रविवार, 11 अक्तूबर 2015

बहुत-से स्वाद खो गये हैं -

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सहज-सरस , तोष और पोष देनेवाले बहुत से स्वाद खो गये है. नये निराले अटपटे-लटपटे स्वादों ने जगह ले ली उनकी.न परिचित रूप, न स्वाभाविक रंग .उनकी जगह लेने जाने कितने बनावटी रसायनी घाल-मेल मुख्यधारा में आते जा रहे हैं.अजीनोमोटो जैसा जीव भी  रसोई में प्रवेश पा गया .गहरी मंदी आँच पर सीझने का सोंधापन ,स्वाद का वह रचाव खो गया ,अब तो 'बस दो मिनट या चटपट काम होने लगा है - किसी तरह जल्दी निपटे ,जान छूटे !
भोजन का तो रूप ही बदल गया .समोसे समोसे न रहे -किसी में पनीर भरा ,कहीं मैगी से लेकर करमकल्ला तक. बीकानेरी भुजिया कितने रूप बदल गई -आलू भुजिया ,लहसुन वाली ,खारी और जाने कैसे-कैसे विचित्र स्वादों वाली- नाम लेते ही सामने एक पूरी एक शृंखला आ जायेगी .असलियत यह कि ज़माना है पैकिंग का ,और विज्ञापन का
कमाल . क्या चाहिये यह जानने को  भी गहरे उतरना पड़ेगा - किसमें क्या खासूसियत है .खोजते रहो,  टेस्ट करते रहो.पता नहीं क्या-क्या मिल जाये ,सिर्फ़ जो चाहिये उसके सिवा .
जाना-बूझा ताज़ा सामान मिला करता था , देख कर रुचि जागती थी -अब प्रयत्न करके जगानी पड़ती है .पचास तरह की चीज़ें, पचासों वेराइटीज़ में .चुनना भी मुश्किल ! खाने को क्या मिल रहा है इसका कोई पता-ठिकाना नहीं.जिह्वा कुछ खोजती रह जाती है .तुष्टि के स्थान पर कुछ और की चाह उमड़ आती है.बनाने-खाने-खिलाने की सरल परंपरा ,वह आश्वस्त करता का अंदाज़ कहीं बिला गया ,अब तो तमाम उपचार ,व्यवहार साथ चले आते हैं .तन-मन को सरसाता वह सोंधापन ग़ायब हो गया है . खटरागों  से भरा नया आचार असहज लगने लगता है कभी-कभी. घर भी जैसे बाहर होता जा रहा है . स्वाभाविकता सिमट गई है ,नये अंदाज़ों के नये मसाले,
स्वादों को भटकाये ले जा रहे है .कुछ चाहो मिलता है कुछ और.
नई पीढ़ी को शायद भान ही नहीं कि उसने क्या कुछ गुमा दिया और क्या-क्या गुमाती  जा रही है. कितने असली स्वाद ग़ायब हो गये हैं. बनावटी महकें और बाज़ारू स्वाद मुँह लगते जा रहे हैं.घाल-मेल मुख्य धारा में समाता जा रहा है ,कुछ खास पाने की चाह बढ़ती जा रही है. कितनी कीमत चुका कर इस मिलावट और बनावट को खरीदा गया है जिसमें ऊपरी बातों का रोल  भोजन से  अधिक हो जाता है .खा कर तोष और पोष मिले या न मिले अपने विज्ञापन से  मन और नेत्रों को आकर्षित कर लेने की कला में उसकी विशिष्टता है . इसी दौड़ में भाग रहे हैं लोग .पीढ़ियों का अनुभव लुप्त हो जाये. नया   अपना रास्ता चलता जायेगा .
जो अपना है उसे तो सैंत कर  रख लें.नए को स्वीकारने का यह मतलब तो नहीं कि पुराना  अपदस्थ हो जाये!
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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

सागर - संगम -11.

* 11.
(दृष्य - वही .सूत्रधार नटी और लोकमन .)
सूत्र -आपने ऐसी धारा बहाई कवि ,कि हम तो उसी में बहते चले गये ,भूल गये कि हम उस समय से कितना आगे बढ आये हैं .
नटी - कितनी -कितनी भिन्नतायें ,लेकिन कैसा सामंजस्य !पर मित्र ,इसके बाद यह कहानी क्या रुक गई ?
लोकमन - कहानी कभी नहीं रुकी ,रुकेगी भी नहीं .राजनीति और धर्म के अंधे ठेकेदार फूट के बीज बोते रहे लेकिन जन के स्तर पर समन्वय की प्रक्रिया निरंतर चलती रही .कश्मीर से केरल तक और बंगाल से गुजरात तक ये उदात्त संवेदनापूर्ण स्वर हमें वहाँ के कवियों की वाणी में सुनाई देते हैं .उनके उदार दृष्टिकोण संकीर्णता से ऊपर उठ गये हैं ,भाषा की दीवारें गिर गई हैं ,संप्रदाय के बंधन टूट गये हैंं और वे मानवता के स्तर पर मुखर हो उठे हैं . .
नटी - विस्तार से बताइये कवि ,संकेतों की भाषा में नहीं .
लोकमन -भारत  में हर युग में ऐसे साधक हुये हैं .उनके उदार दृष्टिकोण धार्मिक और भाषागत संकीर्णताओं से ऊपर रहे . सुनो ,गुजरात के जन कवि अखा की वाणी [1630-1715]--
'बहु विद्या बहु दिन पढे,खाली किनहा शीश ,
अखा वाद करतो गयो ,चिन्हे नहीं जगदीश !
जप तप संयम साधना ,सब देह का व्यापार ,
अखा आतम तो एक है,तहाँ दिवस नहीं तिथि वार !
और दादू दयाल का नाम सुना है आपने ?'
 नटी - हाँ , उन्हीं ने तो कहा था  ने कहा था- भाई रे! ऐसा पंथ हमारा
द्वै पख रहित पंथ गह पुरा अबरन एक अघारा
बाद बिबाद काहू सौं नाहीं मैं हूँ जग से न्यारा  !
वाद-विवाद काहू सों नाहीं याहि जगत से न्यारा !
सम दृष्टि ,सुभाइ सहज में आपहि आप विचारा !
मैं तैं मेरे यह मति नाहीं ,निरबैरी ,निर्विकारा !
मन ही मन तू समझ समाना आनँद अपारा 1
सूत्र - हाँ सुना था कहीं हमने भी कि जैन कवि आनन्द घट ने सभी धर्मों के आराध्यों को पर्यायवाची माना और कहा नाम अलग अलग हैं सत्ता एक है -राम कहो ,रहमान कहो ,कोउ कान्ह कहो महादेव री ,

सूत्र - वे  गुजरात के संत प्राणनाथ भी तो  ,जिन्होने प्रणामी समप्रदाय चलाया ,बुन्देलखण्ड में भूदेव नाम से जाने जाते हैं .उन्होंने सारे तीर्थों के साथ मक्का मदीना की यात्रा कीथी ,और सब धर्मों के ग्रंथों का गहन अध्ययन कर उनके तत्वों को ग्रहण कर प्रणामी संप्रदाय की स्थापना की.
सूत्र - उन का प्रभाव ,हमारे महात्मा गांधी पर भी पड़ा था.

लोकमन -
धारा बहती जाये ..
गुर्जर की धरती ने ऐसे विरल पूत उपजाये !

भेद-भाव से रहित वहाँ संतों के मधु स्वर गूँजे ,
जाति धर्म भाषा के सारे ही आडंबर डूबे ,
शुद्ध भावना के स्वर ,मानवता के प्रेम भरे स्वर ,
हिन्दू ,मुस्लिम .जैन ,पारसी जन के अंतस् के स्वर
अखा ,दीन दरवेश ,हरी सिंह ,नरसी काजी अनवर ,
वसुधा ही कुटुंब  चेतना मानव की अविनश्वर !
नटी - तो क्या अन्य प्रदेशों की  लोक-चेतना में यह गूँजें नहीं उठी ?
 लोक - इस भारत के हर प्रान्त में ऐसे ही मानवतावादी संदेश वाणी में गुंजार उठे .
 बुन्देलखण्ड में जो भूदेव नाम से अमर होगये उनकी आवाज सुनो --
कृष्ण, मुहम्मद ,देवचंद ,प्राणनाथ ,छत्रसाल ,
इन पंचन को जो भजे ,दुःख हरे तत्काल !
इन प्राणनाथ ने विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में कहा था -बोली जुदी सबन की ,और सबका जुदा चलन
सब उरझे नाम जुदे धर ,पर मेरे तो कहना सबन ,
बिना हिसाबे बोलियाँ गिने सकल जहान ,
सबको सुगम जान के कहूँगा हिन्दुस्तान !

सूत्र  -  जानता हूँ ,कोई दीन दरवेश उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक जीवित थे ,ये ईस्ट इंडिया कमपनी में मिस्त्री थे और हाथ कट जाने के बाद फकीर हो गये थे .[मुसलमान दरवेश का छायाचित्र
हिन्दू कहे सो हम बडे ,मुसलमान कहे हम्म ,
एक मूँग दो फाड हैं ,कौन जाद कौन कम्म !
 लोक -और सुनो ,जाति के कोली अर्जुन की भाषा गुजराती ,उर्दू और पंजाबी की खिचडी थी .उनने खुद कहा --सुनो मेरा साथी ,गाया गुजराती ,
मेरी जबान जरा उर्दू में आती ,
साहब तो सबै बूझे बोलत बिलाती ,
नीच पास नाणु होय शिर छाय थाती !
संस्कृत का पूत जो कपूत नीच नाती !
लोक -एक साध्वी थीं माता ओंकारेश्वरी उन्होंने समाज के निम्न वर्ग को ईश्वर के सबसे अधिक समीप पाया था -
नंगा आवे ,नंगा जावे ,नंगा जन नारायण पावै !

सबका साहब एक ,एक ही मुसलिम हिन्दू !
सूत्र -इन कवियों पर किसा विशेष प्रान्त की छाप नहीं है ,शब्द -शब्द पर भारतीयता की मुहर है .

 लोक -भाषा की दृष्टि से भी इन उदारमना संतों को कभी प्रान्तों की बाधा नहीं आई,उन्होंने वही भाषा अपनाई जो भारत के सामान्य जन की भाषा थी ,क्योंकि उन्हें सबसे जुड़ना था सबके साथ चलना था .
सूत्र - अच्छा इन कवियों पर किसी संप्रदाय -धर्म के प्रभाव नहीं रहे थे?
लोकमन - साथ रहने से प्रभाव तो अनायास आ जाता है -परस्पर प्रभावों  के कारण  भिन्न मतों को लोग एक मंच पर बोलते हैं, वाणी में उदारता और सामंंजस्य का क्रम आगे बढ़ता  हैं .

गुजरात के नभुलाल[1853 -1928]और कोली जाति के अर्जुन [1900-1976]पर सूफियों का स्पष्ट प्रभाव है -साधना मार्ग के चार पड़ावों का स्पष्ट उल्लेक है --पिछाना शीर दहीं मस्का ,लगा रोगान प्यारा है ,
सरीकत और तरीकत से हकीकत कू विचारा है ,
मारिफत में मिला अखा सबै दुख का पसारा है ,
नहीं सैतान ,नहिं बंदा सभी का सिरजनपारा है
पवन आतस जमीं आबे सबै साहब हमारा है !
नभू मुकररबडा रकीन ए मुरसद का इसारा है !
1955से 2024में रंग अवधूत पर बौद्ध धर्म का प्रभाव था  और अनेक भाषाओं में समान रूप से पारंगत थे -हिन्दी ,,गुजराती ,मराठी ,संस्कृत अंग्रेजी में इनका काव्य मिलता है .इनका कहना है -हिन्दू ,मुस्लिम ,पारसी ख्रिस्ती कहो तो हम ही हैं ,
ना नात है ना जात है ना बात है वहाँ हम ही हैं ,
सातवें आसमान पर है तख्त निरगुन हमपिंका ,बिन तार तंबूर ओम बजा के हम हमहीं में मस्त हैं !
लोकमन -इस धरती पर जो आया यहीं के रँग में रँग गया .कितने धर्म ,कितने मत-मतान्तर एक दूसरे में घुलमिल गये गंगा की धारा के समान भारत की संस्कृति अनगिनती जलधाराओं को आत्मसात् कर और प्रखर ,प्रबल गहन और व्यापक बनती रही  .
नटी -उर्दू के शायरों ने इस भाव का बड़ा प्यारा चित्र खींचा है 
लोक मन - ठीक कह रही हो .यही धारा बही है जाँनिसार अख्तर की इस शायरी में  -
'पिला साकिया बाद ए खाना साज ,
कि हिन्दोस्ताँ पर रहे हमको नाज!
मुहब्बत है खाके वतन से हमें ,मुहब्बत है अपने चमन से हमें ,
हमें अपनी सुबहों से शामों से प्यार ,हमें अपने शहरों से नामों से प्यार !
उठाये जो कोई नजर क्या मजाल ,तिरे रिंद लें बढ के आँखें निकाल !
निगाहें हिमाला की ऊँची रहें ,सदा चाँदतारों को छूती रहें ,
रहे पाक गंगोतरी की फबन ,मचलती रहे जुल्फ गंगो-जमन !
झलकती रहे यह अशोका की लाट ,ये गोकुल की गलियाँ ये काशी के घाट !
लुटाती रहे अने नयनों का मद ,ये सुबहे बनारस ,ये शामे अवध !
रहे आसमाँ पर दमकता हिलाल ,रहे ईद का मुस्कराता जमाल !'

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(क्रमशः)