बुधवार, 16 सितंबर 2015

हरमीत बिल्ला

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कई वर्ष मुज़फ़्फ़रनगर में रही थी.
जब वहाँ  से चलना पड़ा तो चिट्ठी-पत्री के लिये अपनी मित्र से उनके घर का डाक का पता पूछा . घर तो कई बार गई थी , बाहर के पत्थर पर निवास के नाम का अंकन भी देखा था -पर कभी गौर नहीं किया ,ज़रूरत नहीं समझी कि देख कर ठीक से पढ़ लूँ. सोचा भी नहीं था कि कभी इस पर भी कोई कौतुक खड़ा हो जाएगा .
अपना नाम और मोहल्ला बता कर निवास का नाम 'हरमीत बिल्ला' लिखाया उन्होंने .एक से एक अजीब नाम  सुने हैं ,लड़कियों का नाम बिल्लो भी सुना है .अपने को क्या अंतर पड़ता है ,सोचा मैंने .किसी के नाम पर होगा , हरमीत नाम और बिल्ला सरनेम-निकनेम .जो भी हो .
फिर एक बार मेरी  मित्र के पत्र में उनका पता अंग्रेज़ी में लिखा आया , निवास का नाम लिखा था - 'Hermit Villa', .मेरे तो ज्ञान-चक्षु खुल गये .अंग्रेज़ी के हिन्दीकरण का ऐसा प्रभावी रूप आज तक नहीं देखा था. यों भी देखा जाय तो अंग्रेज़ी में जो अक्षर लिखे गए उनका मुखर होना ज़रूरी नहीं ,लिखते कुछ हैं ,बोलते कुछ .और हिन्दी -  लोक-भाषा में अक्सर ही व का ब (कहीं-कहीं भ भी -यूनिवर्सिटी को
यूनिभर्सिटी ,सुना होगा आपने भी )हो जाता है .  यह तो स्थानीय जनता के द्वारा सहज-सरल रूपान्तरण है ,वह भी कितना सार्थक !अनायास चल पड़ा और बिना किसी विवाद के  शिरोधार्य कर लिया  सब ने .यह है असली जनता-जनार्दन की आवाज़ ! पोस्ट आफ़िस वालों ने भी माना ,तभी तो डाक सही जगह पहुँचती है .
कभी आप मुज़फ़्फ़र नगर जायँ, तो आर्यकन्यापाठशाला इन्टर कॉलेज से थोड़ी दूर एक भवन मिल जायेगा जिसके द्वार के निकट एक प्रस्तर-शिला पर अंग्रेज़ी में  अच्छे खासे अक्षरों में अंकित है - Hermit Villa ,अंग्रेज़ों के ज़माने का मज़बूत निर्माण है .अभी भी शायद वैसा ही खड़ा हो. वहाँ की बोली में किसी भाषा के शब्दों को अपने ढर्रे में ढाल लेने की अद्भुत क्षमता पाई है मैंने .बहुत से उदाहरण हैं जिनमें से एक यह - हरमीत बिल्ला !
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बुधवार, 9 सितंबर 2015

छुट्टी -

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छुट्टी ! मतलब नियमों- अनुशासनों से खुली  छूट , लादी गयी व्यवस्था  से मुक्ति , मनमाने मौज से रहने का दिन .सारी चर्या पर ख़ुद का नियंत्रण - नहाने ,खाने, बैठने-उठने सब में !
बल्कि छुट्टी का खुमार एक दिन पहले की शाम से चढ़ने लगता है . लगता है कल कौन ड्यूटी बजानी है और आराम-आराम से चलने लगते हैं शेष बचे रहे दिन के धंधे .  खाने  कोई जल्दी नहीं न सोने की  .फिर इधर उधर कुछ-न-कुछ करते काफ़ी रात हो जाती है .

असली छुट्टी का दिन शुरू होता है चौथाई दिन चढ़े जागने के बाद से. सोओ देर में, तो समय से कैसे उठ सकते हैं ? नींद खुल भी जाय तो बिस्तर पर पड़े रहने का अपना ही आनन्द है .और उठने की जल्दी भी क्या ? उठे तो पहले टीवी पर हाथ गया , एक छुट्टी का ही तो दिन मिलता है कुछ मन का करन को . पर इत्मीनान से देखने की फ़ुर्सत किये है ?दैनिक क्रियाओं के बिना चलता नहीं न ! कोई प्रोग्राम लगा कर छोड़ दिया , अपनी तान उठाता रहता है टीवी.जिसे मौका मिला कोई बटन उमेठ कर अपने हिसाब से एडजस्ट कर , वाल्यूम बढ़ा देता है .बीच बीच में आपसी मुँहाचाही तो चलनी ही है -कुछ कहने-सुनने को एक ही तो दिन मिलता है  .इन्हीं सब झंझटों में नाश्ते में देरी होते जाना स्वाभाविक है . भोजन के समय से ज़रा सा पहले हो जाय तो भी गनीमत है .
 अब तक पड़े बहुत से ऊल-जलूल काम निबटाना भी जरूरी - इधर का सामान उधर करना, किताबें अगर घर में हों तो उलटना-पलटना , कागज़-पत्तर समेटना ,कपड़ों के पचड़े सँभालना . कैलेंडर का पन्ना बदलना भी बीच में कहाँ हो पाया था . आज सारे बचे-खुचे काम दिखाई दे रहे हैं हैं .
रात देर में सोये  ,ऊपर से खाना देर में खाओ तो शरीर अलसायेगा ही . ज़रा लेटने का मन हो आता है - वैसे
मौका कहाँ  मिलता है इत्मीनान से बैठने का भी. मन करता है आज  ड्यटी से छूट मिली है ,ज़रा पाँव पसार कर लंबे हो लें .फिर कहीं कोई आ गया तो  उसके साथ बैठक ही सही. कहीं बाहर भी निकल सकते हैं  ,बाज़ार या कोई और कारण .लौटत-लौटते समझ में आने लगता है ' कल फिर वही ढर्रा !,सुबह जल्दी उठना है ड्यूटी पर हाज़िरी देनी है .'
वाह  ,सोचा था क्या-क्या कर डालेंगे. कुछ नहीं हो पाया - बेकार निकल गया दिन - बीत गई छुट्टी  !

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