गुरुवार, 8 जनवरी 2015

एक प्रयोग ( कथांश - 29.पर)


 {मेरे विशेष आग्रह पर  ,सर्वप्रिय ब्लागर, श्री सलिल वर्मा जैसे कुशल  एवं अनुभूति-प्रवण गद्यकार ने अपनी व्यस्तता के बावजूद भी ,अतिथि लेखक के रूप में  इस कथांश को  प्रस्तुत किया है . यह हमारा एक प्रयोग है  -इस आशा के साथ कि एक ही कथानक पर दो व्यक्तियों का लेखन, मूल वस्तु  के निरूपण में कुछ नई ग्राह्यता  लाकर नवीन बोधों  का संचार करे .
इस पर सहृदय- जनों की प्रतिक्रिया हमें आगे विचार करने को प्रेरित करेगी - सुधीजन अपने बेलाग विचारों से हमें उपकृत करें !  -प्रतिभा.}
 *
 कथांश -29.
सफ़र पर रवाना होने से पहले मैं वसु के घर गया... वसु का घर तो वह बाद में हुआ था,

पहले तो पारमिता का घर है. मैं जानता हूँ कि पारमिता का घर कहते हुये मैं असहज हो

जाता हूँ. अगर वसु उस घर की बहु न होती तो मैं क्या कहता... शायद तब उस घर से मेरा

कोई सम्बन्ध ही न रहा होता.

सफ़र पर रवाना होने से पहले मैं वसु के घर गया. लेकिन प्रवेश करते ही सामना हो गया पारमिता से. शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैं यहाँ आया होऊँ और पारमिता के अलावाकिसी और से सामना हुआ हो मेरा. ओशो कहते हैं कि ख़ाली सड़क पर गाड़ी चलाते हुये अगर दूर सड़क किनारे लगे किसी लैम्प-पोस्ट से टकराने का ख़्याल दिमाग़ में बैठा हो तो पूरी सड़क छोड़कर इंसान उस खम्बे से टकरा जाता है. 
  पारमिता का ख़्याल इस घर में आतेहुए इस तरह दिमाग़ पर छाया रहता है कि बस वही मिल जाती है मुझे अगवानी में.
”आइये ,ब्रजेश बाबू!” पारमिता ने एयर-होस्टेस वाले अन्दाज़ में मुस्कुराते हुये कहा. 
”यात्रा पर निकलने से पहले सोचा वसु से मिल लूँ!” 
”क्यों, मुझसे नहीं मिलने का मन हुआ!”
विनोदी स्वर में पारमिता ने उलाहना दिया.
”नहीं तुम सब से मिलने आया हूँ!” मैं झेंप गया
.”अच्छा है! घूम आओ. बदलाव तुम्हारे लिये बहुत अच्छा रहेगा. यात्राएँ नये अनुभव देती
हैं.”
”पलटकर देखता हूँ तो अब किसी भी नये अनुभव से डर लगता है.”
”इतना भारीपन अच्छा नहीं. कुछ दिन की छुट्टी ज़रूरी है.”
”भारीपन से नहीं डरता हूँ मीता, दिल के बोझ से घबराता
हूँ.”
“समझ सकती हूँ बिरजू, बड़े कठिन दिन झेले हैं तुमने.
”कठिनाई तो जीवन का अंग हैं.
लेकिन जब अपनी विवशता कठिनाई को जन्म दे तो टूट जाता है इंसान.”
”वो विवशता परमात्मा की इच्छा थी बिरजू. प्रसाद समझकर स्वीकार करो उसे. अतीत को थामे रखने से ज़िन्दगी नहीं थमती, बोझ और घुटन साँसें थमने तक पीछा करती रहती हैं.”
”मैं ही क्यों...मेरे साथ ही क्यों.. मैं यीशु नहीं हूँ मीता कि कह दूँ - जैसी तेरी मर्ज़ी. मुझे जवाब चाहिये,
जबकि मुझे ख़ुद नहीं मालूम कि मेरा सवाल किससे है!”
”तुम्हें कैसा लग रहा है ब्रजेश?”
पारमिता ने बात की दिशा मोड़ते हुए पूछा. हालाँकि उसके इस सवाल का कोई औचित्य नहीं
था.
” बस जीवन के पड़ाव पार करता चल रहा हूँ. एक तटस्थ सी मनस्थिति... भावातीत अवस्था... दु:खी नहीं हूँ, पर सुखी हूँ? क्या पता.”
”हम्म्म!” पारमिता इससे आगे कुछ भी नहीं कह पाई. कुछ कहना मतलब ऊन का सिरा पकड़कर खींचना... और अतीत के स्वेटर उधेड़ना.
“अरे! भैया!!” अचानक वसु कमरे में दाख़िल होते हुये बोली, “आप कब आए?”
”बस अभी-अभी...!”
“ब्रजेश! तुम्हारे लिये वसु और तनय ने ही सारी ख़रीदारी की हैं!” मीता अब खुलकर बोल पा
रही थी. “”वसु! अब तुम ही अपने सामने सारे सामान रखवा दो!”
“सारे सामानों की लिस्ट आपने ही तो बनाई थी दीदी! मैं सारी ज़रूरी दवाएँ भी ले आईहूँ.”
जाने की सारी व्यवस्थाएँ पूरी हो चुकी हैं. एक उदासी ख़ामोशी की चादर ओढ़े कमरे में ऊँघ रही है.

काम-धाम के बीच अनायास छा जाने वाले निर्लिप्तता के पल मैंने देखे हैं. अपना काम करते हुये कोई कैसे इतना निस्संग हो जाता है. सबका कर्त्ता होते हुये भी अनासक्त... अपने आप में विलीन और फिर अचानक वर्त्तमान, जैसे नाटक के दूसरे अंक में प्रवेश कर आया हो.
सात बार वेदी पर घूमे, लेकिन केवल मजबूरी में
अपना दु:ख छोटा लगता है, जब वे चरण याद आते हैं!हॉस्टल के उस कविता-प्रेमी रूममेट से
सुनी ये पंक्तियाँ अनायास होठों पर आ गईं. अंतस भीग गया पूरी तरह... दर्द की करवट या
जागी हुई पुरानी वेदना. मन भी बड़ा विचित्र है... कभी लीन – कभी उचाट, कितना दौड़ता-

दौड़ाता है, फिर भी कोई काम नहीं रुकता. दुनिया गले में पड़ा ढोल है... बीच-बीच में आवाज़
आती रहनी चाहिये – बिन पीटे गुज़र कहाँ!
***
अगले ही दिन एक पार्सल आया. ये किसने भेजा है मेरे नाम... लिखावट देखी सी थी, पर
पहचानी नहीं थी. पार्सल खोला तो एक डिब्बे में जमाकर रखा ऊनी पुलोवर और गुलूबन्द –
हाथों का बुना हुआ. दिमाग़ के दरवाज़े धकेलकर कई सवाल दाख़िल होने की जद्दोजहद में
थे...
“ब्रजेश जी! जा रहे हैं. पिछले दिनों बहुत भार झेला है. मन का विचलन स्वाभाविक है.”
ये कौन बोला!! कौन बतिया रहा है मुझसे? मैंने अपना सिर घुमाकर देखा... कोई नहीं.
सामने खुला हुआ पार्सल और मेरे हाथ में उस पुलोवर में लिपटा काग़ज़ का एक टुकड़ा, जो
पलटते वक़्त मेरे हाथ में आ गया था. ये आवाज़ उसी से आ रही थी और इस आवाज़ ने उस काग़ज़ के टुकड़े को ख़त का नाम दे दिया था.
“जाइये भ्रमण कर आइये. मेरे बुने हुये ये ऊनी वस्त्र विषम मौसमों में कुछ ओट दे सकें तो मुझे प्रसन्नता होगी. आप पहनेंगे तो अच्छा लगेगा.”
मैंने एक बार फिर उन वस्त्रों पर नज़र डाली... उनपर हाथ फेरा तो ऊन की गर्मी से अलग किसी के स्नेह की ऊष्मा मुझे स्पर्श
करने लगी. कोई पहचाना... अचीन्हा... कोई अपना... कोई पराया... क्या था... कौन था?”
यही मनाती हूँ कि आपकी यात्रा सफल हो. आपका उद्देश्य पूर्ण हो. एक बात और स्पष्ट करना चाहती हूँ. मेरी ओर से आप किसी प्रकार बाध्य नहीं हैं. आपका मन जो गवाही दे आप वही करें. विषम परिस्थितोयों में माँ जी, वसुधा जी और आपका बहुत अवलम्ब मिला. वे दिन पार हो गये, अब मैं सम्भल गई हूँ.”सु म ति...
 तभी मुझे लगा कि यह यह स्पर्श मुझ क्यों जाना पहचाना सा लग रहा है. अब उस ख़त में मुझे उसका चेहरा नज़र आने लगा था... वही मासूमियत और कृतज्ञता का भाव लिये वो मुझसे अपनी बात कह रही थी, नि:स्वार्थ होकर.”माँ-पिता जी ने भी अपना दुराग्रह छोड़ दिया है. मैं भी कुछ काम कर रही हूँ, आप बिल्कुल चिंता न करें. कुछ आपकी मजबूरियाँ रहीं – कुछ मेरी विवशताएँ. अब वह सब बीत गया. कभी-कभी परिस्थितियाँ ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती हैं कि इंसान का वश नहीं
रहता – अनचाहे भी. उस माँग को पूरा करना होता है – आप चिंता न करें.”
ये कैसा चमत्कार है भगवन. जो बातें, जो सवाल मैं मीता से आज सुबह कर रहा था उनके जवाब मुझे सुमति दे रही थी. उसकी बातों में एक पाकीज़गी थी. मुझे क्यों लग रहा था कि मैं उसकी बातों से पूरी तरह कंविंस होता जा रहा हूँ.
“ज़रूरत के समय आश्रय और आप लोगों का सहारा मिला. माँ ने जितना स्नेह दिया वह मेरे लिये जीवन भर की थाती है. शेष कुशल और हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकारें!”
इतना शालीन पत्र... संस्कारों की सुगन्ध लिये. कब वो पत्र मैंने पार्सल वाले डिब्बे में डाला और कब वो पुलोवर सिर से बदन पर उतारा, कब वो मफलर देवानन्द वाले अन्दाज़ में अपने गले के हवाले किया... मुझे होश नहीं. कोई मुझसे करवाता चला गया वो सब.
“वसु! ओ वसु!! देख क्या आया है मेरे लिये!””
”अरे वाह! हीरो लग रहे हैं आप!... दीदी! दीदी!! ज़रा इधर तो आना!”
“ओह्हो!! बहुत सुन्दर! जँच रहे हो तुम भी!” मीता ने कहते हुये डिब्बे से ख़त निकाल लिया और पढ़ने लगी. उसके होठों पर मुस्कुराहट नाच रही थी. “कितनी समझदार लड़की..!”और
फिर मेरी ओर देखकर यह कहती हुई अन्दर चली गई, “चलो तैयारी पूरी हुई!”

***सुमति को जवाब लिख दिया था. मगर बहुत कुछ अनकहा रह गया.

“उस दिन तुम्हारा हाथ पकड़कर साइड में खड़ा कर लिया था, वह क्या यों ही? तब कुछ  सोचा-विचारा नहीं था... मन के भीतर बैठा कोई करवा गया था. मेरे आगत के लिये अवलम्ब जुटा गया. अंतर्मन कुछ निर्णय अपने आप ले लेता है, ऊपरी मन को पता भी नहीं चलता.” यह सब लिखा नहीं गया मुझसे. झिझक ने हाथ रोक लिया.
     जिनसे आगे बढना चाहो, उनकी यादें अपने आप पीछे चली आती हैं. वो अफ़साना जिसका अंजाम नहीं सूझ रहा था, कहीं उसका कोई ख़ूबसूरत मोड़ तो नहीं...! सब छोड़कर अलग रहूँ कुछ दिन. हल्का हो लूँ, कुछ सन्यत होकर लौट आऊँ. बस! *** “भैया तुम जा रहे हो. मुझे अकेली छोड़कर?””मैं छुट्टी लेकर जा रहा हूँ. यूँ ही घूमने फिरने. वापसी अभी निश्चित नहीं. लेकिन आना तो है ही ना! सारे रिश्ते नाते, रीति-नीति... मुझे ही निभाना है! और अकेली कहाँ है तू! तनय हैं, तेरी दीदी है. हाँ, मेरी बहन तू अकेली है ,पगली!” “मज़ाक मत करो भैया! मेरा मायका होगा कभी कहीं? भाभी लाओगे न भैया!”
”हाँ बहिन! सुमति के पिता को भी आश्वस्त कर आया हूँ. आगे रहने का एक ढर्रा भी बनाना है, गले में टँगा ढ़ोल बजाये बिना निस्तार कहाँ...! पलायन नहीं, आगे की तैयारी के लिये एक के बाद एक सिर पड़े आघातों को सहला सकूँ जिसमें, बिखरती हुई ऊर्जा समेट सकूँ, इतना अवकाश
ज़रूरी लग रहा है मुझे! थोड़े दिन छुट्टी दे दे बस मेरी बहना!”
”राखी से पहले ज़रूर लौट आना. राह देखूँगी!”और उसी समय कमरे में रखे रेडियो पर गीत बजने लगा – अबके बरस

भेज भैया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाय, रे!!
-
सलिल वर्मा .
*

(क्रमशः)
*

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

कथांश - 29.

श्री सलिल वर्मा द्वारा पुनर्रचित ,कथांश - 29 अगली पोस्ट में प्रस्तुत है .
उस पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणियाँ यथस्थान सुरक्षित हैं .
असुविधा हेतु क्षमा करें !

- प्रतिभा सक्सेना .
*
( प्रिय गिरिजा,
तुम्हारी मुश्किल ( टिप्पणी में अंकित)का अनुमान कर वह पोस्ट फिर से लगा रही हूँ .)
*

यात्रा पर निकलने से पहले वसु से मिलने गया था.

बहुत समय बाद अकेले में पारमिता से बात हुई . शुरू में तो   समझ में  नहीं आया  क्या बोलें.

चुप्पी को उसी ने तोड़ा ,बोली ,' जा रहे हो ..,घूम आओ, बदलाव तुम्हारे लिए अच्छा रहेगा .यात्राएँ नये अनुभव देती हैं '.

'हाँ , बहुत थक गया हूँ .इस भारीपन को झेलना मुश्किल हो गया  है  .कुछ दिन की छुट्टी चाहता हूँ .'

गंभीर थी वह भी ,' समझ रही हूँ . बड़े कठिन दिन झेले हैं तुमने .पर अपना ध्यान रखना .'

यह भी पूछा था,

'तुम्हें कैसा लग रहा है ब्रजेश?'

कैसा लग रहा है ?कुछ पल सोचता रह गया. ' जीवन के पड़ाव पार करता चल रहा हूँ. एक तटस्थ सी मनस्थिति-  दुखी नहीं हूँ .सुखी भी नहीं  . पर केवल अपना सोचने से काम कहाँ चलता है ?'

उसके मुँह से बस 'हूँ' निकला .

अधिक न मैं कुछ कह पाया ,न उसने  पूछा.

तैयारियों की बात होती रही .

'तुम्हारे लिए वसु और तनय ने कुछ खरीदारी की है ,'

फिर वसु के आवाज़ दे कर बोली थी - अब तुम्हींआ कर अपने सामने रखवा भी दो.'

वह बैठी देखती रही.

'दीदी ने कुछ  दवाओं  और ज़रूरी चीज़ों की लिस्ट बनवा दी थी - ये लो भइया .'

जाने की व्यवस्थाएँ  लगभग पूरी  हो चुकी हैं.

 चुप्पी-सी छाई है .

काम-धाम के  बीच अनायास छा  जानेवाले  निर्लिप्ति के क्षण मैंने देखे हैं. अपनी ड्यूटी सँभालते ,कोई इतना निस्संग क्यों हो जाता है? सब का कर्ता हो कर भी अनासक्त -   अपने में विलीन फिर अचानक वर्तमान , जैसे नाटक के दूसरे अंक में प्रवेश कर आया हो .

होस्टल के उस कविता-प्रेमी लड़के से सुनी एक पंक्ति मन में कौंध गई -' सात बार वेदी पर घूमे लेकिन केवल मजबूरी में, अपना दुख छोटा लगता है जब वे चरण याद आते हैं'.


तब भी  मन भीग उठा था , आज अनायास मन में फिर से वही वेदना  जाग गई .

लाख कोशिश करो सोच पूर्वाग्रहों से मुक्त  नहीं हो पाता.  मन विचित्र है  कभी लीन , कभी उचाट. कहाँ -कहाँ की दौड़ लगा आता है..फिर भी  कोई काम नहीं रुकता .  दुनिया एक ढोल है गले में पड़ा हुआ बीच-बीच में.आवाज़ होती रहनी  चाहिये - पीटे बिना गुज़र कहाँ ?

बस, अब दो दिन और , फिर अपना अकेले राम और अनजानी राहें !

*

अगले ही दिन मेरे नाम  एक अच्छा-खासा पार्सल आ गया !

'अरे, ये किसने भेज दिया ?' मुँह से निकला

 खोला तो हाथ का बुना एक पुलोवर,और मफ़लर .

साथ में पत्र भी - 'ब्रजेश जी' संबोधन के साथ


 'जा रहे हैं .जाइये बहुत पिछले दिनों भार झेला हैं .मन का विचलन स्वाभाविक है ,कर आइये भ्रमण .मेरे बुने हुए ये ऊनी वस्त्र, विषम मौसमों में कुछ ओट दे सकें तो मुझे ख़ुशी होगी.आप पहनेंगे तो अच्छा लगेगा.

यही मनाती हूँ कि आपकी यात्रा अपने उद्देश्य में सफल हो.

एक बात और स्पष्ट करना चाहती हूँ मेरी ओर से आप किसी प्रकार से बाध्य नहीं हैं .आपका मन जो गवाही दे वही करें .विषम समय में माँजी,वसुधा जी और आपका बहुत अवलंब मिला .वे दिन पार हो गये. अब मैं सँभल गई हूँ .माता-पिता ने भी अब अपना दुराग्रह छोड़ दिया है .कुछ काम कर ही रही हूँ आप चिन्ता न करें .

 कुछ आपकी मजबूरियाँ रहीं, कुछ मेरी विवशताएँ .अब वह सब बीत गया .

 .कभी-कभी परिस्थितियाँ ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करती हैं कि इंसान का वश नहीं रहता -अनचाहे भी ,उस माँग को पूरा करना होता है -आप चिन्ता न करें ...'

वसु-पारमिता के लिए  आभार आदि पढ़ते-पढ़ते  स्वेटर  पर दृष्टि गई,

उठा कर देखने लगा.  खोल कर देखा खूब आरामदेह -बढ़िया साइज़ . मफ़लर उठा कर  गले मेैं लपेट लिया .

मुँह से निकला ,'अच्छा है?'

वसु को आवाज़ लगाई ,'देख तो.. मेरे लिए ये क्या आया है .'

'अरे वाह भइया !' मारे उत्तेजना के उसने  दीदी को पुकार लगा दी.

'क्या हुआ?' कहती पारमिता चली आई .

सब खुश - कितनी समझदार लड़की!

मैनें दोनों तहा कर तुरंत बैग में रख  लिए .

उन लोगों ने चिट्ठी भी उठाई और पढ़ ली ,मेरे मना करने की कोई तुक थी भी नहीं.

मीता की प्रशंसा भरी बोली - 'देखा!'

मैंने चिट्ठी फिर उठा ली ,' पूरी पढ़ी कहाँ अभी..'

'स्वेटर ट्राई करने की जल्दी जो थी ..'


  आगेका पढ़ने लगा -


'  ज़रूरत के समय आश्रय और  आप लोगों का सहारा मिला .माँ ने जितना स्नेह दिया मेरे लिए वह तो वह जीवन भर की थाती है.और कुछ औपचारिक पंक्तियों के बाद ,'शेषकुशल' और .

हार्दिक शुभकानाएँ स्वीकारें.'


पूरी पढ़ कर बैग की पाकेट में घुसा दी .

अब तक वहीं खड़ी थी ,चलते-चलते पारमिता एक वाक्य उछाल गई -

'चलो, तैयारी पूरी हुई !'

*

सुमति को उत्तर दे दिया था  -

आपके बुने स्वेटर से बहुत आराम निलेगा .तन से अधिक मन को .नौकरी न मिले तो भी ज़रूरत के लिए ही पारमिता के पास कुछ रखा  आया हूँ ..संकोच न करें.


मैं आऊँगा .विनीता की शादी तब तक तय हो जायगी आशा यही है.

मन में आया था लिखूँ ,'उस दिन हाथ पकड़ तुम्हें साइड में खड़ा कर लिया था ,वह क्या यों ही? तब कुछ सोचा-विचारा नहीं था पर भीतर बैठा कोई करवा गया. मेरे आगत के लिए अवलंब जुटा गया.

 अंतर्मन, कुछ निर्णय अपने आप ले लेता है ,ऊपरी मन को पता भी नहीं चलता.'

पर यह कुछ उसे लिखा नहीं.


जिनसे आगे बढ़ जाना चाहो उनकी यादें अपने आप पीछे चली आती हैं .


उसने पूछा था कैसा लग रहा है ?

कह नहीं पाया ,पर   लग तो रहा ही है ,मन उड़ा-उड़ सा  कहीं टिकता नहीं.कुछ नहीं . एक रीतापन !जिसे भरने का कोई उपाय नहीं.

सब छोड़ कर अलग रहूँ कुछ दिन थोड़ा .हल्का हो लूँ .अधिक संयत हो कर लौट आऊँ, बस .

*

वापसी कब?

अभी निश्चित नहीं, पर  आना तो है ही,  सारे रिश्ते-नाते ,रीति-नीति  निभाना है ..सुमति के पिता को आश्वस्त कर आया हूँ .आगे रहने का एक ढर्रा भी बनाना है.

गले में टँगा, ढोल बजाये बिना निस्तार कहाँ !

पलायन नहीं ,आगे की तैय्यारी के लिए .एक के बाद एक सिर पड़े आघातों को सहला सकूँ जिसमें , बिखरती हुई ऊर्जा  समेट सकूँ, इतना अवकाश बहुत ज़रूरी लग रहा है!


पारमिता ,मैं तुम्हें भी विरत नहीं खुशियों में डूबते देखना चाहता हूँ .जो मेरा साथ निभायेगी उसे भी प्रसन्न और तुष्ट रखना चाहता हूँ. अपने आप को कहीं सार्थक कर सकूँ - यत्न यही रहेगा  .


 जब वसु से कहा था,' मैं छुट्टी ले कर जा रहा हूँ ,यों ही घूमने-फिरने.. .'

वह परेशान हो उठी ,' भइया, तुम चले जा रहे हो  मुझे अकेली छोड़ कर?'

'नहीं पगली .अकेली कहाँ तू?. और तुझे तुझे कैसे छोड़ूँगा, अकेली बहन मेरी .लौट आऊँगा .यहाँ  तनय है और तेरी दीदी भी है  न!'

'मेरा  मायका होगा कभी कहीं ?..भाभी लाओगे न भइया ?

'हाँ बहिन ,जीवन के सारे ज़रूरी काम पूरे करूँगा ..अभी  थोड़े दिन छुट्टी दे दे बस ..!'

'ठीक है .राखी से पहले  जरूर लौट आना. राह देखूँगी . '

' चल, मान लिया !'

यही सही - अभी तो काफ़ी दिन हैं राखी के .

*