
नटी -हाँ और चिन्तक-जन उसी के अनुरूप रच-रच कर उसमें जोड़ते रहे .तो फिर संस्कृत की लिपि ?
हूँ.. ,ये भी विकट प्रश्न है .वेदों को श्रुति परंपरा में सुरक्षित रखा कि उसकी ध्वनियाँ विकृत न होने लगें, अनुकरण में पूर्णता बनी रहे लेकिन ज्ञान के अन्य ग्रंथ लिखित रहे होंगे कुछ  लोगों का जीवित बचना संभव है .सभी कुछ नष्ट नहीं होता .
 सूत्र.- प्रिये , संभावनाओं का कोई अंत नहीं  कवि को आगे बढ़ने दो .हाँ, कवि .
लोकमन -  सभ्यता सिंधु घाटी तक सीमित नहीं थी .इसकी व्याप्ति दूर-दूर तक सरस्वती नदी के पूरा क्षेत्र में तो थी ही. भारत से दूर दूरस्थ भूमियों में भी जो प्राचीन अवशेष मिलते हैं उनमें और इनमें बहुत समानताएं हैं .
सूत्र - और आर्य ?
लोक. - आर्य इसी देश के वासी रहे थे वे एक जगह सीमित हो कर रहनेवालों में नहीं थे  .प्रारंभ में उच्च भूमियों पर निवास करते थे .दूर देशों तक उनका विस्तार रहा था .समय के साथ जन-संख्या का क्षेत्र फैलता गया."
       सूत्र - इनकी श्रेष्ठता का लोहा सबने माना .कुछ विशेषताएँ रही होंगी, मित्र .
लोकमन - वह भी देख लो -
दृष्य -
आर्यों की संस्कृति का विशेष ,था सप्त- सिन्धु अति रम्य देश .
आत्मानुभूति का उषाकाल ,वह वेद ऋचाओं का सुकाल .
मंगल - स्वर से गूँजे जंगल  ,ऋषि रचने लगे वेद मंडल .

[पृष्ठ भूमि से स्वर -
आत्मवत् सर्वभूतेषु ,सर्वभूतानि चात्मनि .
यः पश्यति स पश्यति .]
लोक - विश्वात्मा के अति ही समीप ,मनुजात्मा ज्योतित ज्ञानदीप .
कर्मण्य,समन्वय अनुशासन ,आनन्द उछाह सहज जीवन .
कल्याण विश्व का चरम ध्येय,ऋत और सत्य से युक्त श्रेय .
सबका सुख ही अपना सुख हो ,निष्कलुष ,सन्तुलित जीवन हो .
इच्छा विवेक आधार गहे ,वसुधा कुटुम्ब अविकार रहे .
[पृष्ठभूमि से स्वर -सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः ,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तः,मा कश्चिद् दुःख भाव भवेत् .]

श्रद्धा विवेक आधार रहे ,वसुधा कुटुम्ब अविकार रहे .
मानव ही है सबसे महान् ,इस महासृष्टि का समाधान .
विश्वास युक्त होकर अदीन ,मन रहे सतत आनन्दलीन .

इनका आवागमन दूर-दूर तक चलता था. दृषद्वती,जिसे हम अब दज़ला कहते हैं  (दजला )का क्षेत्र  पुलस्तिन जो पैलेस्टाइन कहलाता है असुरिया या असीरिया तक और उससे आगे भी ..
 सूत्र - आर्य-भाषा और शब्द चाहे विरूप हो गए हों ,उन भाषाओँ में अभी भी खोजे तजा सकते हैं .
नटी -कैसा होगा उनका जीवन ?
दृष्य खुलता है - 
[अपेक्षाकृत मैदानी क्षेत्र ,आर्यों के डेरे गड़े हैं पृष्ठभूमि में बैलगाड़ियाँ ,पशु आदि .आग जल रही है ,जिसके चारों ओर लोग विभन्न क्रिया कलापों में व्यस्त हैं .
एक व्यक्ति - कितना विस्तृत है यह प्रदेश . और कितने भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग यहाँ रहते हैं .
वृद्ध -आश्चर्य हो रहा है सुमेध को . हमें पहले ही आभास था कि यह भू क्षेत्र बहुत बहुत-दूर-दूर तक फैला है  नाग ,गरुड,वानर, किरात ,निषाद मत्स्य आदि जाने कितने कबीले यहाँ बसते हैं .
सुमेध - उधर उत्तर पश्चिमी दिशा हमारी जानी पहचानी रही पर ये जो असुर कहलाते हैं ,वे विचित्र लोग हैं .नाक कान छेद कर स्वर्ण पहनते हैं ,मुझे तो वितृष्णा होती है इनसे .
वृद्ध - वितृष्णा ,भले होती हो पर उनके नगर देखे हैं कभी ?कितने सुव्यवस्थित हैं -उनके भवन ,नालियाँ स्नानागार ,सडकें,तालाब क्या नहीं है ?लो वह अमृताश्व आ गया .
[अमृताश्व आता है ,लगता है दूर की यात्रा से आया है .सूती वस्त्र पहने है एक पोटली उसके पास है,वृद्ध को प्रणाम कर बैठता है ]
वृद्ध -दीर्घायु हो वत्स .आओ विश्रान्त हो .उषा सोम ला .
[इधर -उधर बैठे लोग पास खिसक आते हैं ,एक तरुणी पात्र में सोम ला कर देती है .अमृताश्व पीता है .एक युवक वरुण ,उसके वस्त्र छू कर देखता है ]
वरुण - मित्र ,यह वस्त्र किस प्रकार के ऊन का है ?
अमृ. - यह पशुओं से प्राप्त ऊन नहीं ,वृक्ष पर उगनेवाला रेशेयुक्त फल है .इसे कार्पास कहते हैं .
उषा - तेरी पोटली में क्या है भ्रातर ?ला, मैं देखूँ .
[कुछ और महिलायें उत्सुकता से पास आ जाती हैं ,पोटली का सामान उठ-उठा कर देखती हैं .एक उसमें बँधे मिट्टी के ठीकरे उठती है]
स्त्री -यह क्यों बाँध लाया है .ये मिट्टी के ठीकरे काहे के लिये हैं ?
अमृ. - पटल है माते .रुचि ,रख दे यह तेरे काम का नहीं . ला दे .[वृद्ध की ओर बढा कर ]तात ये असुरों के संकेत-चिह्न हैं.इनके माध्यम से अपनी बात दूसरों से कहने में देश- काल के व्यवधान बीच में नहीं आते .
रुचि -पहेली मत बुझा भ्रातर ,स्पष्ट कह .ये क्या कोई जादू है या मंत्र है ?
अमृ. - इन चिह्नो में जो अंकित किया गया है ,इनका जानकार उन्हें पढ़ कर समझ लेता है .बिना बोले ,बिना सामने आये सब स्पष्ट हो जाता है .
वृद्ध -[हाथ में ले कर ]अद्भुत है ,आश्चर्यजनक .तू बडा चतुर है अमृताश्व ,उनके ये संकेत-चिह्न तू कहाँ पा गया ?
अमृ. - उनमें कुछ से मेरी मित्रता हो गई थी ,उन्हीं से मैंने यह विद्या सीख ली .
वृद्ध - इस विद्या के विषय में मैने सुना था.हमारे आदिपुरुष मनु के पास अंकनो से युक्त कुछ भूर्ज पत्र थे .वे संग्रह में हैं और उनके जानकार भी हैं.
सूत्र -तो नसे यह विद्या सीख लेनी चाहिये थी हमें .
लोक- कौन कहता है नहीं सीखी .पर अभी सर्वसुलभ नहीं हुई .एक जगह शान्ति से रहें तो वह भी हो जाएगी .
[उसा बीच उषा,रुचि आदि महिलाएँ परस्पर वार्तालाप करती हुई आभूषण निकाल लेती है .,कुछ सूती वस्त्र भी निकलते हैं.स्त्रियाँ आभूषण उठा-उठा कर प्रसन्न हो रही हैं .]
रुचि -यह वलय है, मैं लूँगी .
उषा -कितनी तो लाया है भ्रातर .ला मुझे भी दे .
एक महिला -[कर्णफूल उठा कर ]यह क्या है ?
अमृ. - वे लोग नाक -कान छेद कर ये आभूषण पहनते हैं .
वृद्ध -वत्स अमृताश्व ,तूने यह ठीक नहीं किया .पुष्पों से अधिक सुन्दर और सुलभ और कोई  शृंगार हो सकता है क्या ?हमारी स्त्रियाँ आभूषण-प्रिय हो जायेंगी ,अपनी स्वाभाविक गरिमा और शील खो देंगी .यह विलासिता हमें कहीं का नहीं रखेगी .जब तक भुजाओं में बल है यह धरती हमारी है ,नहीं तो कुछ अपना नहीं .रुचि,इषा ,ये आभूषण रख दो .अपना कार्य करो .[वे रख देती हैं ]हमें असुरों से बचकर रहना होगा .वत्स सुमेध ,समस्त गण को इस पवित्र अग्नि के चारों ओर एकत्र करो .
[कुछ युवक उठ कर जाते हैं ,लोग एकत्र होने लगते हैं ]
वृद्ध - जन सुनें ,गण सुनें ,ब्रह्म सुनें, यह धरती हमें आश्रय देती है, कुछ बर्बर लोग जो हमें हटा कर भूमि पर अधिकार करना चाहता है हम उनसे नहीं डरते ,हमारी स्त्रियाँ, बालक सब युद्ध करना जानते हैं.गण के समक्ष हम सब बराबर हैं ....देवों को हव्य मिले ,पितरों को कव्य मिले ,हमारा गण उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त हो इसके लिये इस ओर उनकी सब जानकारी करने को अमृताश्व और ऋचीक को भेजा था .अमृताश्व आपके सम्मुख है और ऋचीक भी शीघ्र ही आयेगा .अब हमारा ब्रह्म यह निर्णय करे कि हमें आगे क्या करना है .
एक पुरुष -उचित है तात,भद्र अमृताश्व स्थिति स्पष्ट करें .
अमृताश्व - मैं एक मास के लगभग असुरों के नगर में रह कर आया हूँ .रूप में हमसे हीन होकर भी वे सभ्यता में हमसे आगे हैं .
एक स्त्री -धिक्कार है .तू उन लोगों को हमसे सभ्य कहता है [कोलाहल होता है ]
अमृताश्व -जन सुनें ,गण सुनें ,ब्रह्म सुनें, मुझे जो प्रतीत हुआ वह सबके सम्मुख स्पष्ट रूप में रखना मेरा कर्तव्य है ..
वृद्ध -[खडे होकर ,शान्ति स्थापन का प्रयास करता हुआ ]पहले अमृताश्व की बात को गण सुने .कोई पूर्वाग्रह लेकर निर्णय न किया जाय .वत्स, कहो.....
*

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

सागर-संगम - 2.

*
(पूर्व-दृष्य की निरंतरता . )
लोकमन - बहुत प्रसन्न हो रही हो कि हम देवों की संतान हैं पर उनके पराभव और नाश की गाथा से भी कुछ शिक्षा ले लो नटी ,कुछ विचार करो    बड़ी उन्नत सभ्यता रही थी उनकी वह कैसे मिट गई ?
(सब चुप हैं.)
लोकमन -उनकी घोर विलासिता और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने का अहंकार उन्हे ले डूबा .

सूत्र  -हाँ  जल प्लावन की कथा हमने भी सुनी है.,फिर क्या हुआ ,कवि ?

लोक -उधर सिन्धु की घाटी में थी द्रविड सभ्यता छाई ,
कला-शिल्प -संस्कृति अति उन्नत ,पूरी एक इकाई !
उन टीलों में दबी आज भी टेर-टेर कहती है -
मत अभिमान करो थिर कोई चीज नहीं रहती है !
 इक छोटी सी भूल कभी तो सब चौपट कर जाये !
हम क्या ?बीती संस्कृतियों के मिश्रण एक निराले ,
जिसे काल के दो पाटों ने नये रूप दे डाले !
 भारतवासी अपने को खुद काहे रहो भुलाये !
सूत्र -हाँ , धरती में समाए उस युग के अवशेष आज भी  उस विकसित  सभ्यता  की याद दिलाते हैं .
नटी -कैसी थी वह द्रविड संस्कृति ?हमने क्या कुछ पाया ?
सूत्र -कवि के मनोजगत में उसने कैसा चित्र बनाया ?
[क्षण भर को अंधकार ,फिर दृष्य सामने आता है -मंच पर मातृदेवी और नटराज की प्रतिमायें,दीपाधारों में दीप ,जलती हुई मशालों का प्रकाश वातावरण को रहस्यमय बनाता हुआ .लोक नर्तक और नर्तकियों का एक दल धीरे-धीरे प्रवेश कर रहा है .उनके अपनी -अपनी स्थिति लेने के साथ ही साथ कवि के स्वर उठ रहे हैं  -]
[प्रकाश मातृदेवी पर ]
तृष्णा ,तुष्टि ,चेतना ,निद्रा ,भ्रान्ति ,बोध सब एकाकार ,
इस अद्वैत इकाई में आ समा गये हो कर अविकार !
जननी ,जन्मभूमि ,जगदम्बा ,माया ,प्रक-ति अनेकों नाम ,
शक्ति स्वरूपा मातृ-देवि जड़ -चेतन का करती कल्याण !
[प्रकाश नटराज पर ]
यह बाल चन्द्र अमृतानन्द,डमरू में सृष्टि प्रवर्तन !
संहार-शक्ति है अग्नि वलय ,शिव नर्तन !
जड़ अपस्मार पर चरण ,अभय कर मुद्रा ,
जिससे कि संतुलित रहे मृत्यु औ'जीवन !
कैसा भरा-पुरा जीवन रहा था जिसकी स्मृतियाँ आज भी जीवित हैं . [नर्तकियों का नृत्य--]
धन-धान्य भरा आँचल लहराया रे !
धरती की गोद भरी सुख छाया रे !
 पुरवा डोले बन में कोयलिया गाये ,
 मौसम झोली भर-भर आनन्द लुटाये
सब तेरी करुणा ,तेरी माया रे !
 सब विद्या और कलायें रूप तुम्हारे ,
 सारे नारी तन व्यक्त स्वरूप तुम्हारे !
गति ही जीवन है मंत्र सुनाया रे !

 नटराज  व्योम बन छाये दिक्पट धारी !
 योगी-भोगी वे सृष्टि प्रवर्तनकारी !
सच -शिव- सुन्दर को हमने पाया रे !
 सूरज पिचकारी भर -भर किरणें मारे ,
 हँस रहीं दिशायें दोनों हाथ पसारे !
उत्सव है जीवन की प्रतिछाया रे !
(पटाक्षेप)
*

बुधवार, 14 अगस्त 2013

सागर-संगम -1 .

[ भारतीय संस्कृति की भावात्मक एकता पर आधारित  नाट्यरूपक.]

(एक मंचन के लिए इस भाव-नाटिका को  काफ़ी  पहले तैयार किया  था , मंचन सफल रहा पर मुझे लगता रहा लेखन में काफ़ी कमियाँ रह गईं हैं  ,उन्हें दूर करने का प्रयत्न करती हुई , अब  प्रस्तुत कर रही हूँ.)

 वक्तव्य - 
 संस्कृतियों का विकास, लोक-मन की अनवरत यात्रा है . लोक-मानस जब तक विवेकशील और सहिष्णु होकर समय की गति के साथ चलता है तब तक संस्कृतियों का विकास होता है अन्यथा विनाश हो जाता है .भारत एक सागर है जिसमें प्रागैतिहासिक युगों से लेकर ,आज तक अनेकानेक संस्कृतियों और धर्मों का संगमन होता आया है .विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियाँ जहाँ काल के प्रवाह में विलीन हो गईं वहीं भारतीय संस्कृति चिर -प्राचीना हो कर भी चिर-नवीना बनी रही - कारण कि सागर के समान अनेकानेक सरिताओं को आत्मसात् कर यह अपनी जीवनी-शक्ति को परिवर्धित करती रही ,साथ ही इसने विभिन्न  धाराओं को धारण कर अपनी विविधता और समग्रता को बनाये रखा .
 धर्मों और भाषाओं का उद्भव मानव समाज के सामंजस्य और कल्याण के लिये होता है ,वैमनस्य के लिये नहीं .आज जब धर्म और भाषा के नाम लेकर कुछ विकृत मन बर्बर्ताओं के नंगनाच में लगे हैं,हम पलट कर देखें कि जीवन-यात्रा के किन पड़ावों से गुज़र कर हम यहाँ तक पहुँच पाये हैं.इक्कीसवीं सदी के बदलते  परिवेश में , विश्व  के मंगल और स्वस्ति  लिये हम ऐसा  संतुलित और स्वस्थ वातावरण निर्मित करें ,जिससे कि आगत  पीढि़याँ समुचित दाय प्राप्त कर  जीवन की महाधारा में  अपना  स्थान निश्चित कर  सकें .
 अविरल काल-धारा से,लोक-मन ,लोक की भाषा में जो वैश्वानर है ,युग-युग के घाटों का रस पान करता है सूत्रधार को अनुभूतिमयी दृष्टि का दान देकर ,सतत प्रवहमान काल-धारा में समाधिस्थ होता है . नश्वर देहों में अनश्वर चैतन्य के सूत्र को धारण करनेवाला सूत्रधार ,चिर सहचरी ,जिज्ञासा नटी के साथ ,लोक मन के रस-ब्रह्म का साक्षात्कार करता है .
 आइये हम भी लोक-मन की रागिनी के अनहद नाद में गूँजते ' विविधता में एकता ' की तान को सुनने और गुनने की चाह में चलें, महामानवता के सागर -संगम  के रंगमंच पर -
(यवनिका उठने के साथ पृष्ठभूमि से शंख -घंटा नाद एवं मंगलाचरण )

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवाभागं यथा  पूर्वे  संजनाना उपासते ।। 

[साथ-साथ चलो ,साथ-साथ बोलो,तुम सबके मन समान जाने जायें.जिस प्रकार से सूर्य,चन्द्र ,पवनादिक देवता  एक दूसरे को समान महत्व देते हुये विद्यमान हैं .]
समानी वा आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।
 
 [तुम सबके अभिप्राय समान हों,तुम सबके हृदय समान हों,तुम सबके मन समान हों ,जिससे सब सुदृढ़ हों सको .]

नर्तकों का एक छोटा समूह प्रवेश कर वंदना करते हुए --
समूह गान -
' शक्ति दो हे शक्तिदायिनि, शक्ति दो !
कामना शुभ और सम परिवृत्ति दो !

हे महा महिमामयी ,उत्सव बने जीवन !
चेतना से पूर्ण हों जड मृत्तिका के कण !
मूढता भागे युगों की ,भ्रम हटे मन का ,
शाप दुख मिट जायँ ,दृढ हों प्रेम के बन्धन !
मनुजता के प्रति सतत अनुरक्ति दो !

ज्ञान औ'विज्ञान साधें विश्व का मंगल ,
कला,विद्या,शिल्प दें ममता भरा संबल !
भारती की गोद खेलें चाँद औ'सूरज,
आशिषों से पूर्ण हो माँ का मधुर आँचल !
स्नेह समता को नई अभिव्यक्ति दो !

वेष अगणित,रूप अगणित ,बोलियाँ अनगिन ,
सप्त-स्वर में बज उठे एकत्व की सरगम !
धरा से आकाश तक दुर्लभ नहीं कुछ भी ,
कोटि कर औ'कोटि पग प्रस्तुत जहाँ प्रतिक्षण !
कलुष से ,तम से असत् से मुक्ति दो !
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दृष्य  - 1.
दृष्य- सूत्रधार गहन चिन्तन में बैठा है ,चारों ओर पुस्तकें फैली हुई हैं कुछ बिखरी ,कुछ एक के ऊपर एक खुली ,कुछ एक के ऊपर एक .चौकी पर कागज़,कलम .सूत्रधार कभी कोई ग्रंथ उठाता है ,पन्ने पलटता है ,कभी कुछ पढ़ने लगता है ,कुछ लिखता है फिर रख देता है.फिर दूसरा उठा कर ध्यान मग्न हो पढने लगता है .नटी का प्रवेश ,कुछ क्षण खड़ी होकर देखती है फिर समीप आ जाती है .
नटी - आर्यपुत्र ,बड़े व्यस्त प्रतीत होते हैं .इतनी पुस्तकें ...[समीप जाकर पुस्तकें उठा-उठा कर देखती है ]स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास,प्राचीन इतिहास ,धर्म और दर्शन के इतने ग्रंथ ,साहित्य ,संस्कृति समाज-शास्त्र ...क्या खोज रहे हैं ?किसी विशेष आयोजन की पूर्व-भूमिका है ?
सूत्रधार - हाँ प्रिये ,दुनिया का गोला बडा अशान्त है.रोज अखबार बताता है कभी किसी देश में कुछ अकरणीय घट रहा है ,कभी कहीं और कुछ अनर्थ हो रहा है .अन्याय , अनाचार स्वार्थ और अहं का नंगनाच !प्रकृति के साथ अतिचार ,ध्वंस और मृत्यु के भयावह रूपों के आविष्कार !मानवता त्रस्त हो उठी है .दूर क्यों जाओ ..किसी समय जिसने सारे संसार को प्रकास दिया वह हमारा भारत भी आज तेजहत और तमसाच्छन्न हो गया है .पारस्परिक द्वेष ,ईर्ष्या,और भ्रष्टाचार !लगता है इसके अलावा यहाँ और कुछ बचा ही नहीं है .
नटी -
हाँ ,मन तो मेरा भी बार-बार उद्विग्न हो उठता है.हम कहाँ थे कहाँ आ गये और भी कहाँ जा रहे हैं,कुछ समझ में नहीं आता .मेरा तो सिर चक्कर खाने लगता है .
सूत्र - लोक मन की यात्रा-कथा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ .
नटी - लोक-मन की यात्रा-कथा !...अच्छा समझी .कवि लोकमन कहिये न !
[बाहर से आवाज आती है 'सूत्रधार हो क्या ?']
नटी - यह तो कवि लोकमन का स्वर है .आ गए ..आ गए ..!
सूत्र - कवि अन्दर आजाओ !चले आओ मित्र लोकमन !
[लोकमन का प्रवेश - धोती ,पगड़ी पहने ,कानों में मुरकियाँ ,हाथ में कविता पोथी ]
लोक - तुम्हारा काम हो गया सूत्रधार आज मैं तैयार होकर आया हूँ .
सूत्र -[प्रसन्न होकर ]तो लोकमन की यात्रा-कथा तैयार हो गई !मैं तो आज बडी उलझन में पडा था .

नटी - आर्यपुत्र बहत व्याकुल थे ,बहुत उद्विग्न , मन तो मेरा भी स्थिर नहीं रह पाता कि इस ऊहापोह को कैसे व्यक्त करें .आपको वाणी  का वरदान मिला है, कवि !हमारा समाधान आप ही कर सकते हैं .
सूत्र - किन शब्दों में स्वागत करूँ मित्र, विराजिये आपके स्वर सुनने को  मन विकल है.

लोक - भूमिका तैयार कर लो सूत्रधार , चलो ,आगे बढ़ चलें .
लोक  -.मंच तैयार है ! कवि की अंतर्यात्रा में हम भी साथ हो जायें ,प्रिये !
सूत्र -चलो ,उतर चलें रंग भूमि में ..
(उठ कर चलने का उपक्रम लोकमन कुले मंच पर स्थान ग्रहण करता है .मंच को प्रणाम और सब को नमन करता है.)
लोकमन -[ लोक शैली में कान पर हाथ रख कर स्वर भरता है ]
धारा बहती जाये रे, धारा बहती जाये !
 जो आये सो चलता जाये बहे काल की धारा ,
सतयुग ,त्रेता ,द्वापर बीता ,छोड़ बढ़ा संसारा !
रूप बदल जाये धरती का सागर पर्वत नदियाँ !
चंचल मनवा थिर न रहा बीतीं यों सौ-सौ सदियाँ !
 इस भारत की धरती पर भी युग आये,युग जाये !

आदिम लोग यहाँ जंगल में जगह-जगह रहते थे,
गरुड,नाग औ'मत्स्य आदि वे अपने को कहते थे ,
यक्ष,निषाद सभ्यता के उनसे कुछ और निकट थे ,
असुर रक्ष गंधर्व धनी थे विद्याओं में पटु थे !

नटी.-कुछ आभास दो कवि ,आदिम लोग जो जंगल में जगह-जगह रहते थे,
गरुड,नाग और मत्स्य आदि कहलाते थे उनका जीवन कैसा था ?
लोकमन - उस अतीत को कौन जाने नटी, पर मानव-मेधा प्रयास कर सकती है .

(दृष्य खुलता है -  नाग युवती ,सुनागा  आती है ,हाव-भाव से लगता है किसी की प्रतीक्षा कर रही है .)
सुनागा -अभी तक सुपर्ण नहीं आया !आ रहा है ..,वह आ रहा है .
[एक गरुड़ युवक का प्रवेश दोनों एक दूसरे को देख कर प्रसन्न हो जाते हैं .]
सुनागा - आ गया सुपर्ण ,मैं तेरी राह देख रही थी .कहाँ था अब तक ?[बैठते हैं ]
सुपर्ण -हाँ सुनागा ,मुझे देर हो गई .पाती नहीं आने दे रही थी .
सुनागा -[सशंकित होकर ]फिर तू क्या करेगा ?
सुपर्ण -तुझे अपने साथ रखूँगा .
सुनागा -मुझे तो अब तक कोई बच्चा नहीं हुआ ,मुझे कौन साथ रखेगा !
सुपर्ण -फिर मैं क्या करूँ ?बच्चा तो अपने आप होता है ,मैं भी क्या कर सकता हूँ ,तू भी क्या कर सकती है !
सुपर्णा - नहीं हुआ तो मुझे नदी में डुबो देंगे .तू तो पाती के साथ रह जायेगा .
सुपर्ण -मुझे तू अच्छी लगती है .
[अस्तव्यस्त वेषभूषा में बच्चे को गोद में लिये एक गरुड़ युवती का प्रवेश ]
सुपर्ण -अरे पाती क्या हुआ ?
पाती -भाग ,जल्दी भाग !निषाद आ रहे हैं .
सुपर्ण -कहाँ से ?हम उन्हें लड़ भगायेंगे .अब तो गरुड़ और नाग मित्र हैं ,दोनों मिल कर लडेंगे .
[हलचल और कोलाहल भाग दौड की आवाजें ]
पाती -सुनागा, भाग जल्दी से ,सुपर्ण तू क्यों खडा है ?
सुपर्ण -मैं अपना तीर-कमान ले आऊँ ; औरों को भी बुला लूँ .
[सुनागा भागने की उतावली नहीं दिखाती , उठ कर खडी हो जाती है ]
पाती -तू नहीं भागेगी सुनागा ?
सुनागा - मैं भाग कर कहाँ जाऊँ /मुझे बच्चा नहीं होगा तो ये सब मार डालेंगे .सुना है निषाद औरतों को मारते नहीं .
पाती -क्यों दुष्मन तो स्त्री-पुरुष दोनों होते हैं ?
सुनागा - नहीं वे किसी भी जाति की स्त्री को ले जाते हैं और अपने घर में रखते हैं .
पाती -अजीब लोग हैं दुष्मन की स्त्री को भी रखते हैं !
सुनागा -मैंने सुना है वे कहते हैं पुरुष झगड़ा करते हैं स्त्री नहीं करती .
पाती -अच्छा !वहाँ भी उन स्त्रियों के बच्चे होते होंगे .
सुनागा -और क्या !औरत चाहे अकेली रहे, बच्चे तो होंगे ही .
पाती -और नाग औरत के नाग बच्चे होंगे उन्हें भी पालेंगे ?
सुनागा -वे जादू मन्तर से उन्हें निषाद कर लेते हैं .
[कोलाहल बढता है दोनों भागती हैं .काले,छोटे कद के निषाद एक नाग और गरुड़ को बाँध कर ला रहे हैं ,कुछ स्त्रियाँ भी घेर कर लाई जा रही हैं .उनके पीछे निषाद स्त्रियाँ हैं ]
एक निषाद -[पाती और सुनागा को देख कर ]कैसी सफेद हैं ये औरतें !
निषाद स्त्री - यह भी कोई रंग है ?राख जैसा !
[एक निषाद बढ़ कर बंदी स्त्री के कंधे पर हाथ रखता है ,निषाद स्त्री उसे लात मार कर धकेल देती है और उसका हाथ अपने कंधे पर रख लेती है ]
निषाद स्त्री - नहीं ,नहीं .वह सिर्फ काम करने के लिये है .तेरी साथिन मैं हूँ .[बंदी स्त्रियों से ]जा,जा दूर हो यहाँ से .लकड़ी काट कर ला .
निषाद -हाँ ठीक है .ये लोग काम करेंगी .जा जा ,लकड़ी काट कर रख .[स्त्रियाँ जाती हैं ]
(पटाक्षेप )
 नटी- तो जीवन का यह ढर्रा रहा था!.
लोक -
आर्य इसी देश के वासी रहे थे .प्रारंभ में उच्च भूमियों पर निवास करते थे .दूर देशों तक उनका विस्तार रहा था .
कृषि योग्य भूमि की खोज में वे अन्य भू-भागों की ओर बढ़ते रहे .

और हाँ ,एक उन्नत जाति जो अपने को  देव कहती थी ,वह भी यहाँ निवास करती थी .पहले उसके बारे में जान लो .
 सूत्र- हाँ,हाँ अवश्य .

लोकमन -
 धारा बहती जाए...
 एक जाति थी और कि जिसके लोग देव कहलाये !
दिवलोकों के वासी हम इस धरती के रखवाले ,
सभी तत्व  हों वशवर्ती वे   यही चाहनेवाले  !
सुरापान अति प्रिय उनको उन्मुक्त भोग करते थे .
कर्महीन हो बस विलास वे जीवन में करते थे !
 आज नाम भर शेष रह गया चिह्न न बचने पाये !
सभी शक्तियों को बस में कर की ऐसी मनमानी,
डूब गई पूरी धरती यों बढ़ा प्रलय का पानी.,
कर्महीन के लिये यहाँ  पर जगह नहीं होती है ,
दैविक-भौतिक विपदायें ही उसे मिटा देती हैं !
 सिर्फ प्रजापति मनु नौका में कसी तरह बच पाये !

सूत्र - उन्हीं मनु के नाम पर तो हम मानव कहलाये
नटी - तो हम उन्हीं देवों की सन्तान हैं !
*
सूचना- इस नाटिका में व्यक्त अवधारणाओं के लिए अनेक  विद्वानों के कथ्य  और उनकी पुस्तकों की पृष्ठभूमि रही है .मैं उन सबकी आभारी हूँ .
(क्रमशः)


मंगलवार, 13 अगस्त 2013

सबसे बड़ा दोष.

हेमा ने सुसाइड कर लिया !
भार्गवी की बात सुन कर सन्न गई हूँ .
अंतरात्मा चीख उठती है ,' नहीं, नहीं, नहीं !'
अभी उसकी उम्र ही क्या थी मुश्किल से तीस पार किये होंगे !
साथ बैठी सरिता ने कहा था 'सुसाइड करना कायरता है .'
कोई पागल हो जाए उससे अच्छा उस अभिशापमय जीवन से मुक्त हो जाना नहीं है क्या ?'
एक और व्यक्तित्व असमय ही निर्ममता से तोड़ डाला गया .
जिनने  उसे मरने के लिए विवश किया और बाद में भी उसे ही दोषी बना रहे हैं वे निरपराध हैं !

हमेशा हँसती रहनेवाली वह लड़की बीमार नहीं थी ,उसका दिमाग़ खराब नहीं था .हाँ, बाद के दिनों में बड़ी हताश और थकी लगती थी
उसे शुरू से ढाला गया था - सीधी बनो ,सुशील बनो ,सब कुछ सह लो ,किसी को जवाब मत दो .लड़की का धर्म है सब के अनुसार चलना,सब चुप रह कर निभाना. .शुरू से कह- कह कर कि अपना मत सोचो ,अपनी इच्छा कुछ नहीं दबा दिया गया था उसका मन .
अंत में  उसे क्या मिला - कुसूर किसका ?
*
वह कर्कशा नहीं थी ,होती तो दूसरों का जीना दूभर कर देती .माँ-बाप ने इतना निरीह बना कर इस क्रूर दुनियां के अयोग्य बना दिया था.सबसे बड़ी जुम्मेदारी उस आदमी की जो माँ-बाप के पास से ले आय़ा था ,जिसमें अपनी कोई  की सामर्थ्य नहीं थी ,अपने को उस पर थोपता चला गया था .वह उसे छोड़ गई क्या बुरा किया ?
यंत्रणा कितनी वीभत्स होती है .
*
वह मेरी छात्रा रही थी ,दस बरस पहले .खूब लंबी-सी साँवली-सलोनी हेमा ! कभी आगे की बेंचों पर नहीं बैठती थी ,और हमेशा हँसी बनी रहती उसके चेहरे पर .मुझे लगता मैं बोल रही हूँ और यह ध्यान नहीं दे रही है , पता नहीं किस बात पर हँसे जा रही है . मैं पूछती ,'क्यों ,क्या बात है हेमा ?'
'कुछ नहीं दीदी 'खड़ी हो कर वह बोलती है .
'तो इतनी हँसी क्यों आ रही है ?'
कोई उत्तर नहीं .
 महादेवी वर्मा का गद्य, पर्वत-पुत्रों की करुण- कथा, कितना गंभीर विषय और ये  हँसे जा रही है !
औरों का ध्यान भी बँटता है .क्लास में हँसी का संक्रमण फैलता है तो पढ़ाई कानों को छू कर निकल जाती है.
पढ़ने में साधारण थी हेमा ,और कुछ गड़बड़ नहीं ,बस डाँटो तो भी हँस रही है, सिर झुकाए भी हँसी से बाज़ नहीं आती .
इसीलिए एक बार बेंच पर खड़ा कर दिया. पर फिर पीरियड की घंटी बज गई थी.
उसकी ओर न देखूँ ,यही कोशिश रहती ,पर बार-बार ध्यान उसी ओर चला जाता.वह सिर झुका लेती ,अक्सर टाल जाती मैं भी .कोर्स पूरा कराना है इस के पीछे क्यों पूरे क्लास का हर्ज करूँ .. .
साल बीत गया . छुट्टियाँ हो गईँ .

*
विभाग में नई लेक्चरर आई थीं  - भार्गवी .
उस दिन उनके घर हमलोग चाय पी रहे थे ,सामने की छत पर हेमा दिखाई दी.
'अरे , ये तो हेमा है ,'मेरे मुँह से निकला .'
उसने बताया पड़ोस का परिवार उसकी भाभी के रिश्तेदार है .
फिर सुना हेमा की शादी तय हो रही है, ससुरालवाले आगे पढ़ाना नहीं चाहते .
शादी हो गई होगी. अगले साल एक बच्चे की माँ बन गई कच्ची-सी हेमा.
 भार्गवी के घर मिली थी .पीली-सी ,दुबली-सी .पर चेहरे पर उसी हँसी की झलक
मेरे सामने आते शर्मा रही थी .मैंने ही आवाज़ दे कर बुलाया था.पास बैठी तो मन उमड़ आया .
'हेमा,ससुराल में भी ऐसी ही हँसती हो न?'
'नहीं दीदी ,हर समय दाँत खोले रखना वहाँ किसी को अच्छा नहीं लगता.'
मैं  धक् से रह गई.
सबसे पहले हँसने पर मैंने ही टोका था इसे .
उसके आदमी ने भी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी.पिता की दुकान पर बैठने लगा था.यार-दोस्तो में तो शुरू से ही उसका अधिकतर समय बीतता था.
हेमा दो बच्चों की माँ बन गई .
फिर एक एक्साडेंट में उसके ससुर की मृत्यु की ख़बर सुनी.
*
दुकान की सारी जिम्मेदारी हेमा के पति पर .पर वह मन मौजी आदमी. दोस्तबाज़ी और खाने-पीने का शौकीन .माँ समझातीं तो भी नहीं सुनता .
हेमा कुछ कहती तो चिल्लाता ,'तुझसे क्या मतलब सुसरी ,खाने-पहनने को  मिलता है और क्या चाहिए? .हमारे ऊपर सासन करना चाहेगी तो जूता लगा देंगे .'
एक बार एक काली-सी औरत को घर भी ले आया था .बहुत दिनों से उससे संबंध था ,पड़ोसियों से पता लगा था.
बच्चों के लिए हेमा जुम्मेदार थी .जिसके अत्याचार सहती रही ,बच्चों को धारण किया , उसके साथ क्या कभी सहज जीवन जी पाई होगी  !और जब-तब वह आदमी हाथ भी उठाने लगा था.
*
एक बार हेमा मायके भाग आई थी , बिना किसी को बताए .
पर यहाँ माँ-बाप भाई-बहिनों के घर में कैसे खपती ?अब तो भाभी भी आ गई थीं?
फिर भी   दोष हेमा का है ,जिस आदमी ने कभी उसके साथ न्याय नहीं किया वह निर्दोष है !

भार्गवी उनकी संबंधी थी हम दोनों ने सलाह कर उसकी माँ से कहा था,'मत भेजो इसे वहाँ .पढ़ने का खर्च हम देंगे .पढ़ा कर नौकरी करने दो .'
हेमा ने मेरे पाँव पकड़ लिए थे .'दीदी,मुझे वहाँ  मत भेजो .'
माँ रो रही थी ,'आप समझती क्यों नहीं ?हमें और भी लड़कियाँ ब्याहनी हैं .
इससे तो मर जाती तो झंझट खत्म होता !.
और फिर इसका आदमी छोड़ेगा इसे ?जरा में कह दिया ये बच्चे ही मेरे नहीं हैं तो हम क्या कर लेंगे उसका ?इतना कलंक लेकर कहाँ जी पाएगी यह !'
फिर सुना वह अपने रिश्तेदारों के साथ आय़ा था और हेमा को साथ ले जाने को घसीटा था .
उसके बाप को धमका गया तुम कुछ भी बोले तो हवालात में बंद करवा दूंगा .
उसके बाद चार बरस हेमा मायके नहीं आई थी.
*
जिसे हँसने पर डाँटती थी वह हेमा कितने साल बिलकुल नही हँसी होगी !
अब वह कभी नहीं हँसेगी . इस हास और रुदन से मुक्त हो गई वह .
मेरी आँखें क्यों भरी आ रही हैं ?मेरा उसका कोई संबंध नहीं था .कुछ साल मेरे क्लास में रही थी , अपने हँसते चेहरे पर डाँट खाती .
 बार-बार आँसू उमड़े आ रहे हैं .

उन स्थितियों में जीना ,किसी के लिए संभव नहीं .जो विद्रोह करता है वह जी लेता है ,जो नहीं कर पाता वह मरने पहले बार-बार मरता है .
जीवन भर कुढ़-कुढ़ कर रहने से अच्छा एक बार मर जाना या डट कर लड़ना .प्रकृति में सदा से यह होता आया है ,जो समर्थ है जीता है ,असमर्थ मिट जाता है ,चाहे वह स्वयं को मिटा ले या दूसरे उसे मिटा दें .
क्वाँरी लड़की से माँ कहती है ,अपने घर जाकर अपना मन पूरा करना .पर अपना घर मिलता है क्या ? कहीं कोई अधिकार होता है क्या ?

पत्नी के जीवन पर और मृत्यु के बाद भी पति का अबाध अधिकार ! जब सीमा पार हो गई होगी मन ने विद्रोह किया होगा , तब उसे बता दिया गया होगा कि मुझसे बच कर जी नही सकतीं .
वह चली गई है ,चार दिन में सब ठीक हो जाएगा .मुझे नहीं सोचना चाहिए,रो-धो कर सब शान्त हो जाएँगे.आदमी दूसरा ब्याह कर लेगा ,बच्चे रो-झींक किसी तरह जी लेंगे. 

पर ध्यान उधर से हटता ही नहीं
दारुण से दारुण वेदना सह कर भी आदमी थोड़ा और जी लेना चाहता है .
 अपने-आप को कोई मार लेता है क्या ?
नहीं, ऐसी हँसनेवाली लड़की आवेश में अपने को नहीं मार सकती .
इसके पीछे बड़ी लंबी विचारणा होगी .पहले तो अपने न रहने की कल्पना कर वह रोई होगी .अपने बच्चों का सोच-सोच कर व्याकुल हुई होगी .उनकी निरीह दशा पर कितनी अशान्ति झेली होगी !
और रास्ते भी ढूँढे होंगे .
जब कुछ न कर पाई होगी ,सब कुछ असहनीय हो उठा होगा तब हार कर उसने यह कदम उठाया होगा .
मन की पीर हो या तन की सहने की एक सीमा है .आदमी  के साथ ऐसा होता तो वह बौखला जाता  .उन्मत्त हो चीख-पुकार करता  मुक्त होने को क्या-क्या नहीं करता!
 जीवन का अंत भी कितना कठिन  हो सकता है ?भीषण हा-हाकार ,रुदन से भऱपूर !
कैसा था प्रारंभ और कैसा अंत - दोनों दुखमय ! और इसके मध्य में क्या रहा ?
उफ़,सोच कर  कैसा लगता है !

और क्या पता हेमा ने खुद न किया हो, किसी और ने ही उसे ...
पर किसी को कुछ पता नहीं .किसी को क्या पड़ी है जो खोज-बीन करे !
जो हुआ वह क्यों हुआ? किसी ने रोकने की कोशिश क्यों नहीं की .यहाँ-वहाँ बहुत लोग थे ,सब मौन देखते रहे .स्त्री होना ही उसका सबसे बड़ा दोष था ?
हाँ, हाँ, हाँ !!!

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

भानमती बोलती है ...


  भानमती बोलती है ,बिना कामा-फ़ुलस्टाप लगाए .उसकी चलती गाड़ी  मैं  रोक नहीं पाती ,लोक-जीवन के तमाम अनुभव वहाँ बैठे हैं, गठरी-मुठरी बिखेरे - झटका न  खा जाएँ कहीं!
 हमारी कामवाली रुकमा खूब सध गई थी ,अब ब्याह हुआ तो छुट्टी ली , तब से नहीं  आई.
 'अब वो ना आने की ,' भानमती का कहना है ,' सुखदेई को रख लो,एक तो कामचोर नहीं  .फिर हमारे  हमारे गाँव की है- जानी-बूझी .'
  'एक दिन एवजी पर काम किया था उसने. पता है क्या कह रही थी - हरामजादा  मरद ही ठीक होता तो काहे का दुख ...'
'दीदी जी ,गाली ही तो दी कोई  छोड़-छुट्टा तो नहीं किया.तीन-तीन बच्चन का और उस चार हाथ  के निखट्टू धींगड़ का पेट भरना  आसान है का? उस पर का बीत रही है सो हम जानित हैं .
 'हाड़-तोड़ काम करती है आदमी जो कमाता है खा-उड़ा देता है कभी कुछ दे दिया तो जइस एहसान कर दिया .
कल हम गए रहे उसके घरे , रोटियां सेंक रही थी .सो हम बाहर पड़ोसन से बात करत रहे .
तीनों बच्चे और आदमी  ,खाने बैठे .जब तीसरी बार उसने परसी ,दाल की बटलोई में चमचा खटखटाने लगा.उसने टेढ़ी कर ली और निकाल कर कटोरे में डाल दी ..रोटी सेंक-सेंक कर देती रही. सब खाय चुके  उठ गए ,किसी का ध्यान नहीं गया कितना बचा उसके लै.'
खाना खा कर आदमी बोला ,' ला पानी दे .'
उसने गिलास भर दिया, पानी पी कर डकार लेता निकल गया .
बटलोई  मे बची दाल उसी थाली में उँडेल ली उसने बचे आटे का टिक्कड़ सेंक कर आ बैठी . खा कर ऊपर से दो गिलास पानी पी कर उठ गई .
लौट कर आदमी ने पूछा,'सुन,कल पाँच रुपए दिये थे कुछ बचा?'
'कहाँ नमक-मिरच-तेल सबै खतम हो गया था .अभी दो रुपए उधार के बाकी रह गए .'
'तो उधार भी कर आई! हाथ समेट कर खरच किया कर री .'
'हर चीज में आग लगी है ,दुकानवाला देने को भी तैयार नहीं होता ,बड़ी चिरौरी के बाद तो सौदा देता है .अब वो क्या फालतू है जो जरा-जरा सा तोल के अपना  काम खोटी करे .उसके तो बड़े-बड़े गाहक हैं ...'
'बेसी बकबक मत कर ,बड़ी आई  गाहकवाली !कोई एहसान नहीं करता पैसा पकड़ता है तब देता है.. और तेरे गाहक नहीं का ,उनके घरै से खाय-पी के आती है, सुसरी. '
भानमती ने बताया था -
कौन खाना खिलाता है ?जरा बहुत बचा-बचाया मिल गया तो उससे कहूँ  पेट भरता है .और जानती हो दीदी जी उसकी छोटी तो अभी दूध-पीती  है .
और भी सुनो ,कोई अच्छी चीज कभी मिल जाय तो बच्चन के लै बाँध लाती है ,आदमी भी हिस्सा पा लेता है सोई ताने सुनाता है .'..
'काहे को ले जाती है फिर घर?'
'इहै हमने  कहा  तो कहे लगी  बच्चन का चेहरा सामने आय जावत है ,गले से कइस उतरे !'
'....हाँ तो उस दिन सुख देई चुप ना रही. बोल पड़ी ,खुद लै आया करो तौन पता लगे ..'
 आदमी गारी दे के चिल्लाय परा ,'जित्ती छूट मिलती है सिर पे चढ़ी आती है...' और बाही-तबाही बकन लगा.
  दिन भर की थकी देह ,ऊपर से अधपेट खाना. .ऊ भी चुप्पै न रही ,
बाहर सुने वालेन को लगा ऊ करकसा है. मरद  से जुबान लड़ाती है .ओहि पर का बीती किसउ ने जानी ?सुनन को कान सबन के ,बोलन को मुँह सबन के  .देखन को सबन की आँखी काहे बंद हुइ जाती हैं?'
सुन रही हूँ चुप, उत्तर नहीं मेरे पास.
 *
भानमती ने बताया ,उसने भी एक बार  टोका था,' ओहिका गरियाय के खुद काहे बदनाम होती हो?'
 ऊ  कहै लाग , दिमाक मार हौहियान लगत है जिउ में आवत है  आपन मूड़ पटक लेई.
गरियाय के चिल्लाय के हड़क निकारित हैं .हम पगलाय गइन तो ई बच्चन का का होई ? और कुछू बस में नहीं,तौन  गरियात हैं ....होय बदनामी तो होय  .पैदा करि के धरे हैं तिनकी बर्बादी तो न होय !'
कहो भानमती, मैं तुम से हारी हूँ !
सारे आदर्श लाद दो उन पर , औरते चुप रहेंगी हैं .सारे उपदेश उन्हीं के लिए .पत्नी हर कीमत पर सुशील और मदुभाषी हो .नहीं हो सके तो मर जाए ,नीतिकार कवि ने कहा है -'मरै करकसा नारि ,मरै वह खसम निखट्टू .'
पर निखट्टू खसम मनमाना रहेगा.
कह लो कवि, तुम्हारी भी दृष्टि उसके  बाह्य तक सीमित रह गई !
*
लेकिन  हारना मत सुखदेई ,तुम रहो !
  लड़ लेना ,गाली दे लेना .कर्कशा ही सही ,
तुम बिन बच्चों का यहाँ कोई नहीं,तब उनकी बर्बादी कोई नहीं रोक पाएगा .
और सुनो ,पगलाना भी मत तुम ,कोई देखने-सुननेवाला नहीं होगा !
और सुखदेई ,तब ,तुम्हारे नारी-तन की दुर्गत,और बेसहारा बच्चों का हाल सोच कर ही जी काँप जाता है .
इसलिए सुनो, जी का गुबार निकाल लेना !
 कहने दो कर्कशा, पर  होश मत खोना .औरत का मरना उन लोगों के लिए सिर्फ़ एक तमाशा है पर सुखदेई ,तुम जीवित रहना !
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